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प्रेमाश्रम/११

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ८० से – ८४ तक

 

११

आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता हैं, तब वायु के प्रचंड झोके, बिजली की चमक और कड़क भी बंद हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शांति भी द्रवीभूत हो गयी थी। हृदय मे रुधिर की जगह आँसुओं का संचार हो रहा था।

आधी रात बीत गयी, पर उसके आँसू न थमे। उसका आत्मगौरव आज नष्ट हो। गया। पति-वियोग के बाद उसकी मुदृढ स्मृति ही गायत्री के जीवन-सुख की नीच थी। वही साधुकल्पना उसकी उपास्य थी। वह इस हृदय-कोप को, जहाँ यह अमूल्य रत्न संचित या, कुटिल आकांक्षाओं की दृष्टि से बचाती रहती थी। इसमें संदेह नहीं किं वह वस्त्राभूषणों से प्रेम रखती थी, उत्तम भोजन करती थी और सदैव प्रसन्न चित्त रहती थी, किन्तु इसका कारण उसकी विलासप्रियता नहीं, वरन् अपने सतीत्व का अभिमान था। उसे संयम और आचार का स्वांग भरने से घृणा थी। वह थिएटर भी देखती थी, आनदोत्सवों में भी शरीक होती थी। अभिरण, सुरुचि और मनोंरजन की सामग्रियों का त्याग करने की वह आवश्यकता न समझती थी, क्योंकि उसे अपनी चित्तस्थिति पर विश्वास था। वह एकाग्र हो कर अपने इलाके का प्रबंध करती थी।

जब उसके आँसू थमें तो वह इन दुर्घटना के कारण और उत्पत्ति पर विचार करने लगी, और शनै शनै उसे विदित होने लगा कि इस विषय में मैं सर्वथा निरपराध नहीं हैं। ज्ञानशंकर कदापि यह दुस्साहस न कर सकते, यदि उन्हे मेरी दुर्बलता पर विश्वास न होता। उन्हें यह विश्वास क्योंकर हुआ? मैं इन दिनों उनसे बहुत स्नेह करने लगी थी। यह अनुचित था। कदाचित् इसी संम्पर्क ने उनके मन में यह भ्रम अंकुरित किया। तब उसे वह बात याद आती जो उन संगत में हुआ करती थी। उनका झुकाव उन्हीं विषयों की ओर होता था, जिन्हे एकान्त और संकोच की जरूरत है। उस समय वह बाते सर्वथा दोष रहित जान पड़ती थी, पर अब उनके विचार से ही गायत्री को लज्जा आती थी। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं अज्ञान दशा में धीरे-धीरे ढाल की और चली जाती थी, और अगर यह गहरी खाई सहसा न आ पड़ती, तो मुझे अपने पतन को अनुभव ही न होता। उसे आज मालूम हुआ कि मेरा पति-प्रेम-बंधन जर्जर हो गया, नहीं तो मैं इन वार्ताओं के आकर्षण से सुरक्षित रहती। वह अधीर हो कर उठी, और अपने पति के सम्मुख जा कर खड़ी हो गयी। इस चित्र को वह सदैव अपने कमरे में लटकाये रहती थी। उसने ग्लानिमय नेत्रों से चित्र को देखा, और तब काँपते हुए हाथ से उतार कर उसे छाती से लगाये देर तक खड़ी रोती रही। इस आत्मिक आलंगन से उसे एक विचित्र संतोष प्राप्त हुआ। ऐसा मालूम हुआ मानों कोई तड़पते हुए हृदय पर मरहम रख रहा है और कितने कोमल हाथों से। वह उस चित्र को अलग न कर सकी, उसे छाती से लगाये हुए बिछावन पर लेट गयी। उसका हृदय इस समय पतिप्रेम से आलोकित हो रहा था। वह एक समाधि की अवस्था में थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि यद्यपि पतिदेव यहाँ अदृश्य है, तथापि उनकी आत्मा अवश्य यहाँ भ्रमण कर रही है। शनै शनै उसकी कल्पना सचित्र हो गयी। वह भूल गयी कि मेरे स्वामी को मरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह अकुला कर उठ बैठी। उसे ऐसा जान पड़ा कि उनके वक्ष से रक्त स्रावित हो रहा है और कह रहे हैं, 'यह तुम्हारी कुटिलता का घाव है। तुम्हारी पवित्रता और सत्यता मेरे लिए रक्षास्त्र थी। वह ढाल आज टूट गयी और बेवफाई की कटार हृदय में चुभ गयी। मुझे तुम्हारे सतीत्व पर अभिमान था। वह अभिमान आज चूर-चूर हो गया। शोक! मेरी हत्या उन्हीं हाथों से हुई जो कभी मेरे गले मे पड़े थे। आज तुमसे नाता टूटता है, भूल जाओ कि मैं कभी तुम्हारा पति था।' गायत्री स्वप्न-दशा में उसी कल्पित व्यक्ति के सम्मुख हाथ फैलाये हुए विनय कर रही थी। शंका से उसके हाथ-पाँव फूल गये और वह चीख मार कर भूमि पर गिर पड़ी।

वह कई मिनट तक बेसुध पड़ी रहीं। जब होश आया तो देखा कि विद्या, लौडियाँ मरियाँ सब जमा हैं और डाक्टर को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया जा रहा है।

उसे आँखें खोलते देख कर विद्या झपट कर उसके गले से लिपट गयी और बोली, बहन, तुम्हें क्या हो गया था और तो कभी ऐसा न हुआ था।

गायत्री—कुछ नहीं, एक बुरा स्वप्न देख रही थी। लाओ, थोड़ा-सा पानी पीऊँगी, गला सूख रहा है।

विद्या--थिएटर में कोई भयावना दृश्य देखा होगा।

गायत्री–नहीं, मैं भी तुम्हारे आने के थोड़ी ही देर पीछे चली आयी थी। जी

नहीं लगा। अभी थोड़ी ही रात गयी है क्या? बाबू जी ध्रुपद अलाप रहे है।

विद्या--बारह तो कब के बज चुके, पर उन्हें किसी के मरने-जीने की क्या चिंता? उन्हें तो अपने राग-रंग से मतलब है। महरी ने जा कर तुम्हारा हाल कहा तो एक आदमी को डाक्टर के यहाँ दौड़ा दिया और फिर गाने लगे।

गायत्री—यह तो उनकी पुरानी आदत हैं, कोई नयी बात थोड़े ही है। रम्मन बाबू का यहाँ बुरा हाल हो रहा था, और वह डिनर में गये हुए थे। जब दूसरे दिन मैंने बातों-बातों में इसकी चर्चा की तो बोले, मैं वचन दे चुका था और जाना मेरा कर्तव्य था। मैं अपने व्यक्तिगत विषयों को सार्वजनिक जीवन से बिलकुल पृथक रखना चाहता हूँ।

विद्या-उस साल जब अकाल पड़ा और प्लेग भी फैला, तब हम लोग इलाके पर गये। तुम गोरखपुर थी। उन दिनों बाबू जी की निर्दयता देख कर मेरे रोये खड़े हो जाते थे। असामियों से रुपये वसूल न होते और हमारे यहाँ नित्य नाच-रंग होता रहता था। बाबू जी को उड़ाने के लिए रुपये न मिलते तो वह चिढ़ कर असामियो पर गुस्सा उतारते। सौ-सौ मनुष्यों को एक पाँति में खड़ा करके हंटर से मारने लगते। बेचारे तड़प-तड़प कर रह जाते, पर उन्हें तनिक भी दया न आती थी। इसी मार-पीट ने इन्हें निर्दय बना दिया है। जीवन-मरण तो परमात्मा के हाथ है, लेकिन मैं इतना अवश्य कहूंगी कि भैया की अकाल मृत्यु इन्हीं दीनों की हाय का फल है।

गायत्री—तुम बाबू जी पर अन्याय करती हो। उनका कोई कसूर नहीं। आखिर रुपये कैसे वसूल होते? निर्दयता अच्छी बात नहीं, किंतु जब इसके बिना काम ही न चले तो क्या किया जाय? तुम्हारे जीजा कैसे सज्जन थे, द्वार पर से किसी भिक्षुक को निराश न लौटने देते। सत्कार्यों में हजारों रुपये खर्च कर डालते थे। कोई ऐसा दिन न जाता कि सौ-पचास साधुओं को भोजन न कराने हो। हजारों रुपये तो चंदे में दे डालते थे। लेकिन उन्हें भी असामियों पर सख्ती करनी पड़ती थी। मैंने स्वयं उन्हें असामियों की मुश्के कम के पिटवाते देखा है। जब कोई और उपाय न सूझता तो उनके घरों में आग लगवा देते थे और अब मुझे भी वहीं करना पड़ता है। उस समय मैं समझती थी कि यह व्यर्थ इतना जुल्म करते हैं। उन्हें समझाया करती थी, पर जब अपने माथे पड़ गयी तो अनुभव हुआ कि यह नीच बिना मार खाये रुपये नहीं देते। घर में रुपये रखे रहते हैं, पर जब तक दो-चार लात-घूसे न ख़ा ले, या गालियाँ न सुन ले, देने का नाम नहीं लेते। यह उनकी आदत है।

विद्या-मैं यह न मानूँगी। किसी को मार खाने की आदत नहीं हुआ करती।

गायत्री-लेकिन किसी को मारने की भी आदत नहीं होती। यह सम्बन्ध ही ऐसा है कि एक ओर तो प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर जमींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरकुश बना देता है।

विद्या ने इसका कुछ जवाब न दिया। दोनों बहने एक ही पलंग पर लेटी। गायत्री के मन में कई बार इच्छा हुई कि आज की घटना को विद्या से बयान कर ददूँ। उसके हृदय पर एक बोझा-सा रखा हुआ था। इसे वह हल्का करना चाहती थी। ज्ञानशंकर को विद्या की दृष्टि में गिराना भी अभीष्ट था। यद्यपि उसका स्वयं अपमान होता था, लेकिन ज्ञानशंकर को लज्जित और निदित करने के लिए वह इतना मूल्य देने पर तैयार थी, किंतु बात मुंह तक आ कर लौट जाती थी। और गायत्री को कोई बात न सूझती थी। अकस्मात् उसे एक विचार सूझ पड़ा। उसने विद्या को हिला कर कहा, क्या सोने लगी? मेरा जी चाहता है कि कालपरसों तक यहाँ से चली जाऊँ।।

विद्या ने कहा, इतना जल्द! भला जब तक मैं हूं, तब तक तो रहो।

गायत्री नहीं, अब यह जी नहीं लगता। वहाँ काम-काज भी तो देखना है।

विद्या–लेकिन अभी तक तो तुमने बाबू जी से इसकी चर्चा भी नहीं की।

गायत्री---उनसे क्या कहना है? जाऊँ चाहे रहूँ, दोनों एक ही है।

विद्या- तो फिर मैं भी न रहूँगी, तुम्हारे साथ ही चली जाऊँगी।

गायत्री—तुम कहाँ जाओगी? अब यहीं तुम्हारा घर है। तुम्ही यहाँ की रानी हो। ज्ञान बाबू से कहो, इलाके का प्रबंध करे। दोनों प्राणी यही सुखपूर्वक रहो।

विद्या-समझा तो मैंने भी यही था, लेकिन विधाता की इच्छा कुछ और ही जान पड़ती हैं। कई दिन से बराबर देख रही हैं कि पंडित परमानन्द नित्य आते हैं। चिंताराम भी आते जाते है। ये लोग कोई न कोई षड्यंत्र रच रहे हैं। तुम्हारे चले जाने से इन्हें और भी अवसर मिल जायगा।

गायत्री--तो क्या बाबू जी को फिर विवाह करने की सूझी है क्या?

विद्या-मुझे तो ऐसा ही मालूम होता है।

गायत्री-अगर यह विचार उनके मन में आया है तो वह किसी के रोके न रुकेंगे। मेरा लिहाज वे करते है, पर इस विषय में वह शायद ही मेरी राय लें। उन्हें मालूम है कि मैं उन्हें क्या राय दूँगी।

विद्या—तुम रहती तो उन्हें कुछ न कुछ संकोच अवश्य होता।

गायत्री-मुझे इसकी आशा नहीं। वहाँ रहूँगी तो कम से कम वहीं देख-रेख तो करती रहूँगी, तीन महीने हो गये, लोगों ने न जाने क्या क्या उपद्रव खड़े किये होंगे। एक दर्जन नातेदार द्वार पर डटे पड़े रहते हैं। एक महाशय नाते में मेरे मामू होते है, वे सुबह से शाम तक मछलियों का शिकार किया करते है। दुसरे महाशय मेरी फूफी के सुपुत्र है, वे मेरे ससुर के समय से ही वहाँ रहते है। उनका काम मुहल्ले भर की स्त्रियों को घूरना और उनसे दिल्लगी करना है। एक तीसरे महाशय मेरी ननद के छोटे देवर है, रिश्वत के बाजार के दलाल हैं। इस काम से जो समय बचता है वह भंग पीने-पिलाने में लगाते है। इन लोगों में बड़ा भारी गुण यह है कि संतोषी है। आनन्द से भोजन-वस्त्र मिलता जाय इसके सिवा उन्हें कोई चिंता नहीं। हाँ, जमींदारी का घमंड सबको है, सभी असामियों पर रौब जमाना चाहते हैं, उनका गला दबाने के लिए सब तत्पर रहते है। बेचारे किसानों को, जो अपने परिश्रम की रोटियाँ खाते है, इन निठल्लों का अत्याचार केवल इसलिए सहना पड़ता है कि वह मेरे दूर के नातेदार हैं। मुफ्तखोरी ने उन्हें इतना आत्मशून्य बना दिया है कि चाहे जितनी रुखाई से पेश आओ टलने का नाम न लेंगे। अधिक नहीं तो दस परिवार ऐसे होंगे जो मेरी मृत्यु का स्वप्न देखने में जीवन के दिन काट रहे हैं। उनका बस चले तो मुझे विष दे दे। किसी के यहाँ से कोई सौगात आये, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाती। उनका काम बस यही हैं कि बैठे-बैठे उत्पात किया करें, मेरे काम में विघ्न डाला करें। कोई असामियों को फोड़ता है, कोई मेरे नौकर को तोड़ता है, कोई मुझे बदनाम करने पर तुला हुआ है। तुम्हें सुन कर हँसी आयेगी, कई महाशय विरासत की आशा में डेबढ़े-दूने सूद पर ऋण लेकर पेट पालते हैं। कुछ नहीं बन पड़ता तो उपवास करते है, किंतु बिरामत का अभिमान जीविका की कोई आयोजना नहीं करने देता। इन लोगों ने मेरी अनुपस्थिति में न जाने क्या-क्या गुल खिलाये होंगे। अभी मुझे जाने दो। बाबू जी भी जल्द ही पहाड़ पर चले जायेंगे। यदि ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़े तो मुझे पत्र लिखना, चली आऊंगी।

दो दिन गायत्री ने किस प्रकार काटे। ज्ञानशंकर से फिर बात-चीत की नौबत नहीं आयी। तीसरे दिन वह विदा हुई। राय साहब स्टेशन तक पहुँचाने आये। ज्ञानशंकर भी साथ थे। गायत्री गाड़ी में बैठी। राय साहब खिड़की पर झुके हुए आम और खरबूजे, लौचियाँ और अगूर ले-लेकर गाड़ी में भरते जाते थे। गायत्री बार-बार कहती थी कि इतने फल क्या होंगे, कौन-सी बड़ी यात्रा है, किंतु राय साहब एक न सुनते थे। यह भी रियासत की एक न थी। ज्ञानशंकर एक बेंच पर उदास बैठे हुए थे। गायत्री को उन पर दया आ गयी। वियोग के समय हम सहृदय हो जाते हैं। चलते-चलते हम किसी पर अपना ऋण चाहे छोड़ जाये, किंतु ऋण लेकर जाना नहीं चाहते। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो ज्ञानशंकर चौंक कर बेंच पर से उठे और गायत्री के सम्मुख आ कर उसे लज्जित और प्रार्थी नेत्रों से देखा। उनमें आँसू भरे हुए थे। पश्चात्ताप की सजीव मूर्ति थी। गायत्री भी खिड़की पर आयी, कुछ कहना चाहती थी, पर गाड़ी चलने लगी।

ज्ञानशंकर की विनय-मूर्ति रास्ते भर उसकी आँखो के सामने फिरती रही।