प्रेमाश्रम/९

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद
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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशकर को बँटवारै के विषय में अब कोई असुविधा न रही। लाला प्रभाशंकर ने उन्ही की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवान खाना उनके लिए खाली कर दिया, लखनपुर मोसल्लम उनके हिस्से में दे दिया, और घर की अन्य सामग्रियाँ भी उन्ही की मरजी के मुताबिक बाँट दी। बड़ी बहू की ओर से विरोध की शका थी, लेकिन इस एहसान ने उनकी जवान ही नहीं बद कर दी, वरन् उनके मनोमालिन्य को भी मिटा दिया। प्रभाअगर अब वडी बहू से, नौकरो से, मित्रो से, सम्वन्धियो से ज्ञानशकर की प्रशंसा किया करते और प्राय अपनी आत्मीयता को किसी न किसी उपहार के स्वरूप में प्रकट करते। एक दुशाला, एक चाँदी को थान, कई सुंदर चित्र, एक बहुत अच्छा ऊनी कालीन और ऐगी ही विविध वस्तुएँ उन्हें भैट की। उन्हें स्वादिष्ट पदार्थों से चडी रुचि थी। नित्य नाना प्रकार के मुरब्बे, चटनियाँ, अचार बनाया करते थे। इस कला मे प्रवीण थे। आप भी चौक से साते थे, और दूसरो को खिला कर आनदित होते थे। ज्ञानशकर के लिए नित्य कोई न कोई स्वादिष्ट पदार्थ बना कर भेजते। यहाँ तक कि ज्ञानशकर इन मद्भावो से तग आ गये। उनकी आत्मा अभी तक उनकी कपट-नीति पर उनको लज्जित विया करती थी। यह खातिरदारियाँ उन्हें अपनी कुटिलता की याद जिलाती थी और इसमे उनका चित्त दुखी होता था। अपने चाचा की सरल-हृदयता और सज्जनता के नाग्ने अपनी धूर्तता और मलीनता अत्यंत घृणित दीख पड़ती थी।

लखनपुर ज्ञानशकर की चिर अभिलाषाओ को स्वर्ग था। घर की सारी सम्पत्ति मै ऐसा उपजाऊ, ऐसा समुद्धिपूर्ण और कोई गाँव नही था जो शहर से मिला हुआ, पक्की महक के किनारे और जलवायु भी उत्तम। यहाँ कई हलो की सीर थी, एक कच्चा पर मुदर मकान भी था और सबसे बड़ी देत यह है कि यहां इजाफा लगान की बड़ी गुजाइश थी। थोड़े उद्योग से उनका नफा दूना हो सकता था। दो चार कञ्चै कुएँ खुदवा कर इजाफे की कानूनी शर्त पूरी की जा सकती थी। बँटवारे को एक सप्ताह भी न हुआ या कि ज्ञानशकर ने गौस सौ को बुलाया, जमावदी की जाँच की, इजाफा बेदखली की परत तैयार की और असामियों पर मुकदमा दायर करने का हुक्म दे दिया। अब तक सौर विलकुल न होती थी। इसका भी प्रक्ष किया। वह चाहते थे कि अपने हल, वैल, हलवाहे रत्वे जायें और विधि-पूर्वक खेती की जाय। किन्तु खां साहब ने कहा, इतने आडम्बर की जरूरत नही, वैगार में बड़ी सुगमता से सीर हो सकती है। सौर के लिए बेगार जमीदार का हक है, उसे क्यो छोड़िए।

लेकिन सुव्यवस्या रूपी मधुर गाने में एक कटू स्वर भी था, जिससे उसका लालित्य भग हो जाता था। यह विद्यावती का असहयोग था। उसे अपने पति की स्वार्थपरता। एक अति न भाती थी। कभी-कभी यह मतिभेद विवाद और कलह का भी रूप धारण कर लेता था।

फागुन का महीना था। लाला प्रभाशकर घूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने [ ६७ ] घरवालों के लिए, नये कपड़े लाये तो ज्ञानशंकर के परिवार के लिए भी लेते आये थे। लगभग पचास वर्षो से वह घर भर के लिए नये वस्त्र लाने के आदी हो गये थे। अब अलग हो जाने पर भी वह उस प्रथा को निभाते रहना चाहते थे। ऐसे आनंद के अवसर पर द्वेष भाव को जाग्रत रखना उनके लिए अत्यंत दुःखकर था। विद्या ने यह कपड़े तो रख लिए, पर इसके बदले में प्रभाशंकर के लड़कों, लड़कियों और बहू के लिए एकएक जोड़े घोती की व्यवस्था की। ज्ञानशंकर ने यह प्रस्ताव सुना तो चिढ़ कर बोले, यदि यहीं करना है तो उनके कपड़े लौटा क्यों नहीं देतीं?

विद्या--भला कपड़े लौटा दोगे तो वह अपने मन में क्या कहेंगे? वह बेचारे तो तुमसे मिलने को दौड़ते हैं और तुम भागे-भागे फिरते हो। तुम्हें रुपयों का ही ख्याल है न? तुम कुछ मत देना, मैं अपने पास से दूंगी।

ज्ञान–जब तुम धन्ना सेठों की तरह बातें करने लगती हो तो बदन में आग सी लग जाती है। उन्होंने कपड़े भेजे तो कोई एहसान नहीं किया। दुकानों का साल भर का किराया पेशग ले कर हड़प चुके हैं। यह चाल इसी लिए चल रहे हैं कि मैं मुंह भी न खोल सकें और उनका बड़प्पन भी बना रहे। अपनी गाँठ से करने तो मालूम होता।

विद्या-तुम दूसरों की कीर्ति को कभी-कभी ऐसा मिटाने लगते हो कि मुझे तुम्हारी अनुदारता पर दुःख होता है। उन्होंने अपना समझ कर उपहार दिया, तुम्हें इसमें उनकी चाल सूझ गयी।

ज्ञान---मुझे भी घर में बैठे सुख-भोग की सामग्रियाँ मिलतीं तो मैं तुमसे अधिक उदार बन जाता है तुम्हें क्या मालूम है कि मैं आजकल कितनी मुश्किल से गृहस्थी का प्रबंध कर रहा हूँ? लखनपुर से जो थोड़ा बहुत मिला उसी में गुजर हो रहा है। किफायत से न चलता तो अब तक सैकड़ों का कर्ज हो गया होता। केवले अदालत के लिए सैकड़ों रुपयों की जरूरत है। बेदखली और इजाफे के कागज-पत्र तैयार हैं, पर मुकदमे दायर करने के लिए हाथ में कुछ भी नहीं। उधर गाँववाले भी बिगड़े हुए हैं। ज्वालासिंह ने अवकी दौरे में उन्हें ऐसा सिर चढ़ा दिया कि मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं तो इन चिताओं में मरा जाता हूँ और तुम्हें एक न एक खुराफात सूझा करती है।

विद्या--मैं तुमसे रुपये तो नहीं माँगती!

ज्ञान---मैं अपने और तुम्हारे रुपयों में कोई भेद नहीं समझता। हाँ, जब रायसाहब तुम्हारे नाम कोई जायदाद लिख देंगे तो समझने लगेंगी।

विद्या-मैं तुम्हारा एक पैसा नहीं चाहती।

ज्ञान---माना, लेकिन वहाँ से भी तुम रोकड़ नहीं लाती हो। साल में सौ-पचास रुपये मिल जाते होंगे, इतने पर ही तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। छिछले ताल की तरह उबलने लगती हो।

विद्या-तो क्या चाहते हो कि वह तुम्हें अपना घर उठा कर दे दें?

ज्ञान----वह बेचारे आप तो अधा लें, मुझे क्या देंगे? मैं तो ऐसे आदमी को पशु [ ६८ ]से गया-गुजरा समझता हूँ जो आप तो लाखो उड़ाये और अपने निकटतम सम्वन्धियो की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जाये तो मेरी आँखो मे आँसू न आये।

विद्या- तुम्हारी आत्मा इतनी सकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।

ज्ञान-ईश्वर को धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला वरसो तक दही-दहीं हॉकते रहे, पर कोई सेस भी न पूछता था।

विद्यावती इस मर्भाधात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा। वह झमक कर वहाँ ने चली जाने को उठी किं इतने मै महरी नै एक तार का लिफाफा ला कर ज्ञानशकर के हाथ में रख दिया। लिखा था---

"पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आहो।"

---कमलानंद

ज्ञानशकर ने तार का कागज जमीन पर फेक दिया और लम्बी साँस खीच कर बोले, हा ' शोक। परमात्मा, यह तुमने क्या किया।

विद्या ठिठक गयी।

ज्ञानशकर ने विद्या से कहा, विद्या हम लोगो पर वज्र गिर पड़ा, हमारा

विद्या ने कातर नेत्रों से देख कर कहा, मेरे घर पर तो कुशल है।

ज्ञानशकर हाय प्रिये, किस मुंह से कहूँ कि सब कुशल है। वह घर उजड़ गया, उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानद अब इस संसार में नही है। हा, ईश्वर।

विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौडी हुई आयी। महरियाँ जमा हो गयी। घड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे भै स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशकर माना को रोते देख कर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निंदा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बडा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वरद्रोही बना देती है। हमे उनकी सह्न पई गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीडित आँखें भी यह दारुण दृश्य मन नहीं कर सकती। अकाल मृत्यु हमारे हृदय पट पर सब से कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सब से भयकर बलात्कार है।

पर हा स्वार्थ संग्राम। यह निर्दय व-प्रहार ज्ञानशकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किंतु तुरत ही हृदय में नयी आकाक्षाएँ सगे भारने लगी। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि मै हरियाली लहरे मारने लगी। राय कमलानद के अद और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और नि सन्तान थी। विद्या को ही ईश्वर ने सतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पद्धती थी। वह मायाशकर की गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरामत [ ६९ ]के सम्बन्ध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशा की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते हैं। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले मनुस्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बढ़ी। याज्ञवल्क्य ने भी विषय ने भी कुछ संतोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मति आवश्यक जान पड़ी। वह उतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे की याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, समवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले, मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे में यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया है।

ज्ञानशंकर—ईश्वर की लीला विचित्र है।

प्रभाकर—अभी उम्र ही क्या थी। बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे में तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का को मैंने नहीं देखा।

ज्ञानशंकर—इसी से तो ईश्वर के न्याय विघान पर ने विश्वास उठ जाता है।

दयाशंकर—आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़की नहीं है न?

ज्ञानशंकर ने विरक्त भाव में कहा, नहीं।

दयाशंकर—तब तो चाहे माया ही वारिस हो।

ज्ञानशंकर ने उन तिरस्कार करते हुए कहा, कैसी बात करते हो? कहाँ कौन-सी बात, कहाँ कौन-सी बात, ऐसी बातों का यह ममय नहीं है।

दयाशंकर लज्जिन हो गये। ज्ञानशंकर को अब यह विलम्ब असह्य होने लगा। पैरगाड़ी उठाई और दोनों आदमियों को बरामदे में ही छोड़ कर डाक्टर इरफानअली के बंगले की ओर चल दिये, जो नामी बैरिस्टर थे।

बैरिस्टर साहब का बंगला खूब सजा हुआ था। शाम हो गयी थी, वह हवा खाने जा रहे थे। मोटर तैयार थी, लेकिन मुवक्किलों से जान न छूटती थी, वह इस समय अपने ऑफिस में आराम कुर्सी पर लेते हुआ सिगार पी रहे थे। मुवक्किल लोग दूसरे कमरे में बैठे थे। वह बारी-बारी से डॉक्टर साहब के पास आकर अपना वृतांत कहते जाते थे। ज्ञानशंकर को बैठे-बैठे आठ बज गए। तब जाकर उनकी बारी आई। उन्होंने ऑफिस में जाकर अपना मामला सुनाना शुरू किया। क्लर्क ने सब बातें उनकी नोट कर लीं। इनकी फीस 5 रुपए हुई। डॉक्टर साहब सम्मति के लिए दूसरे दिन बुलाया। उसकी फीस 500 रुपए थी। यदि उस सम्मति पर कुछ शंकाएं हों तो उसके समाधान के लिए प्रति घंटा 200 रुपये देने पड़ेंगे। ज्ञानशंकर को मालूम नहीं था कि डॉक्टर साहब के समय का मूल्य इतना अधिक है। मन में पछताएं कि नाहक इस झमले में फंसा। क्लर्क की [ ७० ]फीस तो उसी दम दे दी और घर से रुपया लाने का बहाना करके वहाँ से निकल आये। लेकिन रास्ते में सोचने लगे, इनकी राय जरूर पक्की होती होगी, तभी तो उसका इतना मुल्य है। नहीं तो इतने आदमी उन्हें घेरे क्यों रहते। कदाचित् इसी लिए कल बुलाया है, खूब छान-परताल करके तब राय देंगे। अटकल-पच्चू बाते कहनी होती तो अभी ने कह देते। अँगरेजी नीति में यही तो गुण है कि दाम चौकस लेते हैं, पर माल खरा देते हैं। सैकड़ो नजीरें देखनी पड़ेगी, हिंदू शास्त्रो को मंथन करना पड़ेगा, तब जाके तत्व हाथ आयेगी, रुपये का कोई प्रबंध करना चाहिए। उसका मुंह देखने से काम न चलेगा। एक बात निश्चित रूप से मालूम तो हो जायेगी। यह नहीं कि मैं तो धोखे में निश्चित बैठा रहे और वहाँ दाल न गले, सारी आशाएँ नष्ट हो जायें। मगर यह व्यवसाय है उत्तम। आदमी चाहे तो सोने की दीवार खड़ी कर दे। मुझे शामत सवार हुई कि उसे छोड़ बैठा, नहीं तो आज क्या मेरी आमदनी दो हजार मासिक से कम होती? जब निरे काठ के उल्लू तक हजारों पर हाथ साफ करते है तो क्या मेरी ही न चलती? इस जमींदारी का बुरा हो। इसने मुझे कही का न रखा।

वह घर पहुँचे तो नौ बज चुके थे। विद्या अपने कमरे में अकेले उदास पड़ी थी, महरियाँ काम-धंधे में लगी हुई थी और पड़ोसिने विदा हो गयी थी। ज्ञानशंकर ने विद्या का सिर उठा कर अपनी गोद में रख लिया और गद्गद् स्वर से बोले, मुँह देखना भी न बदा था।

विद्या ने रोते हुए कहा, उनकी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखो से नहीं उतरती। ऐसा जान पड़ता है, वह मेरे सामने खड़े मुस्करा रहे हैं।

ज्ञान----मेरा तो अब सांसारिक वस्तुओं पर भरोसा ही नहीं रहा। यही जी चाहता कि सब कुछ छोड़छाड़ के कहीं चल दें।

विद्या-कल शाम की गाड़ी से चलो। कुछ रुपए लेते चलने होंगे। मैं उनके षोडशे में कुछ दान करना चाहती हूँ।

ज्ञान-- हाँ, हाँ, जरूर। अब उनकी आत्मा को संतुष्ट करने का हमारे पास यहीं तो एक साधन रह गया है।

विद्या-उन्हें घोड़े की सवारी का बहुत शौक था। मैं एक धोड़ी उनके नाम पर देना चाहती हूँ।

ज्ञान--बहुत अच्छी बात है। दो-ढाई सौ में घोड़ा मिल जायेगा।

विद्यावती ने डरते-डरते यह प्रस्ताव किया था। ज्ञानशंकर ने उसे सहर्ष स्वीकार करके उसे मुग्ध कर दिया।

ज्ञानशंकर इस अपव्यय को इस समय काटना अनुचित समझते थे। यह अवसर ही ऐसा था। अब वह विद्या का निरादर तथा अवहेलना न कर सकते थे।