प्रेमाश्रम/१३

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ८९ ]

१३

यद्यपि गाँववालो ने गौस खाँ पर जरा भी आंच आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर, मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लाँडै ने डिप्टी साहब पर न जाने क्या जादू कर दिया कि उनकी काया ही पलट गयी। ईंधन, पुल, हाँडी, बर्तन, दूध-दही, माँस-मछली, साग-भाजी सभी चीजें बैगार में लेने को मना करते हैं। तब तो हमारी गुजर हो चुका। ऐसा भत्ता ही कौन बहुत मिलता है। यह लौंडा एक ही पाजी निकला। एक तो हमे फटकारें सुनायी, उस पर यह और रहा जमा गया। चल कर डिप्टी साहब से कह देना चाहिए। आज यह दुर्दशा हुई है, दूसरे गाँव में इससे भी बुरा हाल होगा। हम लोग पानी को तरस जायेंगे। अतएव ज्योंही ज्वालासिंह लौट कर आये सब के सब उनके सामने जा कर खड़े हो गये। ईजाद हुसेन को फिर उनका मुखपात्र बनना पड़ा।

ज्वालासिंह ने रुष्ट भाव से देख कर पूछा, कहिए आप लोग कैसे चले? कुछ कहना चाहते हैं? मीर साहब आपने इन लोगों को मेरा हुक्म सुना दिया है न?

ईजाद हुसेन-जी हाँ, यही हुक्म सुन कर तो यह लोग घबराये हुए आपकी खिदमत में हाजिर हुए है। कल इस गाँव में एक सख्त वारदात हो गयी। गाँव के लोग चपरासियों से लड़ने पर आमादा हो गये। ये लोग जान बचा कर चले न आये होते। तो फौजदारी हो जाती। इन लोगों ने इसकी इत्तला करके हुजूर के आराम में खलल [ ९० ]डालना मुनासिब नहीं समझा, लेकिन आज की मुमानियत सुन कर इनके होश उड़ गये हैं। पहले ही बेगार आसानी से न मिलती थी, अब जो लोग इस हुक्म की खबर पायेंगे तो और भी शेर हो जायेंगे। कल जो हंगामा हुआ उसका बानी-मबानी वही नौजवान था जो सुबह हुजूर की खिदमत में हाजिर हुआ था। उसकी कुछ तबीह होनी निहायत जरूरी है।

ज्वालासिंह-उसकी बात से तो मालूम होता था कि चपरासियों ने ही उसके साथ सख्ती की थी।

एक चपरासी-वह तो कहेगा ही, लेकिन खुदा गवाह है, हम लोग भाग न आये होते तो जान की खैर न थी। ऐसी जिल्लत आज तक कभी न हुई थी। हम लोग चार-चार पैसे के मुलाजिम हैं, पर हाकिमों के इकबाल से बड़ो-बड़ो की कोई हकीकत नहीं समझते।

गौस खाँ—हुजूर, वह लौंडा इन्तहा दर्जे का शरीर है। उसके मारे हम लोगों का गांव में रहना दुश्वार हो गया है। रोज एक न एक तूफान खड़ा किये रहता है।

दूसरा चपरासी- हुजूर ही लोगों की गुलामी में उम्र कटी, लेकिन कभी ऐसी दर्गति न हुई थी।

ईजाद हुसेन--हुजूर की रिआया-परवरी में कोई शक नहीं। हुक्काम को रहमदिल होना ही चाहिए, लेकिन हक तो यह है कि बेगार बंद हो जाय तो इन टके के आदमियों का किसी तरह गुजर ही न हो।

ज्वालासिंह-नहीं, मैं इन्हें तकलीफ नहीं देना चाहता। मेरी मंशा सिर्फ यह है कि रिआया पर वेजा सख्ती न हो। मैंने इन लोगों को जो हुक्म दिया है, उसमे इनकी जरूरतों को काफी लिहाज रखा है। मैं यह नही समझता कि सदर में यह लोग जिन चीजों के बगैर गुजर कर सकते हैं उनकी देहात में आ कर क्यों जरूरत पड़ती है।

चपरासी- हुजूर, हम लोगों को जैसे चाहे रखें, आपके गुलाम हैं पर इसमे हुजूर की बैरोबी होती है।

गौस खाँ-जी हाँ, यह देहाती लोग उसे हाकिम ही नहीं समझते जो इनके साथ नरमी में पेश आये। हुजूर को हिन्दुस्तानी समझ कर हीं यह लोग ऐसी दिलेरी करते हैं। अँगरेज हुक्काम आते है तो कोई चूँ भी नहीं करता। अभी दो हफ्ते होते हैं, पादरी साहय तशरीफ लाये थे और हफ्ते भर रहे, लेकिन सारा गाँव हाथ बाँचे खड़ा रहता था।

ईजाद हुसेन—आप बिल्कुल दुरुस्त फरमाते हैं। हिन्दुस्तानी हुक्काम को यह लोग हाकिम ही नहीं समझते, जब तक वह इनके साथ सख्ती न करें।

ज्वालासिंह ने अपनी मर्यादा बढ़ाने के लिए ही अँगरेजी रहन-सहन ग्रहण किया था। वह अपने को किसी अँगरेज से कम न समझते थे। अँगरेजों से मिलने जाते तो टोपी हाथ में ले लेते। जूते उतारने के अपमान से बच जाते। रेलगाड़ी में अँगरेजो के ही गाय बैठते थे। लोग अपनी धोलचाल में उन्हें साहब ही कहा करते थे। हिन्दुस्तानी समझना उन्हें गाली देना था। गौस खाँ और ईजाद हुसेन की बातें निशाने पर बैठ [ ९१ ]गयी। अकड़ कर बोले, अच्छा यह बात है तो मैं भी दिखा देता हूँ कि मैं किसी अँगरेज से कम नही हैं। यह लोग भी समझेंगे कि किसी हिन्दुस्तानी हाकिम से काम पड़ा था। अब तक तो मैं यही समझता था कि सारी खता हम लोगों की है। अब मालूम हुआ कि यह देहातियों की शरारत है। अलमद साहब, आप हल्के के सब-इन्स्पेक्टर को रूबकार लिखिए कि वह फौरन इस मामले की तहकीकात करके अपनी रिपोर्ट पेश करें।

चपरासी-ज्यादा नहीं तो हुजूर इन लोगों से मुचलका तो जरूर ही ले लिया जाय।

गौस खाँ—इस लौंडे की गोशमाली जरूरी है।

ज्वालासिंह-जब तक रिपोर्ट न आ जाय मैं कुछ नहीं करना चाहता।

परिणाम यह हुआ कि सन्ध्या समय बाबू दयाशंकर जो फिर बहाल हो कर इस हलके में नियुक्त हुए थे लखनपुर में पहुँचे। कई कॉन्स्टेबल भी साथ थे। इन लोगों ने चौपाल में आसन जमाये। गाँव के सब आदमी जमा किये गये। मगर बलराज का पता न था। वह और रगी दोनों नील गायों को भगाने गये थे। दारोगा जी ने बिगड़ कर मनोहर से कहा, तेरा बेटा कहाँ है? सारे फिसाद की जड़ तो वहीं है, तूने कही भगा तो नहीं दिया? उसे जल्द हाजिर कर, नहीं तो वारंट जारी कर दूंगा।

मनोहर ने अभी उत्तर नही दिया था कि किसी ने कहा, वह “बलराज आ गया। सबकी आँखें उसकी ओर उठी। दो कान्स्टेबलों ने लपक कर उसे पकड़ लिया और दूसरे दो कॉन्स्टेबलो ने उसकी मुश्के कसनी चाही। बलराज ने दीन-भाव से मनोहर की ओर देखा। उसकी आँखो मे भयंकर संकल्प तिलमिला रहा था।

वह कह रही थी कि यह अपमान मुझसे नहीं सहा जा सकता। मैं अब जान पर खेलता हूँ। आप क्या कहते हैं? मनोहर ने बेटे की यह दशा देखी तो रक्त खौल उठा। बावला हो गया। कुछ न सूझा कि मैं क्या कर रहा हूँ। बाज की तरह टूट कर बलराज के पास पहुँचा और दोनों कान्स्टेबलों को धक्का दे कर बोला, छोड़ दो, नहीं तो अच्छा न होगा।

इतना कहते-कहते उसकी जबान बंद हो गयी और आँखो से आँसू निकल पड़े। सुक्खू चौधरी मन में फूले न समाते थे। उन्हें वह दिन निकट दिखायी दे रहा था, जब मनोहर के दसो बीघे खेत पर उनके हल चलेंगे। दुखरन भगत काँप रहे थे कि मालूम नहीं क्या आफत आ गयी। डपटसंह सोच रहे थे कि भगवान करे मार-पीट हो जाय तो इन लोगों की खूब कुन्दी की जाय और बिसेसर साह थर-थर काँप रहे थे, केवल कादिर खाँ को मनोहर से सच्ची सहानुभूति थी। मनोहर की उद्दडता से उसके हृदय पर एक चोट-सी लगी।-सी, मार-पीट हो गयी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी। तुरन्त जा कर दयाशंकर के कानों में कहा, हुजूर हमारे मालिक हैं। हम लोग आप ही की रिआया है। सिपाहियों को मने कर दे, नहीं तो खून हो जायगा। आप जो हुक्म देंगे उसके लिए मैं हाजिर हूँ। दयाशंकर उन आदमियों में न थे, जो खो कर भी कुछ नहीं सीखते है उन्हें अपने अभियोग ने एक बड़ी उपकारी शिक्षा दी थी। पहले वह [ ९४ ]पर क्या गुजरती है। जाओ, कहो-सुनो, धिक्कारो, आँखे चार होने पर कुछ न कुछ मुरौवत आ ही जाती है।

बिलासी–हाँ, अपनी वाली कर लो। आगे जो भाग में बदा है वह तो होगा ही।

नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठंडे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गांव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिए गर्म रस की प्रतीक्षा कर रही थी। इतने में मनोहर आ कर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दारोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले, आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आनेवाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दारोगा जी तो बहुत मुँह फैला रहे है। कहते है, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते है। हाकिमों के बीच मे बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे है, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे है।

मनोहर—तब तो बल्लू के फँसने में कोई कसर ही नहीं रही।

सुक्खू-हाँ, बयान बदल जायँगे तो उसका बचना मुश्किल है। इसी मारे मैंने अपना बयान न दिया था। खाँ साहब बहुत दम-भरोसा देते रहे, पर मैंने कहा, मैं ने इधर हूँ, न उधर हूँ। न आपसे बिगाड़ करूँगा, न गाँव से बुरा बनूंगा। इस पर बुरा मान गये। सारा गाँव समझता है कि खां साहब से मिला हुआ हैं, पर कोई बता दे कि उनसे मिलकर गाँव की क्या बुराई की? हाँ, उनके पास उठता-बैठता हैं। इतने से ही जब मेरा बहुत-सा काम निकलता है तब व्यवहार क्यों तोड़ूँ? मेल से जो काम निकलता है वह बिगाड़े करने से नहीं निकलता। हमारा सिर जमींदार के पैरों तले रहता है। ऐसे देवता को राजी रखने ही में अपनी भलाई है।

मनोहर—अब मेरे लिए कौन-सी राह निकालते हो?

सुक्खू मैं क्या कहूँ, गाँव का हाल तो जानते ही हो। तुम्हारी खातिर मुचलका देने पर कौन राजी होगा? कोई न मानेगा। बस, या तो भगवान का भरोसा है या अपनी गाँठ का।

मनोहर ने सुक्खू से ज्यादा बातचीत नहीं की। समझ गया कि यह मुझे मुद्दबाना चाहते है। कुछ दारोगा को देंगे, कुछ गौस खाँ के साथ मिल कर आप खो जायेंगे। इन दिनों उसका हाथ बिलकुल खाली था। नयी गोईं लेनी पड़ी, सब रुपये हाथ से निकल गये। खाँ साहब ने सिकमी खेत निकाल लिये थे। इसलिए रव्वी की भी आशा कम थी। केवल ऊख का भरोसा था, लेकिन बिसेसर साह के रुपये चुकाने थे और लगान भी बेबाक करना था। गुड़ से इससे अधिक और कुछ न हो सकता था। दूसरा ऐसा कोई महाजन न था जिसमें रुपये उधार मिल सकते। वह यहाँ से उठ कर [ ९५ ]डपटसिंह के घर की और चला, पर अभी तक कुछ निश्चय न कर सका था कि उनसे क्या कहूँगा। वह भटके हुए पथिक की भाँति एक पगडंडी पर चला जा रहा था, बिलकुल बेखबर कि यह रास्ता मुझे कहाँ लिये जाता है, केवल इसलिए कि एक जगह खड़े रहने से चलते रहना अधिक सन्तोषप्रद था। क्या हानि है, यदि लोग मुचलका देने पर राजी हो जायें। यह विधान इतना दूरस्थ था कि वहाँ तक उसका विचार भी न पहुँच सकता था।

डपटसिंह के दालान में एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी। भूमि पर पुआल बिछी हुई थी और कई आदमी और लड़के एक मोटे टाट का टुकड़ा ओढ़े सिमटे पड़े थे। एक कोने में एक कुतिया बैठी हुई पिल्लो को दूध पिला रही थी। डपटसिंह अभी सोये न थे। सोच रहे थे कि सुक्खू के कोल्हाड़े से गर्म रस आ जाय तो पी कर सोये। उनके छोटे भाई झपटसिंह कुप्पी के सामने रामायण लिये आँखे गड़ा कर पढ़ने का उद्योग कर रहे थे। मनोहर को देख कर बोले, आओ महतो, तुम तो बड़े झमेले में पड़े गये।

मनोहर–अब तो तुम्हीं लोग बचाओ तो बच सकते है।

डपट तुम्हें बचाने के लिए हमने कौनसी बात उठा रखी? ऐसा बयान दिया कि बलराज पर कोई दाग नहीं आ सकता था, पर भाई मुचलका तो नहीं दे सकते है। आज मुचलका दे दे, कल को गौस खाँ झूठो कोई सवाल दे दे तो सजा हो जाय।

मनोहर-नहीं भैया, मुचलका देने को मैं आप ही न कहूँगा। इपटसिंह मनोहर के सदिच्छुक थे, पर इस समय उसे प्रकट न कर सकते थे। बोले, परमात्मा बैरी को भी कपूत सन्तान न दे। बलराज ने कल झूठ-मूठ बतबढ़ाव न किया होता तो तुम्हें क्यों इस तरह लोगों की चिरौरी करनी पड़ती।

हठात् कादिर खाँ की अवाज यह कहते हुए सुनाई दी, बड़ा न्याय करते हो ठाकुर। बलराज ने झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था तो उसी घड़ी डांट क्यों न दिया। तब तो तुम भी बैठे मुस्कुराते रहे और आँखो से इस्तीलुक देते रहे। आज जब बात बिगड़ गर्मी है तो कहते हो झूठ-मूठ बतबढ़ाव किया था। पहले तुम्हीं ने अपनी लड़की का रोना रोया था, मैंने अपनी रामकहानी कही थी। यही सब सुन-सुन कर बलराज भरा बैठा था। ज्यों ही मौका मिला खुल पड़ा। हमने और तुमने रो-रो कर बेगार दी, पर डर के मारे मुँह ने खोल सके। वह हिम्मत का जवान है, उससे बरदास न हुई। वह जब हम सभी लोगों की खातिर आगे बढ़ा तो यह कहाँ का न्याय है कि मुचलके के डर से उसे आग में झोक दें?

डपटसिंह ने विस्मित हो कर कहा- तो तुम्हारी सलाह है कि मुचलका दे दिया जाय?

कादिर--नहीं, मेरी सलाह नहीं है। मेरी सलाह है कि हम लोग अपने-अपने बयान पर डटे रहे। अभी कौन जानता है कि मुचलका देना ही पड़ेगा। लेकिन अगर ऐसा हो तो हमें पीठ न फेरनी चाहिए। भला सोचो, कितना बड़ा अंधेर है कि हम [ ९६ ]लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो। यह कोई देवता हैं। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह संयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, जिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लश्करवालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बछायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ी ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर---तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खायेगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानो की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

डपटसिंह को अब निकलने का कोई रास्ता न रहा, किन्तु फिर भी इस निश्चय को व्यावहारिक रूप में मानने की कोई सम्भावित मार्ग निकल आने की आशा बनी हुई थी। बोले, अच्छा मान लो हम और तुम अपने बयान पर अड़े रहे, लेकिन बिसेसर और दुखरन को क्या करोगे? यह किसी विध न मानेंगे।

कादिर-उनको भी खींचे लाता हूँ, मानेंगे कैसे नहीं। अगर अल्लाह का डर है। तो कभी निकल ही नहीं सकते।

यह कह कर कादिर खाँ चले गये और थोड़ी देर में दोनों आदमियों को साथ लिये हुए आ पहुँचे। बिसेसर साह ने तो आते ही डपटसिंह की और प्रश्नसूचक दृष्टि से आँख नचा कर देखा, मानों पूछना चाहते थे कि तुम्हारी क्या सलाह है, और दुखरन भगत, जो दोनों जून मन्दिर में पूजा करने जाया करते थे और जिन्हें रामचर्चा से कभी तृप्ति न होती थी, इस तरह सिर झुका कर बैठ गये, मानों उन पर बज्रपात हो गया है या कादिर खाँ उन्हें किसी गहरी खोह में गिरा रहे हैं।

इन्हें यहाँ बैठा कर कादिर खाँ ने अपने पगड़ी से थोड़ी-सी तमाखू निकाली, अलाव से आग लाये और दो-तीन दम लगा कर चिलम को डपटसिंह की ओर बढ़ाते हुए बोले, कहो भगत, कल दारोगा जी के पास चल कर क्या करना होगा।

दुखरन—जो तुम लोग करोगे वही मैं भी करूंगा। हाँ, मुचलको न देना पड़े। कादिर ने फिर उसी युक्ति से काम लिया, जो डपटसिंह को समझने में सफल हुई थी! सीधे किसान वितंडावादी नहीं होते। वास्तव में इन लोगों के ध्यान में यह बात ही न आयी थी कि बयान का बदलना प्रत्यक्ष जाल है। कादिर खाँ ने इस विषय का निदर्शन किया तो उन लोगों को सरल सत्य-भक्ति जाग्रत हो गयीं। दुखरन शीघ्र ही [ ९७ ]उनसे सहमत हो गये। लेकिन बिसेसर पर उनके भापण को कुछ असर न हुआ। साहजी के यहाँ शक्कर और अनाज का कारबार होता था। डेवढ़ी-सवाई चलती थी, लेन-देन करते थे, दो हल की खेती होती थी, गाँजा-भाँग, चरस आदि का ठीका भी ले लिया था, पर उनका भेषभाव उन्हें अधिकारियों के पंजे से बचाता रहता था। बोले, भाई, तुम लोगों का साथ देने में मैं कहीं का न रहूँगा, चार पैसे का लेन-देन है। नरम-गरमी, डाँट-डपट किये बिना काम नहीं चल सकता। रुपये लेते समय तो लोग सगे भाई बन जाते हैं, पर देने की बारी आती है तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। यह रोजगार ही ऐसा है कि अपने घर की जमा दे कर दूसरों से वैर मौल लेना पड़ता है। आज मुचलका हो जाय, कल को कोई मामला खड़ा हो जाय, तो गाँव मे सफाई के गवाह तक न मिलेगे और फिर संसार में रह कर अधर्म से कहाँ तक बचेंगे? यह तो कपट लोक है। अपने मतलब के लिये दगा, फरेब, जाल सभी कुछ करना पड़ता है। आज धरम का विचार करने लगें, तो कल ही सौ रुपये साल का टिकट बँध जाय, असामियों से कौड़ी न वसूल हो और सारा कोरबार मिट्टी में मिल जाय। इस जमाने में जो रोजगार रह गया है इसी बेईमानी का रोजगार है। क्या हम हुए क्या तुम हुए। सबका एक ही हाल है, सभी सुन की गाँठों में मिट्टी और लकड़ी भरते हैं, तेलहन और अनाज में मिट्टी और कंकर मिलाते हैं। क्या यह बेईमानी नहीं है? अनुचित बात कहता हो तो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। तुम लोगों को जैसा गौं पड़े जैसा करो, पर मैं मुचलको देने पर किसी तरह राजी नहीं हो सकता।

स्वार्थ नीति का जादू निर्बल आत्माओं पर खूब चलता हैं। दुखरन और डपटसिंह को यह बातें अतिशय न्यायसंगत जान पड़ी। यही विचार उनके हृदय में भी थे, पर किसी कारण से व्यक्त न हो सके थे। दोनों ने एक-दूसरे को मार्मिक दृष्टि से देखा। डपटसिंह बोले, भाई, बात तो सच्ची करते हो, संसार में रह कर सीधी राह पर कोई ही चल सकता। अधर्म से बचना चाहे तो किसी जंगल-पहाड़ में जा कर बैठे। यहाँ निबाह नहीं।

कादिर खाँ समझ गये कि साहु जी पर धर्म और न्याय का कुछ बस न चलेगा। यह उस वक्त तक काबू में न आयेंगे जब तक इन्हें यह न सूझेगा कि बयान बदलने में कौन-कौन सी बाधाएँ उपस्थित हो सकती है। बोले, साहू जी, तुम जो बात कहते हो बेलाग कहते हो। संसार में रह कर अधर्म से कहाँ तक कोई बचेगा? रात-दिन तो छलकपट करते रहते हैं। जहाँ इतने पापों का दंड भोगना है, एक पाप और सही। लेकिन यहाँ धर्म का ही विचार नहीं है न। डेरे तो यह है कि बयान बदल कर हम लोग और किसी संकट में न फंस जायें। पुलिसवाले किसी के नहीं होते। हम लोगों का पहला बयान दरोगा जी के पास रखा हुआ है। उस पर हमारे दसखत और अँगूठे के निशान भी मौजूद है। दूसरा बयान ले कर वह हम लोगों को जालसा गिरफ्तार कर ले तो सोचो कि क्या हो? सात बरस से कम की सजा न होगी। न भैया, इससे तो मुचलका ही अच्छा। आँख से देख कर मक्खी क्यों निगलें?' [ ९८ ] बिसेसर साह की आँखें खुली। और लोग भी चकराए। कादिर खाँ की यह युक्ति काम कर गयी। लोग समझ गये कि हम लोग बुरे फंस गये हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। बिसेसर का मुँह ऐसा लटक गया मानों रुपये की थैली गिर गयी हो। बोले, दारोगा जी ऐसे आदमी तो नहीं जान पड़ते। कितना ही है तो हमारे मालिक हैं, कुछ न कुछ मुलाहिजा तो करेंगे ही, लेकिन किसी के मन का हाल परमात्मा ही जान सकता है। कौन जाने, उनके मन में कपटे समा जाये। तब तो हमारा सत्यानाश ही हो जायें। तो यही सलाह पक्की कर लो कि न बयान बदलेंगे, न दारोगा जी के पास जायेंगे। अब तो जाल में फँस गये हैं! फड़फड़ाने से फँदें और भी बंद हो जायेंगे। चुपचाप राम आसरे बैठे रहना ही अच्छा है।

इम प्रकार आपस में सलाह करके लोग अपने-अपने घर गये। कादिर खाँ की व्यवहार पटुता ने विजय पायी।

बाबू दयाशंकर नियमानुसार आठ बजे सो कर उठे और रात की खुमारी उतारने के बाद इन लोगों की राह देखने लगे। जब नौ बजे तक किसी की सूरत न दिखायीं दी तो गौस खाँ से बोले, कहिए ख़ाँ साहब, यह सब न आयेंगे क्या? देर बहूत हुई।

गौस खाँ–क्या जाने कल सबों में क्या मिस्कौट हुई। क्यों मुक्खू, रात मनोहर तुम्हारे पास आया था न?

भुक्नु-हाँ आया तो था, पर कुछ मामले की बातचीत नहीं हुई। कादिर मियाँ बड़ी रात तक सब के घर-घर घूमते रहे। उन्होनें सबों को मंत्र दिया होगा।

गौस खाँ–जरूर उनकी शरारत है। कल पहर रात तक सब लोग बयान बदलने पर आमादा थे। मालूम होता है जब लौग यहाँ से गये हैं तो उसे पट्टी पढ़ाने का मौका मिल गया। मैं जानता तो सबों को यही बुलाता। यह मलऊन कभी अपनी हरकत से बाज नहीं आता। हमेशा बाजी मारा करता है।

दया----अच्छी बात है, तो मैं अब रिपोर्ट लिख डालता हूं। मुझे गाँववालों की तरफ से किसी किस्म की ज्यादती का सबूत नहीं मिलता।

गौम खाँ-हुजूर, खुद के लिए ऐसी रिपोर्ट न लिखें, वरना यह सब और शेर हो जायेंगे। हुजूर, महज अफसर नहीं है, मेरे आका भी तो हैं। गुलाम ने बहुत दिनों तक हुजूर का नमक खाया है। ऐसा कुछ कीजिए कि यहाँ मेरा रहना दुश्वार न हो जाय। मैं तो हुजूर और बाबू ज्ञानशंकर को एक ही समझता हूँ। मैं यही चाहता हूँ कि बलराज को कम से कम एक माह की सजा हो जाय और बाकी से मुचलका ले लिया जाय। यह इनायत खास मुझ पर होगी। मेरी धाक बँध जायगी और आइदा में हुक्काम की बेगार में जरा भी दिक्कत न होगी।

दयाशंकर---आपका फरमाना बजा हैं, पर मैं इस वक्त न अपके पास आका की हैसियत में हूँ और न मेरा काम हुक्काम के लिए बेगार पहुँचाना है। मैं तशवीश करने आया हूँ और किसी के साथ रू-रियायत नहीं कर सकता। यह तो आप जानते ही हैं कि मैंने मुफ्त में कलम उठाने का सबक नही पढ़ा। किसी पर जब्र नहीं करता, [ ९९ ]सख्ती नहीं करता, सिर्फ काम की मजदूरी चाहता हूँ और खुशी से जो मुझसे काम लेना चाहे उजरत पेश करें। और मुझे महज अपनी फिक्र तो नहीं मेरे मातहत और भी तो कितने ही छोटी-छोटी तनख्वाहों के लोग हैं। उनका गुजर कैसे हो? गाँव मै आपकी धाक बँध जायगी, इससे मेरा फायदा? आप असामियों को लूटेंगे, मेरी गरज? गाँववालों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं, बल्कि वह गरीब तो मेरे पुराने वफादार असामी है। मैं मच्छर नहीं कि डक मारता फिरूं। कसम खा चुका हूँ, कि अब एक सौ से कम की तरफ निगाह न उठाऊँगा, यह रकम चाहे आप दे या काला चोर दे। मेरे सामने रकम आनी चाहिए। गुनाहे बेलज्जत नही कर सकता।

गौस खाँ ने बहुत मिन्नत समाअत की। अपनी हीन दशा का रोना रोया, अपनी दुरवस्था का पचड़ा गाया, पर दारोगा जी टस से मस न हुए। खाँ साहब ने लोगों को नीचा दिखाने का निश्चय किया था, इसी में उनका कल्याण था। दारोगा जी के पूजापंण के सिवा अन्य कोई उपाय न था। सोचा, जब मेरी धाक जम जायगी तो ऐसे-ऐसे कई सौ का वारा न्यारा कर दूंगा। कुछ रुपये अपने सन्दुक से निकाले, कुछ सुक्खू चौधरी से लिये और दारोगा जी की खिदमत में पेश किये। यह रुपये उन्होंने अपने गाँव में एक मसजिद बनवाने के लिए जमा किये थे। निकालते हुए हार्दिक वेदना हुई, पर समस्या में विवश कर दिया था। दयाशंकर ने काले-काले रुपयो का डेर देखा तो चेहरा खिल उठा। बोले, अब आपकी फतह है, वह रिपोर्ट लिखता हूँ कि मिस्टर ज्वालासिंह भी फड़क जायें। मगर आपने यह रुपये जमीन में दफन कर रखे थे क्या?

गौस खाँ–अब हुजूर कुछ न पूछे। बरसो की कमाई है। ये पसीने के दाग हैं।

दयाशंकर (हँस कर) आपके पसीने के दाग तो न होगे, हाँ असामियों के खूनेजिगरे के दाग हैं।

दस बजे रिपोर्ट तैयार हो गयी। दो दिन तक सारे गाँव मे कुहराम मचा रहा। लोग तलब हुए। फिर सबके बयान हुए। अन्त में सबसे सौ-सौ रुपये के मुचलके ले लिये गये। कादिर खाँ का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया।

शाम हो गयी थी। बाबू ज्वालासिंह शिकार खेलने गये हुए थे। फैसला कल सुनाया जानेवाला था। गौस खाँ ईजाद हुसेन के पास आ कर बैठ गये और बोले, क्या डिप्टी साहब अभी शिकार से वापस नहीं आये?

ईजाद हुसेन–कही घड़ी रात तक लौटेंगे। हुकूमत का मजा तो दौरे में ही मिलता है। घंटे आध घंटे कचहरी की, बाकी सारे दिन मटरगश्ती करते रहे। रोज नामचा भरने को लिख दिया, परताल करते रहे।

गौस खाँ-आपको तो मालूम ही हुआ होगा, दारोगा जी ने मुझे आज खूब पथरा।

ईजाद-इन हिन्दुओं से खुदा समझे। यह बल के मतअस्सिब होते हैं। हमारे साहब बहादुर भी बड़े मुन्सिफ बनते हैं, मगर जब कोई जगह खाली होती हैं तो वह हिन्दू को ही देते है। अर्दली चपरासी मजीद को आप जानते होंगे। अभी हाल में [ १०० ]उसने जिल्दबन्दी की दुकान खोल ली, नौकरी से इस्तीफा दे दिया। आपने उसकी जगह पर एक गंवार अहीर को मुकर्रर कर लिया। है तो अर्दली चपरासी, पर उसका काम है गायें दुहना, उन्हें चारा-पानी देना। दौरे के चौकीदारों में दो कार रख लिये हैं। उनसे खिदमतगारी का काम लेते हैं। जब इन हथकड़ो से काम चलें तो बेगार की जरूरत ही क्या हम लोगों को अलबत्ता हुक्म मिला है, बेगार न लिया करो।

सूर्य अस्त हुए। खाँ साहब को याद आ गया कि नमाज का वक्त गुजरा जाता है। वजू किया और एक पेड़ के नीचे नमाज पढ़ने लगे।

इतने में बिसेसर साह ने रावटी के द्वार पर आकर अहमद साहब को अदद से सलाम किया। स्थूल शरीर, गाढ़ की मिर्जई, उस पर गाढ़े की दोहर, सिर पर एक मैलीसी पगड़ी, नंगे पाँव, मुख मलिन, स्वार्थपूर्ण विनय की भूत बने हुए थे। एक चपरासी ने डाँट कर कहा, यह कहीं घुसे चले आते हो? कुछ अफसरों को अदब-लिहाज भी है।

बिसेसर साह दो-तीन पग पीछे हट गये और हाथ बाँध कर बोले, सरकार एक विनती है। हुक्म हो तो अरज करूँ।

ईजाद क्या कहते हो? तुम लोगों के मारे तो दम मारने की भी फुर्सत नहीं। अब देखो, एक न एक आदमी शैतान की तरह सिर पर सवार रहता है।

बिसेसर--हुजूर बड़ी देर से खड़ा हूँ।

ईजाद-अच्छा, खैर अपना मतलब कहो।

बिसेसर—यही अरज है हुजूर कि मुझसे मुचलका न लिया जाय। बड़ा गरीब हूँ। सरकार, मिट्टी में मिल जाऊँगा।

अहलमद साहब के यहाँ ऐसे गरज के बावले, आँख के अन्धे गाँठ के पूरे नित्य ही आया करते थे। वह उनके कल-पुरजे खूब जानते थे। पहले मुंह फेरा, फिर अपनी विवशता प्रकट की पर भाव ऐसा शीलपूर्ण बनाये रखा कि शिकार हाथ से निकल न जाये। अन्त में मामले पर आये। रुपये लेते हुए ऐसा मुँह बनाया, मानो दे रहे हो। साह जी को दिलासा देकर विदा किया।

चपरासी ने पूछा, क्या इससे मुचलका न लिया जायेगा?

ईजाद-लिया क्यों न जायगा। फैसला लिखा हुआ तैयार हैं। इसके लिए जैसे सौ, वैसे एक सौ बीस। मैंने उससे यह हरगिज नहीं कहा कि तुम्हें मुचलका से निजात दिला दूंगा। महज इतना कह दिया कि तुम्हारे लिए अपने इमकान भर कोशिश करूंगा। उसकी तसकीन इतने से ही हो गयी तो मुझे ज्यादा दर्द सर की क्या जरूरत थी? रिश्वत को लोग नाहक बदनाम करतें हैं। इस वक्त मैं इससे रुपये न लेता, तो इसकी न जाने क्या हालत होती। मालूम नहीं, कहाँ-कहाँ दौड़ता और क्या-क्या करता? रुपये देकर इसके सिर का बोझ हलका हो गया और दिल पर से बोझ उत्तर गया। इस वक्त आराम से खायेगा और मीठी नींद सोयेगा। कल कह दूंगा, भाई, क्या करूँ, बहुत हाथ-पैर मारे, पर डिप्टी साहब राजी न हुए। मौका देखेगा तो एक चाल और चलूँगा। कहूँगा, डिप्टी साहब को कुछ नजर दिये बिना काम पूरा न होगा। सौ [ १०१ ]रुपये पेश करो तो तुम्हारा मुचलका रद्द करा दें। यह चाल चल गयी तो पौ बारह है। इसी का नाम 'हम खुर्मा व हम सवाब' हैं। मैंने कोई ज्यादती नहीं की, कोई जब्र नहीं किया। यह गैबी इमदाद है। इससे मैं हिन्दुओं के मसलये तनीसुरू की कायल हूँ। जरूर इससे पहले की जिन्दगी में इस आदमी पर मेरे कुछ रुपये आते होंगे। आये दिन ऐसे शिकार फंसा करते हैं, गोया उन्हें रुपयों से कोई चिढ़ है। दिल में उनकी हिमाकत पर हँसता हूँ और अल्लाहू का शुक्र अदा करता हूँ कि ऐसे बंदे न पैदा करता तो हम जैसों को गुजर क्योंकर होता।