प्रेमाश्रम/२६

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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२६

जिस समय ज्ञानशकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई। कभी आँधी आती, कभी पानी वरसता। फाल्गुन के महीने में एक दिन ओले पड गये। सारी खेती नष्ट हो गयी। अब गाँववालो के लिए कोई सहारा न था। बिसेंसर साह ने भी जमीदार के मुकाबले में सहायता देने से इन्कार किया। स्त्रियो के गहने पहले ही निकल चुके थे। अब सुक्खू चौधरी के सिवा और कोई न था जो अपील की पैरवी कर सकता था। लोग भाग्य पर [ १७४ ]भरोसा किये बैठे थे। बकसी की दशा में प्रेमशंकर के भेजे हुए रुपयों ने बड़ा काम किया। मुर्दे जाग पड़े। कादिर खाँ दृढ़ प्रतिज्ञ हो कर उठ खड़ा हुआ और जी तोड़ कर मुकदमे की पैरवी करने लगा। लेकिन किसानों की नैतिक विजय वास्तविक पराजय से कम न थी। ज्ञानशंकर असामियों को इस दुःसाहस का दंड देने के लिए उधार खाये बैठे थे। अभी गाँव के लोग झोपड़ी में ही कि गौस खाँ अपने तीनों अपरासियों को लिए हुए आये और झोपड़ों में आग लगा दी। बाग की भूमि अमींदार की थी। असामियों को वह झोपड़े बनवाने का कोई अधिकार न था। चपरासियों में दो बिलकुल नये थे फैजू और कर्तार। दोनों लकड़ी चलाने में कुशल थे, कई बार सजा पाये हुए। उनके हृदय में दया और शील का नाम न था। पुराने आदमियों, मे केवल बिन्दा महाराज अपनी कुटिल नीति की बदौलत रह गये थे। अभी तक ताऊन की ज्वाला शान्त न हुई थी कि लोगों को विवश हो कर बस्ती में आना पड़ा, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे ही दिन ठाकुर झपटसिंह प्लेग के झोके में आ गये और कल्लू अहीर मरते-मरते बच गया। जितनी आरजू मिन्नत हो सकती थी वह सब की गयी, लेकिन अत्याचारियों पर कुछ असर न हुआ। झपट के मर जाने पर डपट भी मरने के लिए तैयार हुआ। लट्ठ चला कर बोला, गौस को आज जीता न छोड़ूँगा। अब क्या भय है। लेकिन कादिर खाँ उसके पैरों पर गिर पड़ा और समझा-बुझा कर घर लौटाया।

लखनपुर में एक बहुत बड़ा तालाब था। गाँव भर के पशु उसमे पानी पीते थे। नहाने-धोने का काम भी उससे चलता था।

जून का महीना था, कुओं का पानी पाताल तक चला गया था। आस-पास के सब बड़े और तालाब सूख गये थे। केवल इसी बड़े तालाब मे पानी रह गया था। ठीक उसी समय गौस खाँ ने उस तालाब का पानी रोक दिया। दो चपरासी किनारे आ कर डट गये और पशुओं को मार-मार कर भगाने लगे। गाँववालों ने सुना तो चकरायें। क्या सचमुच जमींदार तालाब का पानी भी बन्द कर देगा। यह तालाब सारे गाँव की जीवन स्रोत था। लोगों को कभी स्वप्न में भी अनुमान न हुआ था कि जमींदार इतनी जबरदस्ती कर सकता है। उनका चिरकाल से इस पर अधिकार था। पर आज उन्हें ज्ञात हुआ कि इस जल पर हमारा स्यत्व नहीं है। यह जमींदार की कृपा थी कि वह इतने दिनों तक चुप रहा, किन्तु चिरकालीन कृपा भी स्वत्व का रूप धारण कर लेती है। गांव के लोग तुरन्त तालाब के तट पर जमा हो गये और चपरासियों से वाद-विवाद करने लगें। कादिर खाँ ने देखा कि बात बढ़ना चाहती है तो वहीं से हट जाना उचित समझा। जानते थे कि मेरे पीछे और लोग टल जायेंगे, किन्तु दो ही चार पंग चले थे कि सहसा सुक्खू चौधरी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले, कहाँ जाते हो कादिर भैया! जब तक यहाँ कोई निबटारा न हो जाय, तुम जाने न पायोगे। जब-जा-बेजा हरएक मामले में इसी तरह दबना है, तो गाँव के सरगना काहे को बनते हो?

कादिर खाँ-तो क्या कहते हो लाठी चलाऊँ?

सुक्खू-और लाठी है किस दिन के लिए? [ १७५ ]कादिर-किसके बूते पर लाठी चलेगी? गाँव में रह कौन गया है? अल्लाह ने पट्ठों को चुन लिया।

सुक्खू---पट्ठे नहीं है न सही, बूढे तो है? हम लोग की जिन्दगानी किस रोज काम आयेगी?

गौस खाँ को जब मालूम हुआ कि गाँव के लोग तालाब के तट पर जमा हैं तो वह भी लपके हुए आ पहुँचे और गरज कर बोले, खबरदार! कोई तालाब की तरफ कदम न रखे। सुक्खू आगे बढ़ आये और कड़क कर बोले, किसकी मजाल है जो तालाब का पानी रोके। हम और हमारे पुरखा इसी से अपना निस्तार करते चले आ रहे है। जमींदार नहीं ब्रह्मा आ कर कहे तब भी इसे न छोड़ेंगे, चाहे इसके पीछे सरबस लुट जाये।

गौस खाँ ने सुक्खू चौधरी को विस्मित नेत्रों से देखा और कहा, चौधरी, क्या इस मौके पर तुम भी दगा दोगे? होश में आओ।

सुक्खू तो क्या आप चाहते कि जमींदार की खातिर अपने हाथ कटवा लें। पैरों मे कुल्हाड़ी मार लें। खैरख्वाही के पीछे अपना हक नहीं, छोड़ सकता।

करतार चपरासी ने हँसी करते हुए कहा, अरे तुमका का पड़ी है, है कोऊ आगे पीछे? चार दिन में हाथ पसारे चले जैहो। ई ताल तुमरे सँग न जाई।

वृद्धजन मृत्यु का व्यग नहीं सह सकते। सुक्खू ऐठ कर बोले—क्या ठीक हैं कि हम ही पहले चले जायेंगे? कौन जाने हमसे पहले तुम्हीं चले जाओ। जो हो, हम तो चले जायेंगे, पर गाँव तो हमारे साथ न चला जायगा?

गौस खाँ-हमारे सलूकों का यहीं बदला है?

सुक्खू-आपने हमारे साथ सलूक किये है तो हमने भी आपके साथ सलूक किये है और फिर कोई सलूक के पीछे अपने हक-पद को नहीं छोड़ सकता।

फैजू तो फौजदारी करने का अरमान है?

सुक्खू–फौजदारी क्यों करें, क्या हाकिम का राज नहीं है? हाँ, जब हाकिम न सुनेगा तो जो तुम्हारे मन में है वह भी हो जायेगा। यह कह कर सुक्खू ताल के किनारे से चले आये और उसी वक्त बैलगाड़ी पर बैठ कर अदालत चले। दूसरे दिन दावा दायर हो गया।

लाला मौजीलाल पटवारी की साक्षी पर हार-जीत निर्भर थी। उनकी गवाही गाँव वालों के अनुकूल हुई। गौस खाँ ने उन्हें फोड़ने में कोई कसर न उठा रखी, यहाँ तक कि मार-पीट की भी धमकी दी। पर मौजीलाल का इकलौता बेटा इसी ताऊन मे भर चुका था। इसे वह अपने पूर्व संचित पाप का फल समझते थे। सन्मार्ग से विचलित न हुए। बेलाग साक्षी दी। सुक्खू चौधरी की डिगरी हो गयी और यद्यपि उनके कई सौ रुपये खर्च हुए पर गाँव में उनकी खोयी प्रतिष्ठा फिर जम गयी। चीक बैठ गयी। सारा गाँव उनका भक्त हो गया। इस विजय का आनन्दोत्सव मनाया गया। सत्यनारायण की कथा हुई, ब्राह्मणों को भोज हुआ और तालाब के चारो ओर पक्के घाट [ १७६ ]की नींव पड़ गयी। गौस ख़ाँ के भी सैकड़ों रुपये खर्च हो गये। ये काँटे उन्होंने ज्ञानशंकर से बिना पूछे ही बोये थे। इसलिए इसका फल भी इन्हीं को खाना पड़ा। हम का धन हराम की भेंट हो गया।

गौस खाँ यह चोट खा कर बौखला उठें। सुक्खू चौधरी उनकी आँखों में काटे की तरह खटकने लगा। दयाशंकर इस हल्के से बदल गये थे। उनकी जगह पर नूर आलम नाम के एक दूसरे महाशय नियुक्त हुए थे। गौस खाँ ने इनसे राह-रस्म पैदा करना शुरू किया। दोनों आदमियों में मित्रता हो गयी और लखनपुर पर नयी-नयी विपत्तियों को आक्रमण होने लगा।

बर्फी के दिन थे। किसानों को ज्वार और बाजरे की रखवाली से दम मारने का अवकाश न मिलता। जिधर देखिए हा-हू की ध्वनि आती थी। कोई ढोल बजाता था, कोई टीन के पीपे पीटता था। दिन को तोतों के झुंड-के-झुंड टूटते थे, रात को गीदड़ के गोल; उस पर धान की क्यारियों में पौधे बिठाने पड़ते थे। पहर रात रहे ताल में आते और पहर रात गये आते थे। मच्छरों के डंक से लोगों को देह में छाले पड़ जाते थे। किसी का घर गिरता था, किसी के खेत में मेड़े कटी जाती थी। जीवन-संग्राम की दोहाई मची हुई थीं। इसी समय दारोगा नूर आलम के गाँव पर छापा मारा। सुक्खू चौधरी ने कभी कोकीन को सेवन नहीं किया था, उसकी सूरत नहीं देखी थी, उनका नाम नहीं सुना था, लेकिन उनके घर में एक तोला कोकीन बरामद हुई। फिर क्या था, मुकदमा तैयार हो गया। माल के निकलने की देर थी, हिरासत में आ गये। उन्हें विश्वास हो गया कि मैं बरी न हो सकूँगा। उन्होंने स्वयं कई आदमियों को इसी भाँति सजा दिलायी थी। हिरासत में आने के एक क्षण पहले वह घर से गये और एक हाँड़ी लिए हुए आये। गाँव के सब आदमी जमा थे। उनसे बोले, भाइयों, रामराम! अब तुमसे विदा होता हैं। कौन जाने फिर भेंट हो या न हो। बूढ़े आदमी की जिन्दगानी का क्या भरोसा। ऐसे ही भाग होगे तो भेंट होगी। इस हाँडी में पाँच हजार रुपये हैं। यह कादिर भाई को पता हैं। तालाब का घाट बनवा देना। जिन लोगों पर मेरा जो कुछ आता है वह सब छोड़ता हूँ। यह देखो, सब कागज-पत्र अब तुम्हारे सामने फाड़े डालता हूँ। मेरा किसी के यहाँ कुछ बाकी नहीं, सब भर पाया।

दारोगा जी वहीं उपस्थित थे। रुपयों की हांडी देखते ही लार टपक पड़ी। सुक्खू का बुला कर कान में कहा, कैसे अहमक हो कि इनने रुपये रख कर भी बचने की फिक्र नहीं करते?

सुक्कू अब बच कर क्या करना है! क्या कोई रोनेवाला बैठा है?

नूर आलम-तुम इस गुमान में होगे कि हाकिम को तुम्हारे बुढ़ापे पर तरस आ जायगा और वह तुमको बरी कर देगा। मगर इस धोखे में न रहना। वह डट कर रिपोर्ट लिखूँगा और ऐसी मोतविर शहादत पेश करूँगा कि कोई वैरिस्टर भी जबान न खोल सकेगा। पाँच हजार नहीं पाँच लाख भी खर्च करोगे तो भी मेरे पंजे से न [ १७७ ]निकल सकोगे। मैं दयाशंकर नही हूँ, मेरा नाम नूर आलम है। चाहूँ तो एक बार खुदा को भी फंसा दूँ।

सुक्खू ने फिर उदासीन भाव से कहा, आप जो चाहे करे। अब जिन्दगी मे कौन सा सुख है कि किसी का ठेगा सिर पर लूँ? गौस खाँ का दया-स्रोत उबल पड़ा। फैजू और कर्तार भी बुलबुला उठे और बिन्दा महाराज तो हाँडी की ओर टकटकी लगाये ताक रहे थे।

सबने अलग-अलग और फिर मिल कर सुक्खू को समझाया; लेकिन वह टस से मस न हुए। अन्त में लोगों ने कादिर को घेरा। नूर आलम ने उन्हें अलग ले जा कर कहा, खाँ साहब, इस बूढे को जरा समझाओ, क्यों जान देने पर तुला हुआ है। दो साल से कम की सजा न होगी। अभी मामा मेरे हाथ में है। सब कुछ हो सकती। है। हाथ से निकल गया तो कुछ न होगा। मुझे उसके बुढ़ापे पर तरस आता है।

गौस खाँ बोले-हो, इस वक्त उस पर रहम करना चाहिए। अब की ताऊन ने बेचारे का सत्यानाश कर दिया।

कादिर खाँ जा कर सुक्खू को समझाने लगे। बदनामी का भय दिखाया, कारावास की कठिनाइयों बयान की, किन्तु सुक्खू जरा भी न पसीजा। जब कादिर खाँ ने बहुत आग्रह किया और गाँव के सब लोग एक स्वर से समझाने लगे तो सुक्खू उदासीन भाव से बोला, तुम लोग मुझे क्या समझाते हो? मैं कोई नादान बालक नहीं हूँ। कादिर खाँ से मेरी उम्र दो ही चार दिन कम होगी। इतनी बड़ी जिन्दगानी अपने बन्धुओं का बुरा करने में कट गयी। मेरे दादा मरे तो घर में भूनी भाँग तक न थी। कारिन्दो से मिल कर मैं आज गाँव का मुखिया बन बैठा हूँ। चार आदमी मुझे जानते है और मेरा आदर करते हैं, पर अब आँखों के सामने से परदा हट गया। उन कर्मों का फल कौन भोगेगा? भोगना तो मुझी को है, चाहे यही भोगूँ, चाहे नरक में। यह सारी हाँडी मेरे पापों से भरी हुई है। इसी ने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया। कोई एक चुल्लू पानी देनेवाला न रहा। यह पाप की कमाई पुण्य कार्य में लग जाय तो अच्छा है। घाट बनवा देना, अगर कुछ और लगे तो अपने पास से लगा देना। मैं जीती बचा तो कौडी-कौड़ी चुका दूंगा।

दूसरे दिन सुक्खू का चालान हुआ। फैजू और कर्तार ने पुलिस की ओर से साक्षी दी। माल बरामद हो ही गया था। कई हजार रुपयों का घर से निकलना पुष्टिकारक प्रमाण हो गया। कोई वकील भी न था। पूरे दो साल की सजा हो गयी। निरपराध निर्दोष सुक्खू गौस खाँ के वैमनस्य और ईर्ष्या का लक्ष्य बन गया।

सारा गाँव थर्रा उठा। इजाफा लगान के खारिज होने से लोगों ने समझा था कि अब किसी बात की चिंता नही, मानों ईश्वर ने अभय प्रदान कर दिया। पर अत्याचार के यह नये हथकडे देख कर सबके प्राण सूख गये। जब सुक्खू चौधरी जैसा शक्तिशाली मनुष्य दम के दम मे तबाह हो गया तो दूसरों का कहना ही क्या? किन्तु गौस खाँ को अब भी सन्तोष न हुआ। उनकी यह लालसा कि सारा गाँव मेरा गुलाम

१२

[ १७८ ]हो जाय, मेरे इशारे पर नाचे, अभी तक पूरी न हुई थी। मौरूसी काश्तकारों में अभी तक कई आदमी बचे हुए थे। कादिर खाँ अब भी था, बलराज और मनोहर अब भी आँखो मे खटकते थे। यह सब इस बाग के काँटे थे। उन्हें निकाले बिना सैर करने का आनन्द कहाँ ?

लखनपुर शहर से दस ही मील की दूरी पर था। हाकिम लोग आते और जाते यहाँ जरूर ठहरते। अगहन का महीना लगा ही था कि पुलिस के एक बड़े अफसर का लश्कर आ पहुँचा। तहसीलदार स्वयं रसद का प्रबन्ध करने के लिए आय। चपरासियो की एक फौज साथ थी। लश्कर में सौ सवा-सौ आदमी थे। गाँव के लोगो ने यह जमघट देखा तो समझा कि कुशल नही है। मनोहर ने बलराज को ससुराल भेज दिया और ससुरालवालो को कहला भेजा कि इसे चार-पाँच दिन न आने देना। लोग अपनी-अपनी लकडियाँ और भूसा उठा-उठा कर घरों में रखने लगे। लेकिन बोवनी के दिन थे, इतनी फुरसत किसे थी ?

प्रात काल बिसेसर साह दूकान खोल ही रहे थे कि अरदली के दस-बारह चपरासी दुकान पर आ पहुँचे। बिसेसर ने आटे दाल के बोरे खोल दिये; जिन्सें तोली जाने लगी। दोपहर तक यही ताँता लगा रहा। घी के कनस्तर खाली हो गये। तीन पडाव के लिए जो सामग्री एकत्र की थी, अभी समाप्त हो गयी। बिसेसर के होश उड गये। फिर आदमी मडी दौड़ाये । वेगार की समस्या इससे कठिन थी। पाँच बडे-बडे घोडो के लिए हरी घासे छीलना सहज नही था। गाँव के सब चमार इस काम में लगा दिये गये। कई नोनिये पानी भर रहे थे। चार आदमी नित्य सरकारी डाक लेने के लिए सदर दौड़ाये जाते थे। कहारो को कर्मचारियो की खिदमत से सिर उठाने की फुरसत न थी। इसलिए जब दो बजे साहब ने हुक्म दिया कि मैदान में घास छील कर टेनिस कोर्ट तैयार किया जाय तो वे लोग भी पकड़े गये जो अब तक अपनी वृद्धावस्था या जाति-सम्मान के कारण बचे हुए थे। चपरासियो ने पहले दुखरन भगत को पकड़ा। भगत ने चौक कर कहा, क्यो मुझसे क्या काम है? चपरासी ने कहा, चलो लश्कर में घास छीलनी है।

भगत--घास चमार छीलते हैं, यह हमारा काम नहीं है।

इस पर एक चपरासी ने उनकी गरदन पकड़ कर आगे ढकेंला और कहा, चलते हो या यहाँ कानून बघारते हो ?

भगत--अरे तो ऐसा क्या अन्धेर है? अभी ठाकुर जी को भोग तक नहीं लगाया।

चपरासी--एक दिन में ठाकुर जी भूखो न मर जायेंगे ।

भगत ने वाद विवाद करना उचित न समझा, झपट कर सिपाहियों के बीच से निकल गये और भीतर जा कर विवाद बन्द कर दिये। सिपाहियों ने धडाधड किवाड पीटना शुरू किया । एक सिपाही ने कहा, लगा दें आग, वहीं भुन जाय। दुखरन ने भीतर से कहा, बैठो, भोग लगा कर आ रहा हूँ। चपरासियो ने खपरैल फोडने शुरू किये। इतने में कई चपरासी कादिर खाँ आदि को साथ लिए आ पहुँचे। डपटसिंह [ १७९ ]पहर रात रहे घर से गायब हो गये थे। कादिर ने कहा, भगत, घर मे क्यो धुसे बैठे हो ? चलो, हम लोग भी चलते है। भगत ने द्वार खोला और बाहर निकल आये। कादिर हँस कर बोले, आज हमारी बाजी हैं। देखे कौन ज्यादा घास छीलता है। भगत ने कुछ उत्तर न दिया। सब लश्कर के मैदान में आये और घास छीलने लगे।

मनोहर ने कहा--खाँ साहब के कारण हम भी चमार हो गये।

दुखरन--भगवान की इच्छा। जो कभी न किया, वह आज करना पड़ा।

कादिर--जमीदार के असामी नही हो ? खेत नही जोतते हो ?

मनोहर--खेत जोतते है तो उसका लगान नही देते हैं। कोई भकुआ एक पैसा भी तो नहीं छोडता।

कादिर--इन बातों में क्या रक्खा है? गुड खाया है तो कान छिदाने पडेगे। कुछ और बात-चीत करो। कल्लू, अब की तुम ससुराल में बहुत दिन तक रहे। क्या-क्या मार लाये ?

कल्लू--मार लाया? यह कहो जान ले कर आ गया। यहाँ से चला तो कुल साढे तीन रुपये पास थे। एक रुपये की मिठाई की, आठ आने रेल का किराया दिया, दो रुपये पास रख लिये। वहाँ पहुँचते ही बडे साले ने अपना लडका ला कर मेरी गोद में रख दिया। बिना कुछ दिये उसे गोद में कैसे लेता? कमर से एक रुपया निकाल कर उसके हाथ मे रख दिया। रात को गाँव भर की औरतो ने जमा हो कर गाली गायी। उन्हें भी कुछ नेग-दस्तूर मिलना ही चाहिए था। एक ही रुपये की पूँजी थी, वह उनकी भेट की। न देता तो नाम हँसाई होती। मैंने समझा यहाँ रुपयो का ओर काम ही क्या है और चलती बेर कुछ न कुछ बिदाई मिल ही जायेगी। आठ दिन चैन से रहा। जब चलने लगा तो सामने एक मटका खॉड, एक टोकरी ज्वार की बाल और एक थैली में कुछ खटाई भर कर दी। पहुँचाने के लिए एक आदमी सार्थ कर दिया। बस बिदाई हो गयी। अब बडी चिन्ता हुई कि घर तक कैसे पहुँचूँगा? जान न पहचान, माँगूँ किससे? उस आदमी के साथ टेसन तक आया। इतना बोझ ले कर पैदल घर तक आना कठिन था। बहुत सोचते समझते सूझी कि चल कर ज्वार की बाल कहीं बेच दूँ। आठ आने भी मिल जायँगे तो काम चल जायगा। बाजार में आ कर एक दुकानदार से पूछा, बाले, लोगे ? उसने दाम पूछा। मेरे मुँह से निकला, दाम तो मैं-नही जानता, आठ आने दो, ले लो। बनिये ने समझा चोरी का माल है। थैली पटका, बाले सब रखवा ली और कहा चुपके से चले जाओ, नही तो चौकीदार को बुला कर थाने भिजवा दूँगा। तो भैया क्या करता ? सब कुछ वही छोड कर भागा। दिन भर का भूखा-प्यासा पहर रात गये घर आया। कान पकडे कि अब ससुराल न जाऊँगा।

कादिर--तुम तो सस्ते ही छूट गये। एक बेर मै भी ससुराल गया था। जवानी की उमर थी। दिन भर धूप में चला तो रतौघी हो गयी। मयर लाज के मारे किसी से कहा तक नही। खाना तैयार हुआ तो साली दालान में बुलाकर भीतर चली गयी। [ १८० ]दालान में अँधेरा था। मैं उठा तो कुछ सूझा ही नही कि किधर जाऊँ। न किसी को पुकारते बने, न पूछते। इधर-उधर टटोलने लगा। वहीं एक कोने में मेढ़ा बँधा हुआ था। मैं उसके ऊपर जा पहुँचा। वह मेरे पैर के नीचे से झपट कर उठा और मुझे ऐसा सींग मारा कि मैं दूर जा गिरा। यह धमाका सुनके साली दौड़ी हुई आयी और अन्दर ले गयी। आँगन में मेरे ससुर और दो-तीन बिरादर बैठे हुए थे। मैं भी जा बैठा। पर कुछ सूझता न था कि क्या कहें। सामने खाना रखा था। इतने में मेरी सास कड़े-छड़े पहने छन-छन करती हुई दाल की रकावी में घी डालने आयी। मैंने छन-छन की आवाज सुनी तो रोगटे खड़े हो गये। अभी तक घुटने में दर्द हो रहा था। समझा कि शायद मेढ़ा छूट गया। खड़ा हो कर लगा पैतरे बदलने। सास को भी एक घूसा लगाया। घी की प्याली उनके हाथ से छूट पड़ी। वह घबड़ा के भागी। लोगों ने दौड़ कर मुझे पकड़ा और पूछने लगे, क्या हुआ, क्या हुआ? शरम के मारे मेरी जबान बन्द हो गयी। कुछ बोली ही न निकली। साला दौड़ा हुआ गया और एक मौलवी को लिवा आया। मौलवी ने देखते ही कहा, इस पर सईद मर्द सवार है। दुआ-ताबीज होने लगी। घर में किसी ने खाना न खाया। सास और ससुर मेरे सिरहाने बैठे बड़ी देर तक रोते रहे और मुझे आये बार-बार हँसी। कितना ही रोकें हँसी न रुके। भोरे मुझे नींद आ गयी। भौरे उठ कर मैंने किसी से कुछ पूछा न ताछा, सीधे घर की राह ली। दुखरन भगत, अपनी ससुराल की बात तुम भी कहो।

दुखरन मुझे इस बखत मसखरी नहीं सूझती। यही जी चाहता है कि सिर पटक कर मर जाऊँ।

मनोहर---कादिर भैया, आज बलराज होता तो खून-खराबी हो जाये। उससे यह दुर्गत ने देखी जाती।

कादिर—फिर वही दुखड़ा ले बैठे। अरें जो अल्लाह को यही मंजूर होता कि हम लोग इज्जत-आबरू से रहे तो काश्तकार क्यों बनाता? जमींदार न बनाता, चपरासी न बनाता, थाने की कानिसटिबिल न बनाता किं बैठे-बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते? नहीं तो यह हाल है कि अपना कमाते है, अपना खाते हैं, फिर भी जिसे देखो धौस जमाया करता है। सभी की गुलामी करनी पड़ती है। क्या जमींदार, क्या सरकार, क्या हाकिम सभी की निगाह हमारे ऊपर टेढ़ी है और शायद अल्लाह भी नाराज हैं। नहीं तो क्या हम आदमी नहीं है कि कोई हमसे बड़ा बुद्धिमान है? लेकिन रो कर क्या करें? कौन सुनता है? कौन देखता है खुदाताला नै आँखे बन्द कर ली। जो कोई अमानुस दरद बूझ कर हमारे पीछे खड़ा भी हो जाता है तो उस बेचारे की जान भी आफत मे फँस जाती है। उसे तंग करने के लिए, फँसाने के लिए तरह-तरह के कानून गढ़ लिए जाते हैं। देखते तो हो, बलराज के अखबार में कैसी-कैसी बातें लिखी रहती हैं। यह सब अपनी तकदीर की सूबी है।

यह कहते-कहते कादिर खाँ रो पड़े। वह हृदय-शाप जिसे वह हास्य और प्रमोद [ १८१ ]से दबाना चाहते थे, प्रज्वलित हो उठा। मनोहर ने देखा तो उसकी आँखें रक्तवर्ण हो गयी--पददलित अभिमान की मूर्ति की तरह।

चारों में से कोई न बोला। सब के सब सिर झुकाये चुपचाप घास छीलते रहे, यहाँ तक कि तीसरा पहर हो गया। सारा मैदान साफ हो गया। सबने खुरपियाँ रख दी और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गये। बेचारे समझते थे कि गला छूट गया, लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आ कर हुक्म दिया, गोबर ला कर इसे लीप दो, खूब चिकना कर दो, कोई ककड़-पत्थर न रहने पाये। कहाँ हैं नाजिर जी, इन सबको डोल रस्सी दिलवा दीजिए।

नाजिर ने तुरंत डोल और रस्सी मँगा कर रख दी। कादिर खाँ ने डोल उठाया और कुएँ की तरफ चले, लेकिन दुखन भगत ने घर का रास्ता लिया। तहसीलदार ने पूछा, इधर कहाँ?

दुखरन ने उद्दडता से कहा-घर जा रहा हैं।

तहसीलदार-और लीपेगा कौन?

दुखरन--जिसे गरज होगी वह लीपेगा।

तहसीलदार-इतने जूते पडेंगे कि दिमाग की गरमी उतर जायगी।

दुखरन-आपका अख्तियार है-जूते मारिए चाहे फाँसी दीजिए, लेकिन लीप नहीं सकता।

कादिर--भगत, तुम कुछ न करना। जाओ, बैठे ही रहना। तुम्हारे हिस्से का काम मैं कर दूंगा।

दुखरन--मैं तो अब जूते खाऊँगा। जो कसर है वह भी पूरी हो जाय।।

तहसीलदार--इस पर शामत सवार है। है कोई चपरासी, जरा लगा तो बदमाश को पश्वास जूते, मिजाज ठंडा हो जाय।

यह हुक्म पाते ही एक चपरासी ने लपक करे भगत को इतने जोर से धक्का दिया कि वह जमीन पर गिर पड़े और जूते लगाने लगा। भगत जड़वत् भूमि पर पड़े रहे। संज्ञा-शून्य हो गये, उनके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि का चिह्न भी न था। उनके मुख से हाय तक न निकलती थी। दीनता ने समस्त चैतन्य शक्तियों का हनन कर दिया था। कादिर खाँ कुएँ पर से दौड़े हुए आये और उस निर्दय चपरासी के सामने सिर झुका कर बोले, सेख जी, इनके बदले मुझे जितना चाहिए मार लीजिए, अब बहुत हो गया।

चपरासी ने धक्का दे कर कादिर खाँ को ढकेल दिया और फिर जूता उठाया कि अकस्मात् सामने से एक इक्के पर प्रेमशंकर और डपटसिंह आते दिखायी दिये। प्रेमशंकर यह हृदय-विदारक दृश्य देखते ही इक्के से कूद पड़े और दौड़े हुए चपरासी के पास आ कर बोले, खबरदार जो फिर हाथ चलाया।

चपरासी सकते में आ गया। कुल्लू, मनोहर सब डोल-रस्सी छोड़-छोड़ कर दौड़े और उन्हें सलाम कर खड़े हो गये। चमार भी घास ला कर पैसों के इन्तजार में खड़े थे। वे भी पास आ गये। प्रेमशंकर के चारों और एक जमघट सा हो गया। तहसीलदार [ १८२ ]ने कठोर स्वर में पूछा, आप कौन हैं? आपको सरकारी काम में मुदाखिलत करने का क्या मजाल है?

प्रेमशंकर--मुझे नहीं मालूम था कि गरीबो को जूते लगवाना भी सरकारी काम है। इसने क्या खता की थी, जिसके लिए आप ने यह सजा तजवीज की ?

तहसीलदार--सरकारी हुक्म की तामील से इन्कार किया। इससे कहा गया था कि इस मैदान को गोबर से लीप है, पर इसने बदजवानी की।

प्रेम--आपको मालूम नही था कि यह ऊँची जाति की काश्तकार है? जमीन लीपना या कूड़ा फेंकना इनका काम नहीं हैं।

तहसीलदार--जूते को मार सब कुछ करा लेती है।

प्रेमशकर का रक्त खौल उठा, पर जब्त से काम ले कर बोले, आप जैसे जिम्मेदार ओहदेदार की जबान से यह बात सुन कर सख्त अफसोस होता हैं।

मनोहर आगे बढ़ कर बोला, सरकार, आज जैसी दुर्गति हुई है वह हम जानते हैं। एक चमार बोला, दिन भर घास छीला, अब कोई पैसे ही नहीं देता। घटो से चिल्ला रहे हैं।

तहसीलदार ने क्रोधोन्मत्त हो कर कहा, आप यहाँ से चले जायें, वरना आपके हक में अच्छा न होगा। नाजिर जी, आप मुँह क्या देख रहे है? चपरासियो से कहिए, इन चमारों की अच्छी तरह खबर लें। यही इनकी मजदूरी है।

चपरासियो ने वेगारी को घेरना शुरू किया। कान्स्टेबलों ने भी वन्दूको के कुन्दे, चलाने शुरू किये । कई आदमियों को चोट आ गयी। प्रेमशंकर ने ओर से कहा, तहसीलदार साहब, मैं आपसे मिन्नत करता हूँ कि चपरासियों को मार-पीट करने से मना कर दें, वरना इन गरीबो का खून हो जायेगा।

तहसीलदार--आपके ही इशारो से इन बदमाशों ने सरकशी अख्तियार की हैं। इसके जिम्मेदार आप है। मैं समझ गया, आप किसी किसान-सभा से ताल्लुक रखते है।

प्रेमशंकर ने देखा तो लखनपुरवालों के चेहरे रोप से विकृत हो रहे थे। प्रति क्षण शका होती थी कि इनमे से कोई प्रतिकार ने कर बैठे। प्रति क्षण समस्या जटिलतर होती जाती थी। तहसीलदार और अन्य कर्मचारियों से मनुष्यता और दयालुता की अब कोई आशा न रही। तुरन्त अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। गाँववालो की ओर रुख करके बोले, तहसीलदार साहब का हुक्म मानो । एक आदमी भी यहाँ से न जाय। सब आदमियो को मुँह माँगी मजूरी दी जायगी। इसकी कुछ चिन्ता मत करो।

यह शब्द सुनते ही सारे आदमी ठिठक गये और विस्मित हो कर प्रेमशंकर की ओर ताकने लगे। सरकारी कर्मचारियों को भी आश्चर्य हुआ। मनोहर और कल्लू कुएँ की तरफ चले। चमारों ने गोबर वटोरना शुरू किया। डपटसिंह भी मैदान से ईंट-पत्थर उठा-उठा कर फेकने लगे। सारा काम ऐसी शान्ति से होने लगा, मानो कुछ [ १८३ ]हुआ ही न था। केवल दुखरन भगत अपनी जगह से न हिले।

प्रेमशंकर ने तहसीलदार से कहा, आपकी इजाजत हो तो यह आदमी अपने घर जाय। इसे बहुत चोट आ गयी है।

तहसीलदार ने कुछ सोच कर कहा, हाँ, जा सकता है।

भगत चुपके से उठे और धीरे-धीरे घर की और चले। इधर दम के दम भी आदमियों ने मैदान लीप-पोत कर तैयार कर दिया। सब ऐसा दौड़-दौड़ कर उत्साह है काम कर रहे थे मानों उनके घर बरात आयी हो।

सन्ध्या हो गयी थी। प्रेमशंकर जमीन पर बैठे हुए विचारों में मग्न थे—कब तक गरीबों पर यह अन्याय होगा? कब उन्हें मनुष्य समझा जायगा? हमारा शिक्षित समुदाय कब अपने दीन भाइयों की इज्जत करना सीखेगा? कब अपने स्वार्थ के लिए अपने अफसरों की नीच खुशामद करना छोड़ेगा।

इतने में तहसीलदार साहब सामने आ कर खड़े हो गये और विनय भाव से बोले, आपको यहाँ तकलीफ हो रही है, मेरे खेमे में तशरीफ ले चलिए। माफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना न था। गरीबों के साथ हमदर्दी देख कर आपकी तारीफ करने को जी चाहता है। आप बड़े खुशनसीब है कि सुदा ने आपको ऐसा दर्दमन्द दिल अता फरमाया है। हम बदनसीबों की जिन्दगी तो अपनी तनपरवरी में ही गुजरती जाती है। क्या करूं? अगर अभी साफ कह दें कि बेगार में मजदूर नहीं मिलते तो नालायक समझा जाऊँ। आँखो से देखता हूँ कि मजदूरों को आठ आने रोज मिलते हैं, पर इन साहब बहादुर से इतनी मजूरी मांगें तो वह हर्गिज न देंगे। सरकार ने कायदे बहुत अच्छे बनाये हैं, लेकिन ये हुक्काम उनकी परवा ही नहीं करते। कम से कम ५० रू. के मिट्टी के बर्तन उठे होंगे। लकड़ी, भूसा, पुआल सैकड़ो मन खर्च हो गये। कौन इनकी कीमत देता है। अगर कायदे पर अमल करने लगें तो एक लमहे मर रहना दुश्वार हो जाये और मैं अकेला कर ही क्या सकता हूं। मेरे और भाई भी तो है। उनकी सख्तियाँ आप देखें तो तो तले उँगली दबा ले। खुदा ने जिसके घर में रूखी रोटियां भी दी हो, वह कभी यह मुलाजमत न करे। आइए, बैठिए, आपको सैकड़ो दास्ताने सुनाई, जिनमें तहसीलदारों को कायदे के मताबिक अमल करने के लिए जहन्नुम में भेज दिया गया है। मेरे ऊपर खुद एक बार गुजर चुकी है।

प्रेमशंकर को तहसीलदार से सहानुभूति हो गयी। समझ गये कि यह बेचारे विवश हैं। मन मे लज्जित हुए कि मैंने अकारण ही इनसे अविनय की। उनके साथ खेमे में चले गये। वहाँ बहुत देर तक बात होती रही। तहसीलदार साहब बडे साधु सज्जन निकले। अधिकार-विषयक घटनाएँ समाप्त हो चुकी तो अपनी पारिवारिक कठिनाइयों का बयान करने लगे। उनके तीन पुत्र कालेज में पढ़ते थे। दो लड़कियाँ विधवा हो गयी थी। एक विधवा बहिन और उसके बच्चों का भार भी सिर पर था। २०० रु० में बड़ी मुश्किल से गुजर होता था। अतएव जहाँ अवसर और सुविधा देखते थे, वहीं रिश्वत लेने में उच्च न था। उन्होंने यह वृत्तान्त ऐसे सरल और नम्र भाव से कहा कि [ १८४ ]प्रेमशकर को उनसे स्नेह-सा हो गया । वहाँ से उठे तो ६ बज चुके थे। चौपाल की तरफ जाते हुए दुखरने भगत के द्वार पर पहुँचे तो एक विचित्र दृश्य देखा। गाँव के कितने ही आदमी जमा थे। और भगत उनके बीच में खड़े हाथ में शालिग्राम की मूर्ति लिए उन्मत्तों की भाँति वहक-वहक कर कह रहे थे--यह शालिग्राम हैं। अपने भक्तो पर बडी दया रखते हैं? सदा उनकी रक्षा किया करते हैं। इन्हें मोहन भोग बहुत अच्छा लगता है! कपूर और धूप की महक बहुत अच्छी लगती हैं। पूछो, मैंने इनकी कौन सेवा नहीं की। आप सत्तू खाता था, बच्चे चवेना चबाते थे, इन्हें मोहनभोग का भोग लगता था। इनके लिए जा कर कोसो से फूल और तुलसीदल लाता थी। अपने लिए तमाखू चाहे न रहे, पर इनके लिए कपूर और धूप की फिकिर करता था। इनका भोग लगा के तब दूसरा काम करता था। घर में कोई मरता ही क्यो न हो, पर इनकी पूजा-अर्चा किये बिना कभी न उठता था । कोई दिन ऐसा न हुआ कि ठाकुरद्वारे में जाकर चरणामृत न पिया हो, आरती न ली हो, रामायण का पाठ न किया हो। यह भगती और सर्वा क्या इसलिए कि मुझ पर जूते पड़ें, हकनाहक मारा जाऊँ, चमार बनूँ । धिक्कार मुझ पर जो फिर ऐसे ठाकुर का नाम लूँ, जो इन्हें अपने घर में रखूँ, और फिर इनकी पूजा करूँ । हाँ, मुझे धिक्कार है! ज्ञानियों ने सच कहा है कि यह अपने भगतो के वैरी हैं, उनका अपमान कराते है, उनकी जड़ खोदते है, और उससे प्रसन्न रहते है जो इनका अपमान करे। मैं अब तक भूला हुआ था। बोलो मनोहर, क्या कहते हो, इन्हे कुएँ में फेकूँ या घूर पर डाल दूँ, जहाँ इन पर रोज मनो कूडा पडा करे या राह में फेंक दूँ जहाँ सवेरे से साँझ तक इन पर लाते पड़ती रहे ?

मनोहर--मैया, तुम जान कर अनजान बनते हो। वह संसार के मालिक हैं, उनकी महिमा अपरम्पार है।

कादिर--कौन जानता है, उनकी क्या मरजी है ? बुराई से भलाई करते हैं। इतना मन न छोटा करो।

दुखरन--(हँस कर) यह सब मन को समझाने का ढकोसला है। कादिर मियाँ, यह पत्थर का ढेला है, निरा मिट्टी का पिंडा। मैं अब तक भूल में पड़ा हुआ था। समझता था, इसकी उपासना करने से मेरे लोक-परलोक दोनो बन जायँगे। आज आँखो के सामने से वह परदा हट गया। यह निरा मिट्टी का ढेला है। यह लो महाराज, जाओ जहाँ तुम्हारा जी चाहे। तुम्हारी यहीं पूजा है। उन्तालीस साल की भगती का तुमने मुझे जो बदला दिया है, मैं भी तुम्हें उसी को बदला देता हूँ।

यह कह कर भगत ने शालिग्राम की प्रतिमा को जोर से एक ओर फेंक दिया। न जाने कहाँ जा कर गिरी। फिर दौंडे हुए घर में गये और पूजा की पिटारी लिए हुए बाहर निकले। मनोहर लपका कि पिटारी उनके हाथ से छीन लूँ। लेकिन भगत ने उसे अपनी ओर आने देख कर बडी फुर्ती से पिटारी खोली और उसे हवा में उछाल दी। सभी सामग्रियाँ इधर-उधर फैल गयी। तीस वर्ष की धर्म निष्ठा और आत्मिक श्रद्धा [ १८५ ]नष्ट हो गयी । धार्मिक विश्वास की दीवार हिल गयी और उसकी ईंटे बिखर गयी।

कितना हृदय-विदारक दृश्य था। प्रेमशंकर का हृदय गद्गद् हो गया। भगवान् ! इस असभ्य, अशिक्षित और दरिद्र मनुष्य का इतना आत्माभिमान। इसे अपमान ने इतना मर्माहत कर दिया। कौन कहता है, गॅवारो में यह भावना निर्जीव हो जाती है? कितना दारुण आघात है जिसने भक्ति, विश्वास तथा आत्मगौरव को नष्ट कर डाला!

प्रेमशकर सब आदमियों के पीछे खडे थे। किसी ने उन्हें नहीं देखा। वह वही से चौपाल चले गये। वहाँ पलँग बिछा तैयार था। डपटसिंह चौका लगाते थे, कल्लू पानी भरते थे। उन्हें देखते ही गौस खाँ झुक कर आदाब अर्ज बजा लाये और कुछ सकुचाते हुए बोले, हुजूर को तहसीलदार साहब के यहाँ बड़ी देर हो गयी।

प्रेमशंकर--हाँ, इधर-उधर की बातें करने लगे। क्यो, यहाँ कहार नहीं है क्या? य लोग क्यों पानी भर रहे हैं। उसे बुलाइए, मुनासिब मजदूरी दी जायगी।

गौस खाँ--हुजूर, कहार तो चार घर थे, लेकिन सब उजड़ गये। अब एक आदमी भी नही है।

प्रेमशंकर--यह क्यो ?

गौस खाँ--अब हुजूर से क्या बतलाऊँ, हमी लोगो की शरारत और जुल्म से । यहाँ हमेशा तीन-चार चपरासी रहते है। एक-एक के लिए एक-एक खिदमतगार चाहिए । ओर मेरे लिए तो जितने खिदमतगार हो उतने थोड़े हैं। बेचारे सुबह से ही पकड़ लिए जाते थे, शाम को छुट्टी मिलती थी। कुछ खाने को पा गये तो पा गये, नहीं तो भूखे ही लौट जाते थे। आखिर सब के सब भाग खड़े हुए, कोई कलकत्ता गया, कोई रगून। अपने बाल बच्चों को भी लेते गये। अब यह हाल है कि अपने ही हाथो बर्तन तक धोने पड़ते है।

प्रेमशंकर--आप लोग इन गरीबो को इतना सताते क्यों हैं? अभी तहसीलदार साहब लश्करवालों की सारी बेइन्साफियो का इलज़ाम आपके ही सिर मढ रहे थे।

गौस खाँ--हुजूर तो फरिस्ते हैं, लेकिन हमारे छोटे सरकार को ऐसा ही हुक्म है। आजकल खेतो में बार-बार ताकीद करते हैं कि गाँव में एक भी दखलकार असामी न रहने पाये। हुजूर का नमक खाता हूँ तो हुजूर के हुक्म की तामील करना मेरा फर्ज है, वरना खुदाताला को क्या मुँह दिखलाऊँगा। इसीलिए मुझे इन बेकसो पर सभी तरह की सख्तियाँ करनी पड़ती है। कही मुकदमे खड़े कर दिये, कही बेगार में फँसा दिया, कहीं आपस में लड़ा दिया। कानून का हुक्म है कि आदमियों को लगान देते ही पाई-पाई की रसीद दी जाय, लेकिन मैं सिर्फ उन्ही लोगो को रसीद देता हूँ जो जरा चालाक हैं, गॅवारो को यों ही टाल देता हूँ। छोटे सरकार का बकाया पर इतना जोर है कि एक पाई भी बाकी रहे तो नालिश कर दो। कितने ही असामी तो नालिश से तंग आ कर निकल भागे। मेरे लिए तो जैसे छोटे सरकार हैं वैसे हुजूर भी हैं। आपसे क्या छिपाऊँ ? इस तरह की धाँधालियो में हम लोगों को भी गुजर-बसर हो जाता है, नहीं तो इस थोड़ी सी आमदनी में गुजर होना मुश्किल था। [ १८६ ]

इतने में बिसेसर, मनोहर, कादिर खाँ आदि भी आ गये और आज का वृत्तान्त कहने लगे। मनोहर दूघ लाये, कल्लू ने दही पहुँचाया। सभी प्रेमशंकर के सेवा सत्कार में तत्पर थे। जब वह भोजन करके लेटे तो लोगों ने आपस में सलाह की कि बाबू साहब को रामायण सुनायी जाय। बिसेसर साह अपने घर से ढोल-मजीरा लाये। कादिर ने ढोल लिया। मजीरे बजने लगे और रामायण का गान होने लगा। प्रेमशंकर को हिन्दी भाषा का अभ्यास न था और शायद ही कोई चौपाई उनकी समझ में आती थी, पर वह इन देहातियों के विशुद्ध धर्मानुराग का आनन्द उठा रहे थे। कितने निष्कपट, सरल-हृदय, साधु लोग हैं। इतने कष्ट झेलते हैं, इतना अपमान सहते हैं, लेकिन मनोमालिन्य का कहीं नाम नहीं। इस समय, सभी आमोद के नशे में चूर हो रहे हैं।

रामायण समाप्त हुई तो कल्लू बोला, कादिर चाचा, अब तुम्हारी कुछ हो जाय।

कादिर ने बजाते हुए कहा, गा तो रहे हो, क्या इतनी जल्दी थक गये।

मनोहर—नहीं भैया, अब अपनी कोई अच्छी-सी चीज सुना दो। बहुत दिन हुए नहीं सुना, फिर न जाने कब बैठक हो । सरकार, ऐसा गायक इधर कई गाँव में नहीं है।

कादिर—मेरे गँवारू गाने में सरकार को क्या मजा आयेगा?

प्रेमांकर—नहीं-नहीं, मैं तुम्हारा गाना बड़े शौक से सुनूँगा।

कादिर—हुजूर, गाते क्या हैं रो लेते हैं। आपका हुक्म कैसे टालें?

यह कह कर कादिर खाँ ने ढोल का स्वर मिलाया और यह भजन गाने लगा—

मैं अपने राम को रिझाऊँ।
जंगल जाऊँ न बिरछा छेड़ू, ना कोई डार सताऊँ।
पात-पात में है अविनासी, वाही में दरस कराऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ।
ओखद खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई बैद बुलाऊँ।
पूरन बैद मिले अविनासी, ताहि को नब्ज दिखाऊँ।
मैं अपने राम को रिझाऊँ।

कादिर के गले में यद्यपि लोच और माधुर्य न था, पर ताल और स्वर ठीक था। कादिर इस विद्या में चतुर था। प्रेमशंकर भजन सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। इसका एक-एक शब्द भक्ति और उद्गार में डूबा हुआ था। व्यवसायी गायकों की नीरसता और शुष्कता की जगह अनुरागमय, भाव-रस परिपूर्ण था।

गाना समाप्त हुआ तो एक नकल की ठहरी। कल्लू इस कला में निपुण था। कादिर मियाँ राजा बने, कल्लू मंत्री, बिसेसर साह सेठ बन गये। डपटसिह ने एक चादर ओढ़ ली और रानी बन बैठे। राजकुमार की कमी थी। लोग सोचने लगे कि यह भाग किसे दिया जायं। प्रेमशंकर ने हँस कर कहा कोई हरज न हो तो मुझे राजकुमार बना दो। यह सुन कर सब के सब फूल उठे। नकल शुरू हो गयी। [ १८७ ]

पहला अंक

राजा—हाय! हाय! वैद्यो ने जवाब दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकटरो ने जबाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना । सब के सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे प्रजा पर न जाने क्या बीतेगी! राजकुमार अल्हड नादान है, उसकी संगत अच्छी नहीं है। (प्रेमशंकर की ओर कटाक्ष से देख कर) किसानो से मेल रखता है। उसके पीछे सरकारी आदमियो से रार करता है। जिन दीन-दुखी रोगियों की परछाई से भी डाकटर लोग डरते हैं। उनकी दवा-दारू करता है। उसे अपनी जान का, धन का तनिक भी लोभ नहीं है। यह इतना बड़ा राज कैसे सँभालेगा? अत्याचारियो को कैसे दंड देगा? हाय, मेरी प्यारी रानी, जिससे मैंने अभी महीने भर हुए ब्याह किया है, मैरे बिना कैसे जियेगी? कौन उससे प्रेम करेगा? हाय!

रानी—स्वामी जी, मैं सोक में मर जाऊँगी। यह उजले सन के-से बाल, यह पोपला मुँह कहाँ देखूँगी (कटाक्ष भाव से) किसको गोद में लूँगी? किससे ठुनकूँगी? अब मैं किसी तरह न बचूँगी।

राजा की साँस उखड़ जाती है, आँखे पथरा जाती हैं, नाडी छूट जाती है। रानी छाती पीट कर रोने लगती है। दरबार मै हाहाकार मच जाता है।

राजा के कानो में आकाशवाणी हौती हैं—हम तुझे एक घंटे की मोहलत देते हैं, अगर तुझे तीन मनुष्य ऐसे मिल जायें जो दिल से तेरे जीने की इच्छा रखते हो तो तू अमर हो जायेगा।

राजा सचेत हो जाता है, उसके मुखारविन्द पर जीवन-ज्योति झलकने लगती है। वह प्रसन्नमुख उठ बैठता है और आप ही आप कहता है, अब मैं अमर हो गया, अकटक राज्य करूंगा, शत्रुओं का नाश कर दूंगा। मैरे राज्य में ऐसा कौन प्राणी है जो हृदय से मेरे जीने की इच्छा न रखता हो। तीन नहीं, तीन लाख आदमी बात-बात मै निकल आयेंगे।

दूसरा अंक

(राजा एक साधारण नागरिक के रूप में आप ही आप)

समय कम है, ऐसे तीन सज्जनो के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बार रक्षा की है और उसे कितना लाभ पहुँचाया है। यह सेठ जी का घर आ गया। सैठ जी, सैठ जी! जरा बाहर आओ।

सेठ—क्या है? इतनी रात गये कौन काम है?

राजा—कुछ नही, अपने स्वर्गवासी राजा का यश गा कर उनकी आत्मा को शाति देना चाहता हूँ। कैसे धर्मात्मा, प्रजा-प्रिय पुरुष थे! उनका परलोक हो जाने से सारे [ १८८ ]देश में अन्धकार-सा छा गया है। प्रजा उनको कभी न भूलेगी। आपसे तो उनकी बड़ी मैत्री थी, आपको तो और भी दुःख हो रहा होगा?

सेठ–मुझे उनके राज्य से कौन-सा सुख था कि अव दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनकी बदौलत लाखों रुपये साधु संतों को खिलाने पड़ते थे।

राजा-(मन में) हाय! इस सेठ पर मुझे कितना भरोसा था! यह मेरे इशारे पर लाखों रुपये दान कर दिया करता था। सच का है, बनिए किसी के मित्र नहीं होते। मैं जन्म भर इसके साथ रहा, पर इसे पहचान न सका। अब चलें मंत्री के पास, वह बड़ा स्वामि-भक्त सज्जन पुरुष हैं। उसके साथ मैंने बड़े-बड़े सलूक किये हैं। यह उसका भवन आ गया। शायद अभी दरबार से आ रहा है। मन्त्री जी, कहिए क्या राज दरबार से आ रहे हैं? इस समय तो दरबार में शोक मनाया जा रहा होगा। ऐसे धर्मात्मा राजा की मृत्यु पर जितना शोक किया जाय वह थोड़ा है। अब फिर ऐसा राजा न होगा। आपको तो बहुत ही दुःख हो रहा होगा?

मन्त्री-मुझे उनसे कौन सा सुख मिलता था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनके मारे साँस लेने की भी छुट्टी न मिलती थी! प्रजा के पीछे आप मरते थे, मुझे भी मारते थे। रात-दिन कसर कसे खड़े रहना पड़ता था।

राजा---(आप ही आप) हाय! इस परम हितैषी सेवक ने भी धोखा दिया। मेरी आँख बन्द होते ही सारा संसार मेरा बैरी हो गया। ऐसे-ऐसे आदमी धोखा दे रहे। हैं जो मेरे पसीने की जगह लोहू बहाने को तैयार रहते थे। तीन आदमी भी ऐसे नहीं, जिन्हें मेरा जीना पसन्द हो। जब दोनों निकल गये तो दूसरों से क्या आशा रखूँ? अब रानी के पास जाता हूँ। वह साध्वी सती स्त्री है। उसकी जितनी ही सखियाँ हैं। सभी मुझ पर प्राण देती थीं। वहाँ मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी। अब केवल थोड़ासा समय और रह गया है। यह राजभवन आ गया। रानी अकेली मन मारे शोक में बैठी हुई है। महारानी जी, अब धीरज से काम लीजिए, आपके स्वामी ऐसे प्रताप थे कि संसार में सदा उनका लोग यश गाया करेंगे। देह त्याग करके वह अमर हो गये।

रानी–अमर नहीं, पत्थर हो गये। उनसे संसार को चाहे जो सुख मिला हो, मुझे तो कोई सुख न मिला! उनके साथ बैठते लज्जा आती थी। मैं उनका क्या यश गाऊँ? मैं तो उसी दिन विधवा हो गयी जिस दिन उनसे विवाह हुआ। वह जीते थे तब भी राँड़ थी, मर गये तब भी राँड़ हूँ। देखो तो कुँवर साहब कैसे सजीले, बाँके जवान हैं। मेरे योग्य यह थे, न कि वैसा खूसट बुड्ढा, जिसके मुँह में दाँत तक नहीं थे।

यह सुनते ही राजा एक लम्बी साँस लेता है और मूर्छित हो कर गिर पड़ता है।

(अभिनय समाप्त होता है)

प्रेमशंकर को इन गँवारों के अभिनय-कौशल पर विस्मय हुआ? बनावट का कहीं नाम न था। प्रत्येक व्यक्ति ने अपना-अपना भाग स्वाभाविक रीति से पूरा किया। यद्यपि न परदे थे न कोई दूसरा सामान, तथापि अभिनय रोचक और मनोरंजक था। [ १८९ ] सवेरे प्रेमशंकर टहलते हुए पड़ाव की और चले तो देखा कि लश्कर कूच की तैयारी कर रहा है। खेमे उखड़ रहे है। गाड़ियों पर असबाब लद रहा है। साहब बहादुर की मोटर तैयार है और बिसेसर साह तहसीलदार के सामने कागज का एक पुलिन्दा लिए खड़े है। तेली, तमोली, बूचड़ आदि भी एक पेड़ के नीचे अभियुक्तों की भाँति दाम वसूल करने के लिए बैठे हुए है। प्रेमशंकर ने तहसीलदार से हाथ मिलाया और बैठ कर तमाशा देखने लगे।

तहसीलदार—कहाँ हैं गाड़ीवान लोग? बुलाओ, रसद का हिसाब करें। इस पर एक गाड़ीवान ने कहा, हजूर यहाँ रसद मिली है कि हमारी जान मारी गयी है। आटे में इस बेइमान बनिए ने न जाने क्या मिला दिया है कि उसी दिन से पेट में दर्द हो रहा है। घी में तेल मिलाया था, उस पर हिसाब करने को कहता है। अभी साहब से कह दें तो बच्चू को लेने के देने पड जायें।

अर्दली के कई चपरासी बोले, यह बनिया गोली मार देने के लायक है। ऐसा खराब आटा उम्र भर नहीं खाया। न जाने क्या चीज मिला की है कि हजम ही नहीं होता। घी ऐसा बदबू करता था कि दाल खाते न बनती थी। इसपर तो जुर्माना होना चाहिए। उल्टे हिसाब करने को कहता है।

एक कानस्टेबिल महाशय ने कहा, हम इसे खूब जानते हैं, छटा हुआ है। चीनी दी तो उसमे आधी बालू, घी में आधी चुइयाँ, आटे में आधा चोकर, दाल में आधा कूड़ा। इसे तो ऐसी जगह मारे जहाँ पानी न मिले।

कई साईस बोले, घोड़ो को जो दाना दिया है वह बिल्कुल घुना हुआ, आधा चना आधा चोकर। घोडौं ने सूंघा तक नहीं। साहब से कह दें तो अभी हंटर पड़ने लगे।

तहसीलदार ये सब शिकायते पहले क्यों नहीं की?

कई अदिमी-हुजूर, रोज तो हाय-हाय कर रहे है।

तहसीलदार-(प्रेमशंकर की ओर देख कर मुझसे किसी ने भी नहीं कहा। अब यह सब मैं कुछ नहीं सुनूंगा। जिसके जिम्मे जो कुछ निकले, कौड़ी-कोड़ी दे दो। साह जी, अपना हिसाब निकालो।

बिसेसर--मौला बख्या अर्दली, आटा ऽ३, घी ऽ, चावल ऽ२, दाल ऽ१, मसाला ऽ1, तमाखू ऽ1, कत्था-सुपारी ऽ३, चीनी कुछ ३ रुपये।

तहसीलदार कहाँ है मौला बख्श? दाम दे कर रसीद लो।

एक अर्दली-इस नाम का हमारे यहाँ कोई आदमी नहीं है।

बिसेसर है क्यों नही? लम्बे-लम्बे हैं, छोटी दाढी है, मुंह पर शीतला का दाग है, सामने के दो-तीन दाँत टूटे हैं।

कई अर्दली-इस हुलिए को यहाँ आदमी ही नहीं। पहचान हममें से कौन है?

बिसेसर-कहीं चल दिये होगें और क्या?

तहसीलदार—अच्छा दूसरा नाम बोलो। [ १९० ] बिसेसर—धन्नू अहीर, चावल ऽ३, आटा ऽ२, धी ऽ1, खली ऽ४, दाना और धोकर ऽ८, तमाखू—कुल दो रुपये।

तहसीलदार—कहाँ है धन्नू अहीर निकाल रुपये।

एक अर्दली—वह तो पहर रात रहे साहब का बैरा लाद कर चला गया।

तहसीलदार—हिसाब नहीं चुकाया और चल दिया। अच्छा नाजिर जी उसका नाम लिख लीजिए। कहाँ जाते है बच्चू एक-एक पाई वसूल कर लूंगा।

प्रेमशंकर—यह लश्करवालों की बड़ी ज्यादती है।

तहसीलदार—कुछ न पूछिए, कमबख्त खा-खा कर चल देते हैं, बदनामी बेचारे तहसीलदार की होती हैं।

बिसेसर साह ने फिर ऐसा ही व्यौरा पढ़ सुनाया। यह जयराम चपरासी की पुर्जा था। जयराम उपस्थित थे। आगे बढ़ कर बोले, क्यो रे धी ऽ11। लिया था कि?

बिसेसर—कागद में तो लिखा हुआ है।

जयराम-झूठ लिखा है, सोलही आने झूठ।

तहसीलदार-अच्छा ऽ का दाम दो, या कुछ भी नहीं देना चाहते?

यह अमेला नौ-दस बजे तक रहा। एक तिहाई से अधिक आदमी बिना हिसाब चुकाये ही प्रस्थान कर चुके थे। एक चौथाई से अधिक आदमी लापता हो गये। आधे आदमी मौजूद थे, लेकिन उन्हें भी हिसाब के ठीक होने में सन्देह था। ऐसे दस ही पाँच सज्जन निकले जिन्होंने खरे दाम चुका दिये हों। जब सब चिटे समाप्त हो गयी तो बिसेसर साह ने उन्हें ला कर तहसीलदार के सामने पटक दिया और बोला, मैं और किसी को नहीं जानता, एक हुजूर को जानता हूँ और हुजूर के हुक्म से मैंने रसद दी है।

तहसीलदार-मैं क्या अपनी गिरह से दूँगा?

बिसेसर- हुजूर जैसे चाहें है या दिला है। २०० रु० में यह ७० रु० मिले है। मैं टके का आदमी इतना धक्का कैसे उठाऊँगा? महाजन मेरा घर बिकवा लेगा।

तहसीलदार—अच्छी बात है, तुम्हारे दाम मिलेंगे। नाजिर जी, आप चपरासियों को ले कर जाइए, इसके बही-खाते उठा लाइए और खुद इसकी सालाना आमदनी का हिसाब कीजिए। देखिए, अभी कलई खुली जाती है। मैं इसके सब रुपये दूंगा, पर इसी से ले कर। बच्चू, दो हजार रुपये साल नफा करते हो, उस पर एक बार १०० रू का घाटा हुआ तो दम निकल गया?

कहाँ तो बिसेसर साह इतने गर्म हो रहे थे, कहाँ यह धमकी सुनते ही भीगी बिल्ली बन गये। बोले, हाँ हुजूर; सब हिसाब-किताब जाँचे ले। इस गाँव में ऐसा कौन रोजगार है कि दो हजार का नफा हो जायगा? खाने भर को मिल जाय यही बहुत है।

तहसीलदार---और यह आस पास के देहात की अनाज किसके घर में भरा जाता है? तुम समझते हो कि हाकिमों को खबर ही नहीं होती। यहाँ इतना बता सकते हैं कि आज तुम्हारे घर में क्या पक रहा है। यह रिआयत इसी दिन के लिए करते है, कुछ तुम्हारी सुरत देखने के लिए नहीं। [ १९१ ]

बिसेसर साह चुपके से सरक गये । तेल-तमोली ने भी देखा कि यहाँ मिलता-जुलता तो कुछ नही दीखता, उल्टे और पलेथन लगने का भय है तो उन्होने भी अपनी अपनी राह लीं। तहसीलदार ने प्रेमशकर की ओर देख कर कहा, देखा आपने टैक्स के नाम से इन सबो की जान निकल जाती हैं। मैं जानता हूँ कि इसकी सालाना आमदनी ज्यादा से ज्यादा १००० रु० होगी। लेकिन चाहे इस तरह कितना ही नुकसान बरदाश्त कर लें, अपने बही-खाते न दिखायेंगे। यह इनकी आदत हैं।

प्रेमशंकर--खैर, यह तो अपनी चाल-बाजी की बदौलत नुकसान से बच गया, मगर ओर बेचारे तो मुफ्त में पिस गये, उस पर जलील हुए वह अलग।

तहसीलदार--जनाब, इसकी दवा मेरे पास नहीं है। जब तक कौम को आप लोग एक सिरे से जगा न देंगे इस तरह के हथकडो को बन्द होना मुश्किल है। जाँह दिलो मे इतनी खुदगरजी समायी हुई है और जहाँ रियाया इतनी कच्ची हैं वहाँ किसी तरह की इसलाह नही हो सकती। (मुस्करा कर) हम लोग एक तौर पर आपके मददगार है। रियाया को सता कर, पीस कर मजबूत बनाते हैं और आप जैसे कौमी हमदर्दो के लिए मैदान साफ करते है।