प्रेमाश्रम/३९

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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३९

सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस बारह वस्त्र विहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और तालिकवारी की रट लगाया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ याद करने लगते तो कानों पड़ी आवाज न सुनायी देती। मालूम होता, बाजार लगा हुआ हो। इस हरवोग मे लौंडे गालियां बकते, एक दूसरे को मुँह चिढ़ाते, चुटकियाँ काटते। यदि कोई लड़का शिकायत करता तो सब के सब मिल कर ऐसा कोलाहल मचाते कि उसकी आवाज ही दब जाती थी। बरामदे के मध्य में मौलवी साहब का तख्त था। उस पर [ २५१ ]एक दढियल मौलवी लुगी बाँधे, एक मैला-कुचैला तकिया लगायें अपना मदरिया पिया करते और इस कलरव में भी शान्तिपूर्वक झपकियाँ लेते रहते थे। उन्हे हुक्का पीने का रोग था। एक किनारे अँगीठी मे उपले सुलगा करते थे और चिमटा पड़ा रहता था। चिलम भरना बालको के मनोरंजन की मुख्य सामग्री थी। उनकी शिक्षोन्नति चाहे बहुत प्रशंसा के योग्य न हो, लेकिन गुरु-सेवा में सबके सब निपुण थे। यहाँ सैयद ईजाद हुसेन का "इत्तहादी यतीमखाना" था।

किन्तु बरामदे के ऊपरवाले कमरे में कुछ और ही दृश्य था। साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, कालीन और मसनद भी करीने से सजे हुए थे। पानदान, सदान, उगालदान आदि मौके से रखे हुए थे। एक कोने में नमाज पढ़ने की दरी बिछी हुई थी। तस्वीह खूटी पर लटक रही थी। छत मे झालरदार छतगीर थी, जिसकी शोभा रंगीन हाँसियों से और भी बढ़ गयी थी। दीवारें बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अलंकृत थी।

प्रातः काल था। मिर्जा साहब मसनद लगाये हारमोनियम बजा रहे थे। उनके सम्मुख तीन छोटी छोटी सुन्दर बालिकाएँ बैठी हुई डाक्टर इकबाल की सुविख्यात रचना शिवाजी' के शेरो को मधुर स्वर में गा रही थी। ईजाद हुसेन स्वय उनके साथ गा कर ताल-स्वर बताते जाते थे। यह "इत्तहादी यतीमखाने” की लडकियाँ बतायी जाती थी, किन्तु वास्तव में एक उन्हीं की पुत्री और दो भाजियाँ थी। 'इत्तहाद' के प्रचार में यह त्रिमूर्ति लोगो को वशीभूत कर लेती थी। एक घटे के अभ्यास के बाद मिर्जा साहब ने प्रसन्न हो सगर्व नेत्रों से लडकियों को देखा और उन्हें छुट्टी दी। इसके बाद लड़को की बारी आयी। किन्तु यह मकतबवाले, दुर्बल, वस्त्रहीन बालक न थे। थे तो चार हो, पर चारों स्फुति और सजीवता की मूर्ति थे। सुन्दर, सुकुमार, सवस्त्रित, चहकते हुए घर में से आये और फर्श पर बैठ गये। मिर्जा साहब ने फिर हारमोनियम के स्वर मिलाये और लड़को ने हक्कानी में एक गजल गानी शुरू की, जो स्वयं मिर्जा साहब की सुरचना थी। इसमे हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक सुन्दर वाटिका से उपमा दी गयी थी और जनता से अत्यन्त करुण और प्रभावयुक्त शब्दों में प्रेरणा की गयी थी कि वह इस बाग को अपनाये, उसकी रमणीकता का आनन्द उठायें और द्वेष तथा वैमनस्य की कटकमय झाड़ियों में न उलझे। लड़को के सुकोमल, ललित स्वरों मे यह गजब ढाती थी। भावों को व्यक्त करने में भी यह बहुत चतुर थे। यह 'इत्तहादी यतीमखाने के लडके बताये जाते थे, किन्तु वास्तव में यह मिर्जा साहब की दोनों बहनों के पुत्र थे।

मिर्जा साहब अभी गानाभ्यास में मग्न थे कि इतने में एक आदमी नीचे से आया और सामने खड़ा हो कर बोला, लाला गोपालदास ने भेजा है और कहा है आज हिसाब चुकता न हो गया तो कल नालिश कर दी जायगी। कपड़े का व्यवहार महीने दो महीने का है और आपको कपड़े लिये तीन साल से ज्यादा हो गये।

मिर्जा साहब ने ऐसा मुँह बनाया, मानों समस्त ससार का चिन्ता-भार उन्हीं के सिर पर लदा हुआ हो और बोले, नालिश क्यों करेंगे? कह दो थोड़ा सा जहर भेज दे, खा कर मर जाऊँ। किसी तरह दुनियाँ से नजात मिले। उन्हें तो खुदा ने लाखों दिये [ २५२ ]
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प्रेमाश्रम


हैं, घर में रुपयो के ढेर लगे हुए है। उन्हें क्या खवर कि यहाँ जान पर क्या गुजर रही है? कुन्बा वड़ा, आमदनी को कोई जरिया नही, दुनिया चालाक हत्थे नही चढती, क्या करूँ! मगर इन्शा अल्लाह— एक महीने के अन्दर आ कर सब नया-पुराना हिसाब साफ कर दूँँगा। अबकी मुझे वह चाल सुझी हैं जो कभी पट ही नही पड सकती। इन लडको की गजलें सुन कर मजलिसे फडक उठेगी। जा कर सैठ जी से कह दो, जहाँ इतने दिन सब्र किया है, एक महीना और करें।

प्यादे ने हँस कर कहा, आप तो मिर्जा साहब, ऐसे ही बातें करके टाल देते हैं और वहाँ मुझपर लताड पड़ती है। मुनीम जी कहते हैं, तुम जाते ही न होंगे या कुछ ले-दे के चले आते होगे!

मिर्जा साहब ने एक चवन्नी उसके भेंट की। उसके चले जाने के बाद उन्होंने मौलवी साहब को बुलाया और बोले, क्यो मियाँ अमजद, मैंने तुमसे ताकीद कर दी थी कि कोई आदमी ऊपर न आने पाये। इस प्यादे को क्यो आने दिया? मुँँह में दही जमा हुआ था? इतना कहते न बनता था कि कही बाहर गये हुए हैं। अगर इस तरह तुम लोगों को आने दोगे तो सुबह से शाम तक ताँता लगा रहे। आखिर तुम किस मरज की दवा हो?

अमजद— मैं तो उससे बार-बार कहता रहा कि मियाँ कहीं बाहर गये हुए हैं, लेकिन वह जबरदस्ती जीने पर चढ़ आया। क्या करता, उससे क्या फौजदारी करता?

मिर्जा— वेशक उसे धक्का दे कर हटा देना चाहिए था।

अमजद– तो जनाव रुग्वी रोटी और पतली दाल में इतनी ताकत नही होती, उसपर दिमाग लौड़े चर जाने हैं। हाथ-पाई किस बूते पर करूँँ? कभी सालन तक नसीब नहीं होता। दरवाजे पर पड़ा-पड़ा मसाले और प्याज की खुशबू लिया करता हूँ। सारा घर पुलाव और जरदे उडाता है, यहाँ खुश्क रोटियों पर ही वसर है। बस्तरवान पर खाने को तरस गया। रोज वही मिट्टी की प्याली सामने आ जाती है। मुझे भी तर माल खिलाइए। फिर देखूँ, कौन घर में कदम रखता है।

मिर्जा— लाहौल विलाकूवत, तुम हमेशा पैट का ही रोना रोते रहे। अरे मियाँ, खुदा का शुक्र करो कि बैठे-बैठे रौटियाँ तो तोड़ने को मिल जाती हैं, बर्ना इस वक्त कही फक-फक फाँय-फाँँय करते होते।

अमजद— आपसे दिल की बात कहता हूँ तो आप गालियाँ देने लगते है। लीजिए, जाता हूँ, अब अगर सूरत दिखाऊँ तो समझिएगा कोई कमीना था। खुदा ने मुँह दिया तो रोजी भी देगा। इस सुदेशी के जमाने में मैं भूख न मरूँँगा।

यह कह मियाँँ अमजद सजल नेत्र हो उतरने लगे, कि ईजाद हुसेन ने फिर बुलाया और नम्रता से बोले, आप तो बस जरा सी बात पर बिगड जाते हैं। देखते नही हो यहाँ घर में कितना खर्च है? औलाद की कसरत खुदा की मार है, उस पर रिस्तेदारो का बटोर टिड्डियों का दल है जो आन की आन दरख्त ठूँठ कर देता है। क्या करूँ? औलाद की परवरिश फर्ज ही हैं और रिश्तेदारों से वैमुरीवत करना अपनी आदत नहीं। [ २५३ ]इस जाल में फंस कर तरह तरह की चाले चलता हूँ, तरह-तरह के स्वाँग भरता हैं, फिर भी चूल नहीं बैठती। अब ताकीद कर दूंगा कि जो कुछ पके वह आपको जरूर मिले। देखिए, अब कोई असर न आने पाये।

अमजद-मैंने तो कसम खा ली है।

ईनाद-अरे मियाँ कैसी बातें करते हो? ऐसी कस्मे दिन मे सैकड़ो बगर खाया करते हैं। जाइए देखिए, फिर कोई शैतान आया है।

मियाँ अमजद नीचें आये तो सचमुच एक शैतान खडा था। ठिगना कद, उग्र हुआ शरीर, श्याम वर्ण, तर्जव का नीचा कुरता पहने हुए। अमजद को देखते ही बोला मिर्जा जी से कह दो वफातीं आया है।

अमजद ने कड़क कर कहा–मिर्जा साहब कहीं बाहर तशरीफ ले गये हैं।

वफाती—मियां, क्यों झूठ बोलते हो? अभी गोपालदास का आदमी मिला था। कहता था ऊपरे कमरे में बैठे हुए हैं। इतनी जल्दी क्या उठ कर चले गये?

अमजद-उसने तुम्हे झांसा दिया होगा। मिर्जा साहब कल से ही नहीं है।

वफाती-तो मैं जरा ऊपर जा कर देख ही न आऊँ।

अमजद---ऊपर जाने का हुक्म नहीं है। बेमात बैठी होगी। यह कह कर बे जीने का द्वार रोक कर खड़े हो गये। वफाती ने उनका हाथ पकड़ कर अपनी और घसीट लिया और जीने पर चढ़ा। अमजद ने पीछे से उनको पकड़ लिया। वफाती ने झल्ला कर ऐसा झोका दिया कि मियाँ अमजद गिरे और लुढकते हुए नीचे आ गये। लौडों ने जोर से कहकहा मारा। वफाती ने ऊपर जा कर देखा तो मिर्जा साहब साक्षात् मसनद लगाये विराजमान हैं। बोला, वाह मिर्जा जी वाह, आफ्का निराला हाल है कि घर में बैठे रहते हैं और नीचे मियों अमजद कहते हैं, बाहर गये हुए हैं। अव भी दाम दीजिएगा या हशर के दिन ही हिसाब होगा? दौड़ते-दौड़ते तो पैरों मे छाले पड़ गये।

मिर्जी आह, इससे बेहतर क्या होगा। हश्र के दिन तुम्हारा कौड़ी-कौड़ी चुका हूँगा उस वक्त जिन्दगी भर की कमाई पास रहेगी, कोई दिक्कत न होगी।

वफाती-लाइए-लाइए, आज दिलवाइए, बरसो हो गये। आप यतीमखाने के नाम पर चारो तरफ से हजारों रुपये लाते हैं, मेरा क्यों नहीं देते है।

मिर्जा–मिरी, कैसी बातें करते हो? दुनिया ने ऐसी अन्धी है, न ऐसी अहमक। अद लोगों के दिल पत्थर हो गये हैं। कोई पसीजता नहीं। अगर इस तरह रुपये बरसते तो तकाजो मे ऐसा क्या मजा है जो उठाया करता? यह अपनी बेवसी है जो तुम लोगों से नादिम कराती है। खुदा के लिये एक माह और सब्र करो। दिसम्बर का महीना आने दो। जिस तरह क्वार और कातिक हकीमों के फस्ल के दिन होते है, उसी तरह दिसम्बर में हमारी भी फस्ल तैयार होती हैं। हर एक शहर मे जलसे होने लगते हैं। अबकी मैंने वह मन्त्र जगाया है जो कभी खाली जा ही नहीं सकता।

वफात-इस तरह हीला-हवाला करते तो आपको बरसो हो गये। अजि कुछ न कुछ पिछले हिसाब में तो दे दीजिए। [ २५४ ] मिर्जा–आज तो अगर हलाल भी कर डालो तो लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।

वफाती निराश हो कर चला गया। मिर्जा साहब ने अबकी जा कर जीने का द्वार भीतर से बन्द कर दिया और फिर हारमोनियम सँभाला कि अकस्मात् डाकिये ने पुकारा। मिर्जा साहब चिट्ठियों के लिए बहुत उत्सुक रहा करते थे। जा कर द्वार खोला और समाचार-पत्रों तथा चिट्ठियों का एक पुलिन्दा लिये प्रसन्न मुख ऊपर आये। पहला पत्र उनके पुत्र का था, जो प्रयाग में कानून पढ़ रहे थे। उन्होंने एक सूट और कानूनी पुस्तकों के लिए रुपये माँगे थे। मिर्जा ने झुंझला कर पत्र को पटक दिया। जब देखो, रुपयों का तकाजा, गोया यहाँ रुपये फलते हैं। दूसरा पत्र एक अनाथ बालक का था। मिर्जा जी ने उसे सन्दूक में रखा। तीसरा पुत्र एक सेवा-समिति का था। उसने 'इत्तहादी' अनाथालय के लिए २० रु० महीने की सहायता देने का निश्चय किया था। इस पत्र को पढ़ कर वे उछल पड़े और उसे कई बार आँखों से लगाया। इसके बाद समाचार पत्रों की बारी आयी। लेकिन मिर्जा जी की निगाह लेखों या समाचारों पर न थी। वह केवल 'इत्तहाद' अनाथालय की प्रशंसा के इच्छुक थे। पर इस विषय में उन्हें बड़ी निराशा हुई। किसी पत्र में भी इसकी चर्चा न देख पड़ी। सहसा उनकी निगाह एक ऐसी खबर पर पड़ी कि वह खुशी के मारे फड़क उठे! गोरखपुर में सनातन धर्मसभा का अधिवेशन होनेवाला था। ज्ञानशंकर प्रबन्धक मन्त्री थे। विद्वज्जनों से प्रार्थना की गयी थी कि वह उत्सव में सम्मिलित हो कर उसकी शोभा बढ़ायें। मिर्जा साहब यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।