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प्रेमाश्रम/१२

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ८४ से – ८९ तक

 

१२

गायत्री के जाने के बाद जानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किंतु एक ही ठोकर में चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये; वह प्राण-पोपक शीतल वायु, वह विस्तृन नभमंडल और सुखद कामनाएँ लुप्त हो गयी, और वह फिर उसी अंधकार में निराश और विडम्बित पड़े हुए थे। उन्हें लक्षणों से विदित होता जाता था कि राय साहब विवाह करने पर तुले हुए हैं और उनका दुर्बल क्रोध दिनों-दिन अदम्य होता जाता था। वह राय साहब की इद्रिय-लिप्सा पर, क्षुद्रता पर झल्ला-झल्ला कर रह जाते थे। कभी-कभी अपने को समझाते कि मुझे बुरा मानने की कोई अधिकार नहीं, राय साहब अपनी जायदाद के मालिक हैं, उन्हें विवाह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, वह अभी हृष्ट-पुष्ट हैं, उम्र भी ज्यादा नहीं। उन्हें ऐसी क्या पड़ी है कि मेरे लिए इतना त्याग करे। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है कि अपने स्वार्थ के लिए उनका बुरा चेतूँ, उनके कुल के अंत होने की अमंगल-कामना करें। यह मेरी घोर नीचना है। लेकिन विचारों को इस उद्देश्य मैं हटाने का प्रयत्न एक प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेता था, जो अपने बहाव में धैर्य और संतोष के बांध को तोड़ डालता था। तब उनका हृदय उस शुभ मुहूर्त के लिए विकल हो जाता था, जब यह अतुल संपत्ति अपने हाथों में आ जायगी, जब वह यहाँ मेहमान के अस्थायी रूप से नहीं, स्वामी के स्थायी रूप से निवास करेंगे। वह नित इसी कल्पित सुख के भोगने में मग्न रहते थे। प्रायः रात-रात भर जागते रह जाते और आनन्द के स्वप्न देखा करते। उन्नति और सुधार के कितने ही प्रस्ताव उनके मस्तिष्क में चक्कर लगाया करते। सैर करने में उनको अब कुछ आनन्द न मिलता, अधिकतर अपने कमरे में ही पड़े रहते। यहां तक कि आशा और भय की अवस्था उनके लिए असह्य हो गयी। इस दुविधा में पड़े जेठ का महीना भी बीत गया और आषाढ़ आ पहुँचा।

राय साहब को अबकी पुत्र शौक के कारन पहाड़ पर जाने में विलम्ब हो गया था। पहला छींटा पड़ते ही उन्होंने सफर की तैयारी शुरू कर दी। ज्ञानशंगर में अब जब्त न हो सका। सोचा, कौन जाने यह नैनीताल में ही किसी नये विचारों की लैडी से विवाह कर लें। यहाँ कानोंकान किसी को खबर भी न हो, अतएव उन्होंने इन शंका को अंत करने का निश्चय कर लिया।

संघ्या हो गयी थी। वह मन को दृढ़ किये हुए राय साहब के कमरे में गये, किंतु देखा तो वहाँ एक और महाशय विद्यमान थे। यह किती कम्पनी का प्रतिनिधि था और राय साहब से उसके हिस्से लेने का अनुरोध कर रहा था। किन्तु राय साहब की बातों से ज्ञात होता था कि वह हिस्से लेने को तैयार नहीं हैं। अंत में एजेंट ने पूछा आखिर आप को इतनी शंका क्यों है? क्या आप का विचार है कि कम्पनी की जड़ मजबूत नहीं है?

राय साहब-जिस काम में सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरज शरीक हों के विषय में यह संदेह नहीं हो सकता।

एजेंट-तो क्या आप समझते हैं कि कम्पनी का संचालन उत्तम रीति न होगा?

राय साहब-कदापि नहीं।

एजेंट-तो फिर आपको उसका साझीदार बनने में क्या आपत्ति है? मैं आपकी सेवा में कम से कम पाँच सौ हिस्सों की आशा ले कर आया था। जब आप ऐसे विचारशील सज्जन व्यापारिक उद्योग से पृथक रहेंगे तो इस अभागे देश की उन्नति सदैव एक मनोहर स्वप्न ही रहेगी।

राय साहब-मैं ऐसी व्यापारिक समस्याओं को देशोद्धार की कुंजी नहीं समझता।

एजेंट--(आश्चर्य से) क्यों।

राय साहब–इसलिए कि सेठ जगतराम और मिस्टर मनचूरजी का विभव देश का विभव नहीं है। आपकी यह कम्पनी धनवानों को और भी धनवान बनायेगी, पर जनता को इससे बहुत लाभ पहुँचने की सम्भावना नहीं। निस्संदेह आप कई हजार ‘कुलियों को काम में लगा देंगे, पर यह मजूरे अधिकांश किसान ही होंगे और मैं किसानों को कुली बनाने का कट्टर विरोधी हूँ। मैं नहीं चाहता कि वे लोभ के वश अपने बालबच्चों को छोड़ कर कम्पनी की छावनियों में जा कर रहें और अपना आचरण भ्रष्ट करें। अपने गाँव में उनकी एक विशेष स्थिति होती हैं। उनमें आत्म-प्रतिष्ठा का भाव जाग्रत रहता है। विरादरी का भय उन्हें कुमार्ग से बचाता है। कम्पनी की शरण में जा कर वह अपने घर के स्वामी नहीं, दूसरे के गुलाम हो जाते हैं, और बिरादरी के बंधनों से मुक्त हो कर नाना प्रकार की बुराइयाँ करने लगते हैं। कम से कम मैं अपने किसानों को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता।

एजेंट क्षमा कीजिएगा, आपने एक ही पक्ष का चित्र खींचा है। कृपा करके दूसरे पक्ष का भी अवलोकन कीजिए। हम कुलियों को जैसे वस्त्र, जैसा भोजन, जैसे घर देते हैं, वैसे गाँव में रह कर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। हम उनको दवादारू का, उनकी संतानों की शिक्षा का, उन्हें बुढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबंध करते हैं। यहाँ तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की भी व्यवस्था कर देते हैं। वह चाहें तो टेनिस और फुटबाल खेल सकते हैं, चाहें तो पार्को में सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन गाने बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पार्को में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परवाह न करेगा।

राय साहब-नहीं, मैं इसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। किसान कुली बन कर कभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार का स्वतंत्र सुख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसंद नहीं कर सकता। संम्भव है कि अपनी दीनतों उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे, पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता से मुक्त होने का अवसर पाते ही तुरंत अपने घर की राह लेगा और फिर उसी टूटे-फूटे झोपड़े में अपने बाल-बच्चों के साथ रह कर संतोष के साथ कालक्षेप करेगा। आपको इसमें संदेह हो तो आप कृषक-कुलियों से एकांत में पूछ कर अपना समाधान कर सकते हैं-मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कहता हूँ कि आप लोग इस विषय में यूरोपवालों का अनुकरण करके हमारे जातीय जीवन के सद्गुणों का सर्वनाश कर रहे हैं। यूरोप में इंडस्ट्रियलिज्म् (औद्योगिकता) की जो उन्नति हुई उसके विशेष कारण थे। वहाँ के किसानों की दशा उस समय गुलाम से भी गयी-गुजरी थी, वह जमींदार के बंदी होते थे। इस कठिन कारावास के देखते हुए घनपतियों की कैद गनीमत थी। हमारे किसानों की आर्थिक दशा चाहे कितनी ही बुरी क्यों न हो, पर वह किसी के गुलाम नहीं हैं। अगर कोई उन पर अत्याचार करे तो वह अदालतों में उससे मुक्त हो सकते हैं। नीति की दृष्टि में किसान और जमींदार दोनों बराबर हैं। एजेंट-मैं श्रीमान से विवाद करने की इच्छा तो नहीं रखता, पर मैं स्वयं छोटामोटा किसान हैं और मुझे किसानों की दशा का यथार्थ ज्ञान है। आप योरोप के किसानों को गुलाम कहते हैं, लेकिन यहाँ के किसानों की दशा उससे अच्छी नही है। नैतिक बंधनों के होते हुए भी जमींदार कृषकों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और कृषकों की जीविका का और कोई द्वार हो तो वह इन आपत्तियों को भी कमी न झेल सकें।

राय साहब–जब नैतिक व्यवस्थाएँ विद्यमान है तो विदित है कि उनका उपयोग करने के लिए किसानों को केवल उचित शिक्षा की जरूरत है, और शिक्षा का प्रचार दिनों-दिन बढ़ रहा है। मैं मानता हूँ कि जमींदार के हाथों किसानों की घड़ी दुर्दशा होती है। मैं स्वयं इस विषय में सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ, बेगार लेता हूँ, डाँड़-बीज भी लेता हूँ, बेदखली या इजाफा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता, असामियों पर अपना रोब जमाने के लिए अधिकारियों की खुशामद भी करता हैं, साम, दाम, दंड, भेद सभी से काम लेता हैं, पर इसका कारण क्या है? वही पुरानी प्रथा, किसानों की मूर्खता और नैतिक अज्ञान। शिक्षा का यथेष्ट प्रचार होने ही जमींदारों के हाथ से यह सब मौके निकल जायेंगे। मनुष्य स्वार्थी जीव है और यह असम्भव है कि जब तक उसे धीगा-धीगी के मौके मिलते रहे, वह उनसे लाभ न उठाये। आपका यह कथन सत्य है कि किसानों को यह विडम्बनाएँ इसलिए सहनी पड़ती है कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बंद हैं। निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाये रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी ही रक्षा और सहायता क्यों न करे। किंतु यह साधन ऐसे होने चाहिए जो उनके आचारव्यवहार को भ्रष्ट न करे। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनो के जाल में न फंसायें, उनके आत्माभिमान का सर्वनाश न करें! और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाय और वह अपने गाँव मे कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहे।

एजेंट-आपका अभिप्राय काटेज इंडस्ट्री (गृहउद्योग या कुटीर शिल्प) से हैं। समाचार-पत्रों मे कहीं-कहीं इनकी चर्चा भी हो रही है, किंतु इसका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशी वस्तुओं का सफलता के साथ अवरोध कर सकते है।

राय साहब-इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोपवाले दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाते हैं, जहाज का किराया देते हैं, उन्हे मजदूरों को कड़ी मजूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारी को नफा खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशी व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया। पूँजीवाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे जानते हैं कि घरेलू शिल्प हमारे प्रभुत्व का अंत कर देगा, इसीलिए वह इसका विरोध करते रहते हैं।

ज्ञानशंकर ने इस विवाद में भाग न लिया। राय साहब की युक्तियाँ अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के प्रतिकूल थी, पर इस समय उन्हें उनका खंडन करने का अवकाश न था। जब एजेंट ने अपनी दाल गलते न देखी तो विदा हो गये। राय साहब ज्ञानशंकर को उत्सुक देख कर समझ गये कि यह कुछ कहना चाहते हैं, पर संकोचवश चुप है। बोले, आप कुछ कहना चाहते हैं तो कहिए, मुझे फुर्सत है।

ज्ञानशंकर की जबान न खुल सकी। उन्हें अब ज्ञान हो रहा था कि मैं जो कथन करने आया है, वह सर्वथा असंगत हैं, सज्जनता के बिलकुल विरुद्ध। राय साहब को कितना दुख होगा और वह मुझे मन में कितना लोभी और क्षुद्र समझेगें। बोले, कुछ नहीं, मैं केवल यह पूछने आया था कि आप नैनीताल जाने का कब तक विचार करते हैं।

राय साहब-आप मुझमें उब रहे हैं। आपकी आंखें कह रही हैं कि आपके मन में कोई और बात हैं, साफ कहिए। मैं आपस में बिलकुल सचाई चाहता हूँ।

ज्ञानशंकर बड़े असमंजस में पड़े। अंत में सकुचाते हुए बोले, यही तो मेरी भी इच्छा है, पर यह वात ऐसी भद्दी है कि आपसे कहने हुए लज्जा आती है।

राय साहब- मैं समझ गया। आपके कहने की जरूरत नहीं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जिन गप्पों को सुन कर आपको यह शंका हुई है वह बिलकुल निस्सार हैं। मैं स्पष्टवादी अवश्य हूँ, पर अपने मुंह-देखे हितैषियों की अवज्ञा करना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। पर जैसा आप से कह चुका हूँ, वह किम्बदन्तियाँ सर्वथा असार है। यह तो आप जानते हैं कि मैं पिठे-पानी का कायल नहीं और न ही समझता हूँ कि संतान के बिना मेरा संसार सूना हो जायगा। रहा इंद्रिय-सुखभोग, उमके लिए मेरे पास इतने साधन है कि मैं पैरों में लोहे की बेड़ियाँ डाले बिना ही उसकी आनद उठा सकता हूँ। और फिर मैं कभी कामवासना का गुलाम नहीं रहा, नहीं तो इस अवस्था में आप मुझे इतना हृष्ट-पुष्ट न देखते। मुझे लोग कितना ही विलासी समझे पर वास्तव में मैंने युवावस्था से ही संयम का पालन किया है। मैं समझता हूँ कि इन बातों में आपकी शंका निवृत्त हो गयी होगी। लेकिन बुरा न मानिएगा, उड़ती खबरों को सुन कर इतना व्यस्त हो जाना मेरी दृष्टि में आपका सम्मान नहीं बढ़ाता। मान लीजिए, मैंने विवाह करने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसमें संतान भी हो और हो भी तो पुत्र ही, और पुत्र भी हो तो जीवित रहे। फिर मायाशंकर अभी अबोध बालक है। विधाता ने उसके भाग्य में क्या लिख दिया हैं, इसे हम या आप नहीं जानते। यह भी मान लीजिए कि वह वयस्क होकर मेरा उत्तराधिकारी भी हो जाये तो यह आवश्यक नहीं कि वह इतना कर्त्तव्यपरायण और सच्चरित्र हो जितना आप चाहते हैं। यदि वह समझदार होता और उसके मन में यह् शंकाएं पैदा होती तो मैं क्षम्य समझता, लेकिन आप जैसे बुद्धिमान मनुष्य का एक निर्मूल कल्पित संम्भावना के पीछे अपना दाना-पानी हराम कर लेना व खेद की बात है।

इस कथन के पहले भाग से ज्ञानशंकर को संतोष न हुआ था, अंतिम भाग को सुन कर निराशा हुई। समझ गये कि यह चर्चा इन्हें अच्छी नहीं लगती और यद्यपि युक्तियों से यह मुझे शांत करना चाहते हैं, पर वास्तव में इन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया है। इतना ही नहीं, इन्हें यहाँ मेरी रहना अखर रहा है। मुझे यह अपना आश्रित न समझते तो मुझे कदापि इस तरह आड़े हाथों न लेते। उनका गौरवशील हृदय प्रत्युत्तर देने के लिए विकल हो उठा, पर उन्होंने जब्त किया। इस कड़वी दवा को पाने कर लेना ही उचित समझा। मन में कहा, आप मेरे साथ दोरगी चाल चल रहे है। मैं साबित कर दूंगा कि कम से कम इस व्यवहार में मैं आपसे हेठा नहीं हूँ।

उन्होनें कुछ जवाब न दिया। राय साहब को भी इन बातों के कहने का खेद हुआ। ज्ञानशंकर का मन रखने के लिए इधर-उधर की बात करने लगे। नैनीताल का भी जिक्र आ गया। उन्होंने अपने साथ चलने को कहा। ज्ञानशंकर राजी हो गये। इसमे दो लोभ थे। एक तो वह राय साहब को नजरबंद कर सकेगे, दूसरे वह उच्चाधिकारियों पर अपनी योग्यता का सिक्का बिठा सकेंगे। संम्भव है, राय साहब की सिफारिश उन्हें किसी ऊँचे पद पर पहुंचा है। यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।