प्रेमाश्रम/१०

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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१०

राय बहादुर कमलानन्द लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में [ ७१ ]उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थे। यद्यपि उनकी पत्नी का देहांत उनकी युवावस्था में हो गया, पर उन्होंने दूसरा विवाह न किया था। मित्रों और हितसाघकों ने बहुत धेरा, पर वह पुनर्विवाह के बंधन में न पड़े। विवाह का उद्देश्य संतान है और जब ईश्वर ने उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियाँ प्रदान कर दीं तो फिर विवाह करने की क्या जरूरत? उन्होंने अपनी बड़ी लड़की गायत्री का विवाह गोरखपुर के एक बड़े रईस से किया। उत्सव में लाखों रुपये खर्च कर दिये। पर जब विवाह के दो ही साल पीछे गायत्री विधवा हो गयी-उनके पति को किसी घर के ही प्राणी ने लोभवश विष दे दिया तो राय साहब ने विद्या को किसी साधारण कुटुंब में व्याहने का निश्चय किया, जहाँ जीवन इतना कंटकमय न हो। यही कारण था कि ज्ञानशंकर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वर्गीय दाबू रामानंद अभी तक कुंवारे ही थे। उनकी अवस्था बीस वर्ष से अधिक हो गयी थी, पर राय साहब उनका विवाह करने को कभी उत्सुक न हुए। वह उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास में कोई कृत्रिम बाधा न डालना चाहते थे। पर शोक! रामानंद घुड़दौड़ में सम्मिलित होने के लिए पूना गये हुए थे। वहाँ घोड़े पर से गिर पड़े, मर्मस्थानों पर कड़ी चोट आ गयी। लखनऊ पहुँचने के दो ही दिन बाद उनका प्राणांत हो गया। राय साहब की सारी सकल्पनाएँ विनष्ट हो गयीं, आशाओं का दीपक बुझ गया है।

किंतु राय साहब उन प्राणियों में न थे, जो शोक-संताप के ग्रास बन जाते हैं। इसे विराग कहिए, चाहे प्रेम-शिथिलता, या चित्त की स्थिरता। दो ही चार दिनों में उनका पुत्र-शोक जीवन की अविश्रांत कर्म-धारा में विलीन हो गया।

राय साहब बड़े रसिक पुरुष थे। घुड़दौड़ और शिकार, सरोद और सितार से उन्हें समान प्रेम था। साहित्य और राजनीति के भी ज्ञाता थे। अवस्था साठ वर्ष के लगभग थी, पर इन विषयों में उनका उत्साह लेश मात्र भी क्षीण न हुआ। अस्तबल में दसबारह चुने हुए घोड़े थे, विविध प्रकार की कई बग्घियाँ, दो मोटरकार, दो हाथी। दर्जनों कुत्ते पाल रखे थे। इनके अतिरिक्त बाज, शिकरे आदि शिकारी चिड़ियों की एक हवाई सेना भी थी। उनके दीवानखाने में अस्त्र-शस्त्र की श्रृंखला देख कर जान पड़ता था, मानो शस्त्रालय है। घुड़दौड़ में वह अच्छे-अच्छे सहसथारों से पाला मारते थे। शिकार में उनके निशाने अचूक पड़ते थे। पोलो के मैदान में उनकी चपलता और हाथों की सफाई देख कर आश्चर्य होता था। श्रव्य कलाओं में भी वह इससे कम प्रवीण न थे। शाम को जब वह सितार ले कर बैठते तो उनकी सिद्धि पर अच्छे-अच्छे उस्ताद भी चकित हो जाते थे। उनके स्वर में अलौकिक माधुर्य था। वे संगीत के सूक्ष्म तत्वों के वेत्ता थे। उनके ध्रुपद की अलाप सुन कर बड़े-बड़े कलावन्त भी सिर चुनने लगते थे। काव्यकला मैं भी उनकी कुशलता और मार्मिकता केचियों को लज्जित कर देती थी, उनकी रचनाएँ अच्छे-अच्छे कवियों से टक्कर लेती थीं। संस्कृत, फारसी, हिंदी, उर्दू, अँगरेजी सभी भाषाओं के वे पंडित थे। स्मरणशक्ति विलक्षण थी। कविजनों के सहन्नों शेर, दोहे, कवित्त, पद्य कंठस्थ थे और बातचीत में वह उनका बड़ी सुरुचि से उपयोग करते [ ७२ ]थे। इसी लिए उनकी बाते सुनने में लोगों को आनद मिलता था। इधर दस-बारह वर्षों से राजनीति में भी प्रविष्ट हो गये थे। कौसिंल भवन मे उनका स्थान प्रथम श्रेणी में था। उनकी राय सदैव निर्भीक होती थी। वह अवसर था समय के भक्त न थे। राष्ट्र या शासन के दास न बन कर सर्वदा अपनी विधार-शक्ति से काम लेते थे। इसी कारण कौसिंल में उनकी बड़ी शान थी। यद्यपि यह बहुत कम बोलते थे, और राजनीति भवन से बाहर उनकी आवाज कभी न सुनाई देती थी, किंतु जब बोलते थे तो अच्छे ही बोलते थे। ज्ञानशंकर को उनके बुद्धि-चमत्कार और ज्ञान-विस्तार पर अचम्भा होता था। यदि आँखो देखी बात न होती तो किसी एक व्यक्ति में इतने गुणों की चर्चा सुन कर उन्हें विश्वास न होता। इस सत्संग से उनकी आँखे खुल गयी। उन्हें अपनी योग्यता और चतुरता पर बड़ा गर्व था। इन सिद्धियों ने उसे चूर-चूर कर दिया। पहले दो सप्ताह तक तो उन पर श्रद्धा का एक नशा छाया रहा। राय साहब जो कुछ कहते वह सब उन्हें प्रामाणिक जान पड़ता था। पग-पग पर, बात-बात मे उन्हें अपनी त्रुटियाँ। दिखाई देती और लज्जित होना पड़ता। यहाँ तक कि साहित्य और दर्शन मे भी, जो उनके मुख्य विषय थे, राय साहब के विचारों पर मनन करने के लिए उन्हें बहुत कुछ सामग्री मिल जाती थी। सबसे कुतूहल की बात तो यह थी कि ऐसे दारुण शौक के बोझ के नीचे राय साहब क्यों कर सीधे खड़े रह सकते थे। उनके विलास उपवन पर इम दुस्सह झोके का जरा भी असर ने दिखाई देता था।

किंतु शनै-शनै ज्ञानशंकर को राय साहब की इस बहुशता से अश्रद्धा होने लगी। आठों पहर अपनी हीनता का अनुभव असह्य था। उनके विचार में अब राय साहब का इन आमोद-प्रमोद विषयों में लिप्त रहना शोभा नहीं देता था। यावज्जीवन विलासिता में लीन रहने के बाद अब उन्हें विरक्त हो जाना चाहिए था। इस आमोद-लिप्सा की भी कोई सीमा है? इसे सजीविता नहीं कह सकते, यह निश्चलता नहीं, इसे धैर्य कहना ही उपयुक्त है। धैर्य कभी सजीवता और वासना का रूप नही धारण करता। चह हृदय पर विरक्ति, उदासीनता और मलीनता की रंग फेर देता है। वह केवल हृदयदाह है, जिससे आँसू तक सूख जाता है। वह शौक भी अतिम अवस्था है। कोई योगी, सिद्ध महात्मा भी जवान बेटे का दाग दिल पर रखते हुए इतना अविचलित नही रह सकता। यह नग्न इंद्रियोंपासना है। अहंकार ने महात्मा का दमन कर दिया, ममत्व ने हृदय के कोमल भावों का सर्वनाश कर दिया है। ज्ञानशंकर को अब रायसाहब कीं एक-एक बात मे क्षुद्र विलासिता की झलक दिखाई देती। वह उनके प्रत्येक व्यवहार को तीव्र समालोचना की दृष्टि से देखते।

परंतु एक महीना गुजर जाने पर भी ज्ञानशंकर ने कभी बनारस जाने की इच्छा नहीं प्रकट की। यद्यपि विद्यावती को उनके साथ जाने पर राजी न होना उनके यहाँ पड़े रहने का अच्छा बहाना था, पर वास्तव में इसको एक दूसरा ही कारण था, जिसे अंतः करण में भी व्यक्त करने का उन्हें साहस न होता था। गायत्री के कोमल भाव और मृदुल रसमयी बातों को उनके चित्त पर आकर्षण होने लगा था। उसका विक [ ७३ ]सित लावण्यमय सौन्दर्य अज्ञात रूप से उनके हृदय को खीचता जाता था, और वह पंतग की भाँति, परिणाम से बेखबर इस दीपक की ओर बढ़ते चले जाते थे। उन्हें गायत्री प्रेमाकांक्षा और प्रेमानुरोध की मूर्ति दिखाई देती थी, और यह भ्रम उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहता था। घर में किसी बड़ी-बूढी स्त्री के न होने के कारण उनका आदर-सत्कार गायत्री ही करती थी और ऐसे स्नेह और अनुराग के साथ कि ज्ञानशंकर को इसमें प्रेमादेश का समय आनन्द मिलता था। सुखद कल्पनाएँ मनोहर रूप धारण करके उनकी दृष्टि के सामने नृत्य करने लगती थी। उन्हें अपना जीवन कभी इतना सुखमय न मालूम हुआ था। हृदय सागर में कभी ऐसी प्रबल तरगें न उठीं थी। उनका मन केवल प्रेमवासनाओं का आनन्द न उठाता था। वह गायत्री की अतुल्य सम्पत्ति को भी सुख-भोग करता था। उनकी भावी उन्नति का भवन निर्माण हो चुका था, यदि वह इस उद्यान से सुसज्जित हो जाय तो उसकी शोभा कितनी अपूर्व होगी? उसका दृश्य कितना विस्तृत, कितना मनोहर होगा।

ज्ञानशंकर की दृष्टि में आत्म-संयम की महत्त्व बहुत कम था। उनका विचार था कि संयम और नियम मानव-चरित्र के स्वाभाविक विकास के बाधक है। वहीं पौधा सघन वृक्ष हो सकता है जो समीर और लू, वर्षा और पाले में समान रूप से खड़ा रहे। उसकी वृद्धि के लिए अग्निमय प्रचंड वायु उतनी ही आवश्यक है जितनी शीतल भन्द समीर, शुष्कता उतनी ही प्राणपोषक है, जितनी आर्द्रता। चरित्रोन्नति के लिए भी विविध प्रकार की परिस्थिति अनिवार्य है। दरिद्रता को काला नाग क्यों समझें।। चरित्र-संगठन के लिए यह सम्पत्ति से कहीं महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य में दृढ़ता और संकल्प, दया और सहानुभूति के भाव उदय करती है। प्रत्येक अनुभव चरित्र के किसी न किसी अंग की पुष्टि करता है, यह प्राकृतिक नियम है। इसमें कृत्रिम बाधाओं के डालने से चरित्र विषम हो जाता है। यहाँ तक कि क्रोध और ईर्षा, असत्य और कपट में भी बहुमूल्य शिक्षा के अंकुर छिपे रहते हैं। जब तक सितार का प्रत्येक तार चोट न खाय, सुरीली ध्वनि नहीं निकल सकती। मनोवृत्तियों को रोकना ईश्वरीय नियमों में हस्तक्षेप करना है। इच्छाओं का दमन करना आत्म-हत्या के समान है। इससे चरित्र संकुचित हो जाता हैं। बंधनों के दिन अब नहीं रहे, यह अबाध, उदार, विराट, उन्नति का समय है। त्याग और बहिष्कार उस समय के लिए उपयुक्त था, जब लोग संसार को असार, स्वप्नवत् समझते थे। यह सांसारिक उन्नति का काल है, धर्माधर्म का विचार सकीर्णता का द्योतक है। सांसारिक उन्नति हमारा अभीष्ट है। प्रत्येक साधन जो अभीष्ट सिद्धि में हमारा सहायक हो ग्राह्य है। इन विचारों ने ज्ञानशंकर को विवेक-शून्य बना दिया था। हाँ, वर्तमान अवस्था का यह प्रभाव था कि वह निंदा और उपहास से डरते थे, हालांकि यह भी उनके विचारों में मानसिक दुर्बलता थी।

गायत्री उन स्त्रियों में न थी, जिनके लिए पुरुषों का हृदय एक खुला हुआ पृष्ठ होता है। उसका पति एक दुराचारी मनुष्य था, पर गायत्री को कमी उस पर संदेह [ ७४ ]नहीं हुआ, उसके मनोभाववों की तह तक कभी नहीं पहुँची और यद्यपि उसे मरे हुए तीन साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक आध्यात्मिक श्रद्धा से उसकी स्मृति की आराधना किया करती थी। उसका निष्फल हृदय वासनायुक्त प्रेम के रहस्यों से अनभिज्ञ था। किंतु इसके साथ ही सगर्वती उसके स्वभाव को प्रधान अंग थी। वह अपने को उससे कहीं ज्यादा विवेकशील और मर्मज्ञ समझती थी, जितनी बहू वास्तथ में थी। उसके मनोवेग और विचार जल के नीचे बैठनेवाले रोड़े नहीं सतह पर तैरनेवाले बुलबुले थे। ज्ञानशंकर एक रूपवान, सौम्य, मृदुमुख मनुष्य थे। गायत्री सरल भाव से इन गुणों पर मुग्ध थी। वह उनसे मुस्कराकर कहती, तुम्हारी बातों में जादू है, तुम्हारी बातों से कभी मन तृप्त नहीं होता। ज्ञानशंकर के सम्मुख विद्या से कहती, ऐसा पति पा कर भी तू अपने भाग्य को नहीं सराहती? यद्यपि ज्ञानशंकर उससे दो-चार ही मास छोटे थे, पर उसकी छोटी बहन के पति थे, इसलिए वह उन्हें छोटे भाई के तुल्य समझती थी। वह उनके लिए अच्छे-अच्छे भोज्य पदार्थ आप बनाती, दिन में कई बार जलपान करने के लिए घर में बुलाती थी। उसे धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों से विशेष रुचि थी। ज्ञानशंकर से इसी विषय की बातें करने और सुनने में उसे हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वह साली के नाते से प्रथानुसार उनसे दिल्लगीं भी करती, उन पर भावमय चोटें करती और हँसती थी। मुँह लटका कर उदास बैठना उसकी आदत न थी। वह हँसमुख, विनयशील, सरल-हृदय, विनोद-प्रिय रमणी थी, जिसके हृदय में लीला और क्रीड़ा के लिए कहीं जगह न थी।

किंतु उसको यह सरल सीधा व्यवहार ज्ञानशंकर की मलिन दृष्टि में परिवर्तित हो जाता था। उज्ज्वलता मे वैचित्र्य और समता में विषमता दीख पड़ती थी। उन्हें गायत्री संकेत द्वारा कहती हुई मालूम होती, 'आओ, इस उजड़े हुए हृदय को आबाद करो। आ, इस अन्धकारमय कुटीर को आलोकित करो।' इस प्रेमाह्वान का अनादर करना उनके लिए असाध्य था। परन्तु स्वयं उनके हृदय ने गायत्री को यह निमंत्रण नहीं दिया, कभी अपना प्रेम उस पर अर्पण नहीं किया--उन्हें बहुधा क्लब में देर हो जाती, चाय की बाजी अधूरी न छोड़ सकते थे; कभी सैर-सपाटे में विलम्ब हो जाता, किंतु वह स्वयं विकल न होते, यही सोचते कि गायत्री विकल में ही होगी। अग्नि गायत्री के हृदय मे जलती थी, उन्हें केवल उसमें हाथ सेंकना था। उन्हें इस प्रयास में वही उल्लास होता था, जो किसी शिकारी को शिकार में, किसी खिलाड़ी को बाजी की जीत में होता है। वह प्रेम न था, वशीकरण की इच्छा थी। इस इच्छा और प्रेम में बड़ा भेद हैं, इच्छा अपनी और खीचती है, प्रेम स्वयं खिंच जाता है। इच्छा में ममत्व है, प्रेम में आत्मसमर्पण। ज्ञानशंकर के हृदयस्थल मैं यहीं वशीकरण-चेष्टा किलोलें कर रही थी।

गायत्री भोली सही, अज्ञान सही, पर शनैःशुनै उसे ज्ञानशंकर से लगाव होता जाता। था। यदि कोई भूल कर भी विष खा ले, तो उसका असर क्या कुछ काम होगा। ज्ञानशंकर को बाहर से आने में देर होती, तो उसे बेचैनी होने लगती, किसी काम में भी नहीं लाता, वह अटारी पर चढ़ कर उनकी बाट जोहती। वह पहले विद्यावती के [ ७५ ]सामने हँस-हँस कर उनसे बातें करती थी, कभी उनसे अकेले भेद हो जाती तो उसे कोई बात ही न सूझती थी। अब वह अवस्था न थी। उसकी बात अब एकांत की खोज में रहती। विद्या की उपस्थिति उन दोनों को मौन बना देती थी। अब वह केवल वैज्ञानिक तथा धार्मिक चर्चाओं पर आबद्ध न होते। बहुधा स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की मीमांसा किया करते और कभी-कभी ऐसे मार्मिक प्रसंगों का सामना करना पड़ता कि गायत्री लज्जा से सिर झुका लेती।

एक दिन सध्या समय गायत्री बगीचे में आराम कुर्सी पर लेटी हुई एक पत्र पढ़ रही थी, जो अभी डाक से आया था। यद्यपि लू का चलना बंद हो गया था, पर गर्मी के मारे बुरा हाल था। प्रत्येक वस्तु से ज्वाला-सीं निकल रही थी। वह पत्र को उठाती थी और फिर गर्मी से विकल हो कर रख देती थी। अंत में उसने एक परिचारिका को पंखा झलने के लिए बुलाया और अत्र पत्र को पढ़ने लगी। उसके मुख्तार-आम ने लिखा था, सरकार यहाँ जल्द आयें। यहाँ कई ऐसे मामले आ पड़े है जो आपकी अनुमति के बिना तै नहीं हो सकते। हरिहरपुर के इलाके में विलकुल वर्षा नहीं हुई यह आपको ज्ञात ही है। अब वहाँ के असामियों से लगान वसूल करना अत्यत कठिन हो रहा है। वह सोलह आने छूट की प्रार्थना करते हैं। मैंने जिलाधीश से इस विषय मे अनुरोध किया, पर उसका कुछ फल न हुआ। वह अवश्य छूट कर देंगे। यदि आप आ कर स्वयं जिलाधीश से मिलें तो शायद सफलता हो। यदि श्रीमान् राय साहब यहाँ पधारने का कष्ट उठायें तो निश्चय ही उनका प्रभाव कठिन को सुगम कर दे। असामियों के इस आंदोलन से हलचल मची हुई है। शंका है कि छूट न हुई तो उत्पात होने लगेगा। इसलिए आपका जिलाधीश से साक्षात् करना परमावश्यक है।

गायत्री सोचने लगी, यह जमींदारी क्या है, जी का जजाल है। महीने आध महीने के लिए भी कही जाये तो हाय-हाय-सी होने लगती है। असामियों मे यह घुन न जाने कैसे समा गयी कि जहाँ देखो वही उपद्रव करने पर तत्पर दिखाई देते हैं। सरकार को इन पर कही हाथ रखना चाहिए। जरा भी शह मिली और यह काबू से बाहर हुए। अगर इस इलाके में असामियों की छूट हो गयी तो मेरा २०-२५ हजार का नुकसान हो जायगा। इसी तरह और इलाके में भी उपद्रव के डर से छूट हो जाय तो मैं तो कहीं की न रहूँ। कुछ वसूल न होगा तो मैरा खर्च कैसे चलेगा? माना कि मुझे उस इलाके की मालगुजारी न देनी पड़ेगी, पर और भी तो कितने ही रुपये पृथक्-पृथक नाम से देने पड़ते हैं, वह तो देने ही पड़ेगें। वह किस के घर से आयेंगे? छूट भी हो जाय, मगर लूंगी असामियों से ही।

पर मेरा जी वहाँ कैसे लगेगा। यह बातें वहाँ कहाँ सुनने को मिलेंगी, अकेले पड़े-पड़े जी उकताया करेगा। जब तक ज्ञानशंकर यह-रहेंगे तब तक तो मैं गोरखपुर जाती नहीं। हाँ, जब वह चले जायेंगे तो मजबूरी है। नुकसान ही न होगा। बला से। जीवन के दिन आनन्द से वो कट रहे हैं; धर्म और ज्ञान की चर्चा सुनने में आती है। कल बाबू साहब मुझसे चिढ़ गये होंगे, लेकिन मेरा मन तो अब भी स्वीकार नहीं करता [ ७६ ]कि विवाह केवल एक शारीरिक सम्बन्ध और सामाजिक व्यवस्था है। वह स्वयं कहते हैं कि मानव शरीर को कई सालों में सम्पूर्णत रूपातर हो जाता है। शायद आठ वर्ष कहते थे। यदि विवाह कैवल दैहिक सम्बन्ध हो तो इस नियमित समय के बाद उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका तो यह आशय हैं कि आठ वषो के बाद पति और पली इस धर्म-बधन से मुक्त हो जाते हैं, एक का दूसरे पर कोई अधिकार नहीं रहता। आज फिर यही प्रश्न उठाऊँगी। लो, आप ही आ गये। बोली, कहिए कहीं जाने को तैयार हैं क्या ?

ज्ञान--आज यहाँ थिएट्रिकल कम्पनी को तमाशा होनेवाला है। आप से पूछने आया हूँ कि आप के लिए भी जगह रिजर्वे कराता आऊँ ? आज बडी भीड होगी।

गायत्री–-विद्या से पूछा, वह जायगी ?

ज्ञान--वह तो कहती है कि माया को साथ ले कर जाने में तकलीफ होगी। मैंने भी आगह नहीं किया।

गायत्री--तो अकेले जाने पर मुझे भी कुछ आनद न आयेगा।

ज्ञान--आप न जायेगी तो मैं भी न जाऊँगा।

गायत्री-–तब तो मैं कदापि न जाऊँगी। आप की बातों में मुझे थिएटर से अविक आनद मिलता है। आइए, बैठिए। कल की बात अधूरी रह गयी थी। आप कहते घे, स्त्रियों में आकर्षण-शक्ति पुरुषो से अधिक होती है, पर आपने इसका कोई कारण नही बताया था।

ज्ञान--इसका कारण तो स्पष्ट ही है। स्त्रियों का जीवन-क्षेत्र परिमित होता है। और पुरुषों का विस्तृत। इसी लिए स्त्रियों की सारी शक्तियाँ केद्रस्थ हो जाती हैं और पुरुषो की विच्छिन्न।

गायत्री–-लेकिन ऐसा होता तो पुरुषो को स्त्रियों के अधीन रहना चाहिए था। वह उन पर शासन योकर करते ?

ज्ञान--तो क्या आप समझती हैं कि मर्द स्त्रियो पर शासन करते हैं? ऐसी बात तो नहीं है। वास्तव मे मर्द ही स्त्रियों के अधीन होते है। स्त्रियाँ उनके जीवन की विधाता होती है। देह पर उनका शासन चाहे न हो, हृदय पर उन्ही का साम्राज्य होता है।

गायत्री--तो फिर मर्द इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं?

ज्ञान--भदों पर निष्ठुरता का दोष लगाना न्याय-विरुद्ध हैं। वह उस समय तक सिर नहीं उठा सकते, जब तक या तो स्त्री स्वयं उन्हें मुक्त न कर दे, अथवा किसी दूसरी स्त्री की प्रबल विद्युत शक्ति उन पर प्रभाव न डाले।

गायत्री--(हँसकर) आपने तो सारा दोष स्त्रियों के ही सिर रख दिया।

ज्ञानशकर ने भावुकता से उत्तर दिया, अन्याय तो वह करती हैं, फरियाद कौन सुनेगा?

इतने में विद्यावती मायाशंकर को गोद में लिए आ कर खडी हो गयी। माया चार [ ७७ ]वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक कोई और बच्चा न होने के कारण वह शैशवावस्था के आन्नद भौगता था।

गायत्री ने पूछा, क्यों विद्या, आज थिएटर देखने चलती हो ?

विद्या--कोई अनुरोध करेगा तो चली चलूँगी, नहीं तो मेरा जी नहीं चाहता।

ज्ञान--तुम्हारी इच्छा हो तो चलो, मैं अनुरोध नहीं करता।

विद्या--तो फिर मैं भी नहीं जाती।

गायत्री--मैं अनुरोध करती हूँ, तुम्हे चलना पडेगा। बाबू जी, आप जगहे रिजर्व करा लीजिए।

नौ बजे रात को तीनो एक फिटन पर बैठ कर थिएटर को चले। माया भी साथ था। फिटन कुछ दूर चली आयी तो वह पानी-पानी चिल्लाने लगी। ज्ञानशकर ने विद्या से कहा, लड़के को ले कर चली थी, तो पानी की एक मुराही क्यों न रख ली?

विद्या--क्या जानती थी कि घर से निकलते ही इसे प्यास लग जायगी ?

ज्ञान--पानदान रखना तो न भूल गयी ?

विद्या--इसी से तो मैं कहती थी कि मैं न चलूँगी।

गायत्री–-थिएटर के हाते में बर्फ-पानी सब कुछ मिल जायगा।

माया यह सुन कर और भी अधीर हो गया। रो-रो कर दुनियाँ सिर पर उठा ली। ज्ञानशकर ने उसे बढावा दिया। वह और भी गला फाड-फाड कर बिलबिलाने लगा।

ज्ञान--जब अभी से यह हाल है, तो दो बजे रात तक न जाने क्या होगा?

गायत्री--कौन जागता रहेगा? जाते ही जाते तो सो जायेगा।

ज्ञान-–गोद में आराम से तो सो सकेगा नही, रह रह कर चौकेगा और रोयेगा। सारी सभा धवडा जायेगी। लोग कहेगें, यह पुछल्ला अच्छा साथ लेते आये ।

विद्या--कोचवान से कह क्यो नही देते कि गाडी लौटा दे, मैं न जाऊँगी।

ज्ञान--यह सब बाते पहले ही सोच लेनी चाहिए थी न ?गाडी यहाँ से लौटेगी तो आते-आते दस बज जायेगे। आधा तमाशा ही गायब हो जायेगा। वहाँ पहुँच जायें तो जी चाहे मजे से तमाशा देखना, माया को इसी गाड़ी में पड़े रहने देना या उचित समझना तो लौट आना।

गायत्री--वहाँ तक जा कर तो लौटना अच्छा नहीं लगता।

ज्ञान--मैंने तो सब कुछ इन्ही की इच्छा पर छोड़ दिया।

गायत्री--क्या वहाँ कोई आराम कुर्सी न मिल जायेगी ?

विद्या--यह सब झझट करने की जरूरत ही क्या है? मैं लौट आऊँगी। मैं तमाशा देखने को उत्सुक न थी, तुम्हारी खातिर से चली आयी थी।

थिएटर का पडाल आ गया। खूब जमाव था। ज्ञानशकर उतर पड़े। गायत्री ने विद्या से उतरने को कहा, पर वह बहुत आग्रह करने पर भी न उठी। कोचवान को पानी लाने को भेजा। इतने में ज्ञानशकर लपके हुए आये, और बोले, भाभी, जल्दी कीजिए, घटी हो गयी, तमाशा आरम्भ होने वाला है। जब तक यह माया को पानी


[ ७८ ]पिलाती है, आप चल कर बैठ जाइए, नहीं तो शायद जगह ही न मिले।

यह कह कर वह गायत्री को लिए हुए पंडाल में घुस गये। पहले दरजे के मरदाने और जनाने भागों के बीच में केवल एक बीच का परदा था। चिक के बाहर ज्ञानशंकर बैठे और चिक के पास ही भीतर गायत्री को बैठाया। वही दोनों जगहे उन्होंने रिजर्व (स्वरक्षित) करा रखी थी।

गायत्री जल्दी से गाड़ी से उतर कर ज्ञानशंकर के साथ चली आयी थी। विद्या अभी आयेगी, यह उसे निश्चय था। लेकिन जब उसे बैठे कई मिनट हो गये, विद्या न दिखाई दी और अंत में ज्ञानशंकर ने आ कर कही, वह चली गयी, तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। समझ गयी कि वह रूठ कर चली गयीं। अपने मन में मुझे ओछी, निष्ठुर समझ रही होगी। मुझे भी उसी के साथ लौट जाना चाहिए था। उसके साथ तमाशा देखने मे हर्ज नही था। लोग यह अनुमान करते कि मैं उसकी खातिर से आयी हूँ, किन्तु उसके लौट जाने पर मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित है। घर की लौडियों और महरियाँ तक हँसेगी और उनका हँसना यथार्थ है, दादाज न जाने मन में क्या सोचेंगे। मेरे लिए अब तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान, पूजा-पाठ, दान और व्रत हैं। यह विहार-विलास सोहागिन के लिए है। मुझे अवश्य लौट जाना चाहिए। लेकिन बाबू जी से इतना जल्द लौटने को कहूँगी तो वह मुझपर अवश्य झुँझलाएंगे, पछतायेंगें कि नाहक इसके साथ आया। बुरी फंसी। कुछ देर यहाँ बैठे बिना अब किसी तरह छुटकारा न मिलेगा।

यह निश्चय करके वह बैठी। लेकिन जब अपने आगे-पीछे दृष्टि पड़ी तो उसे वहाँ एक पल भर भी बैठना दुस्तर जान पड़ा। समस्त जनाना भाग वेश्याओं से भरा हुआ था। एक से एक सुन्दर, एक से एक रंगीन। चारों ओर से खस और मेंहदी की लपटे आ रही थीं। उनका आभरण और शृंगार, उनको ठाट-बाट, उनके हाव-भाव, उनकी मद-मुस्कान, सब गायत्री को घृणोत्पादक प्रतीत होते थे। उसे भी अपने रूप-लावण्य पर घमड़ था, पर इस सौंदर्य-सरोवर में वह एक जल-कण के समान विलीन हो गयी थी। अपनी तुच्छता का ज्ञान उसे और भी व्यस्त करने लगा। यह कुलटाएँ कितनी ढीठ, कितनी निर्लज्ज हैं। इसकी शिकायत नही कि इन्होनें क्यों ऐसे पापमय, ऐसे नारकीय पथ पर पग रखा। यह अपने पूर्व कर्मों का फल है। दुरवस्था जो न कराये थोड़ा, लेकिन यह अभिमान क्यों? ये इठलाती किंस बिरूते पर है? मालूम होता है, सब की सब नवाबजादियां हो। इन्हें तो शर्म से सिर झुकायें रहना चाहिए था। इनके रोम-रोम से दीनता और लज्जा टपकनी चाहिए थी। पर यह ऐसी प्रसन्न है मानों संसार में इनसे सुखी और कोई है ही नहीं। पाप एक करुणाजनक वस्तु हैं, मानवीय विवशता का द्योतक है। उसे देख कर दया आती, है, लेकिन पाप के साथ निर्लज्जता और मदाघता एक पैशाचिक लीला है, दया और धर्म की सीमा से बाहर।

गायत्री अब पल भर भी न ठहर सकी। ज्ञानशंकर से बोली, मैं बाहर जाती हूँ, यहाँ नहीं बैठा जाता, मुझे घर पहुँचा दीजिए। [ ७९ ]

उसे समय था कि ज्ञानशकर वहाँ ठहरने के लिए आग्रह करेगे। चलेगे भी तो क्रुद्ध हो कर। पर यह बात न थी। ज्ञानशकर सहर्प उठ खड़े हुए। बाहर आ कर एक बग्घी किराये पर की और घर चले।

गायत्री ने इतना जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानों किसी नदी में कूद रहे हो। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनो से जमा हो रही थी। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणो से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हे अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थी, क्योकि घर की फिटन पर लौटने से काम में विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना, उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है। उन्होंने किताबो में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दडता वगीकरण का सिद्धमत्र हैं। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्ज्वलित हो गयी, आँखो से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी। उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ मे एक ठोका दिया। गायत्री ने तुरत पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शका न हुई। किंतु एक क्षण के बाद जानशकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड कर धीरे से दबा दी। गायत्री ने चौक कर हाथ खीच लिया, मानो किसी विषधर ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश मे ज्ञानशकर के चेहरे पर एक सतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखायी दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखो मे अँधेरा छा गया, सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पडा कि कहाँ हैं, कब घर पहुँचूँगी। निर्वल क्रोध की एक लहर नसो में दौड़ गयी और आँखो से बह निकली। उसे फिर ज्ञानशकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शात हो गया। वह सज्ञाशून्य हो गयीं। सारे मनोवेग शिथिल पड़े गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी, जो उसे जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसके मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक, धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्व थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जाने पडा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस वाह्य स्वरूप की ओर नही गया था। अब उसे ज्ञात हुया कि यह केवल मेरा आमिक पतने ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, बरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्व[ ८० ]नाश कर दिया। इस अवर्गात ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खा कर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देख कर तड़प जाता है।

गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पाश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोकसम्मान की रक्षा करना, किंतु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।

ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारी काम चौपट कर दिया। अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी। पर गायत्री की सिसकियां सुनी तो हृदय पर चोट-सी लगी। अंतरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गया। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुताप के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने की भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हाँ! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्च शिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।

दोनो प्रार्थी खिड़की से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।