प्रेमाश्रम/४०

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४०

महाशय ज्ञानशंकर को धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचिसी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह नरमी से काम लेते थे। निर्दिष्ट लगान के अतिरिक्त प्रत्येक असामी से ठाकुरद्वारे और धर्मशाले का चन्दा भी लिया जाता था; पर इस रकम को वह इतनी नम्रता से वसूल करते थे कि किसी को शिकायत न होती थी। अब वह एतराज, इजाफा और बकाये के मुकदमे बहुते कम दायर करते। असामियों को बैंक से नाम-मात्र व्याज ले कर रुपये देने और डेवढ़े सवाई की जगह केवल अष्टांश वसूल करते। इन कामों से जितना अवकाश मिलता उसका अधिकांश ठाकुरद्वारे और धर्मशाले की निगरानी में व्यय करते। दूर-दूर से कुशल कारीगर बुलाये गये थे जो पच्चीकारी, गुलकारी, चित्रांकण, कटाव और जड़ावे की कलाओं में निपुण थे। जयपुर से संगमर्मर की गाड़ियाँ भरी चली आती थीं। चुनार, ग्वालियर आदि स्थानों से तरह तरह के पत्थर मॅगाये जाते थे। ज्ञानशंकर की परम इच्छा थी कि यह दोनों इमारतें अद्वितीय हों और गायत्री तो यहाँ तक तैयार थी [ २५५ ]कि रियासत की सारी आमदनी निर्माणकार्य के ही भेट हो जाय तो चिन्ता नहीं। 'मैं केवल सीर की आमदनी पर निर्वाह कर लूंगी।' लेकिन ज्ञानशंकर आमदनी के ऐसेऐसे विधान ढूंढ निकालते थे कि इतनी सब कुछ व्यय होने पर भी रियासत की वार्षिक आय मे जरा भी कमी न होती थी। बड़े-बड़े ग्रीमों मे पाँच-छह बाजार लगवा दिये। दो-तीन नालो पर पुल बनवा दिये। कई कई जगह पानी को रोकने के लिए चाँध बँधवा दिये। सिंचाई की कल मंगा कर किराये पर लगाने लगे। तेल निकालने का एक बड़ा कारखाना खोल दिया। इन आयोजनों से इलाके का नफा घटने के बदले कुछ और बढ़ गया। गायत्री तो उनकी कार्यपटुता की इतनी कायल हो गयी थी कि किसी विषय में जबान न खोलती।

ज्ञानशंकर के आहार-व्यवहार, रग-ढंग में भी अब विशेष अन्तर दीख पड़ता था। सिर पर बड़े-बड़े कैश थे, बूद की जगह प्राय खडाऊँ, कोट के बदले एक ढीला-ढाला चुटनियों से नीचे तक का गेरुवे रंग मे रँगा हुआ कुरता पहनते थे। यह पहनावा उनके सौम्य रूप पर बहुत खिलता था। उनके मुखारविन्द पर अब एक दिव्य ज्योति आभासित होती थी और बातों मे अनुपम माधुर्यपूर्ण सरलता थी। अब तर्क और न्याय से उन्हें रुचि न थी। इस तरह बातें करते मानों उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया है। यदि कोई उनसे भक्ति या प्रेम के विषय में शंक करता तो वह उसका उत्तर एक मार्मिक मुस्कान से देते थे, जो हजारों दलीलो से अधिक प्रभावोत्पादक होती थी।

उनके दीवानखाने में अब कुरसियों और मेजों के स्थान पर एक साफ-सुथरा फर्श था, जिस पर मसनद और गाव तकिये लगे हुए थे। सामने एक चन्दन के सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर कृष्ण की बालमूर्ति विराजमान थी। कमरे में नित अगर की बत्तियाँ जला करती थी। उसके अन्दर जाते ही सुगन्धि है चित्त प्रसन्न हो जाता था। उसकी स्वच्छता और सादगी हृदय को भक्ति-भाव से परिपूर्ण कर देती थी। वह श्रीवलभसम्प्रदाय के अनुयायी थे। फूलों से, ललित गान से, सुरम्य दृश्यों से, काव्यमय भाव से उन्हें विशेष रुचि हो गयी थी, जो आध्यात्मिक विकास के लक्षण हैं। सौन्दर्योपासना ही उनके धर्म का प्रधान तत्व था। इस समय वह एक सितारिये से सितार बजाना सीखते थे और सितार पर सूर के पदो को सुन कर मस्त हो जाते थे।

गायत्री पर इस प्रेम-भक्ति का रंग और भी गाया चढ़ गया था। वह मीराबाई के सदृश कृष्ण की मूर्ति को स्नान कराती, वस्त्राभूषणों से सजाती, उनके लिए नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग बनाती और मूर्ति के सम्मुख अनुराग मग्न हो कर घंटो कीर्तन किया करती। आधी रात तक उनकी क्रीडाएँ और लीलाएँ सुनती और सुनाती। अब उसने पर्दा करना छोड़ दिया था। साधु-सन्तों के साथ बैठ कर उनकी प्रेम और ज्ञान की बातें सुना करती। लेकिन इस सत्संग से शान्ति मिलने के बदले उसका हृदय सदैव एक तृष्णा, एक चिरमय कल्पना से विकल रहता था। उसकी हृदय-वीणा एक अज्ञात आकाक्षा से गूंजती रहती थी। वह स्वय निश्चय न कर सकती थी कि मैं क्या चाहती हूँ। वास्तव में वह राधा और कृष्ण के प्रेम तत्व को समझने में असमर्थ थी। उसकी [ २५६ ] भौतिक दृष्टि उस प्रेम के ऐन्द्रिक स्वरूप से आगे न बढ़ सकती थी और उसका हृदय इन प्रेम-मुख कल्पनाओं से तृप्त न होता था। वह उन भावो को अनुभव करना चाहती थी। विरह और वियोग, ताप और व्यथा, मान और मनोवन, रास और विहार, आमोद और प्रमोद का प्रत्यक्ष स्वरुप देखना चाहती थी। पहले पति-प्रेम उसका सर्वस्व था। नदी अपने पेटे में ही हलकोरें लिया करती थी। अब उसे उस प्रेम का स्वरूप कुछ मिटा हुला, फीका, विकृत मालूम होता था। नदी उमड़ गयी थी। पति-भक्ति का वह बाँध जो कुल-मर्यादा और आत्मगौरव पर आरोपित था इस प्रेमभक्ति की बाढ़ से टूट गया। भक्ति लौकिक बंधनों को कब ध्यान में लाती है? वह अब उन भावनाओं और कल्पनो को बिना किसी आत्मिक संकोच के हृदय में स्थान देती थी, जिन्हें वह पहले अग्निज्वाला समझा करती थी। उसे अब केवल कृष्ण-क्रीडा के दर्शन-मात्र से सन्तोश न होता था। वह स्वयं कोई न कोई रास रचना चाहती थी। वह उन मनोभावो को वाणी से, कर्म से, व्यक्त करना चाहती थी जो उसके हृदयस्थल में पक्षियों की भति अवाध्य रूप से उड़ा करते थे। और उसका कृष्ण कौन था? वह स्वयं उसे स्वीकार करने का साहस न कर सकती थी, पर उसका स्वरूप ज्ञानशंकर से बहुत मिलता था। वह अपने कृष्ण को इसी रूप में प्रगट देखती थी।

गायत्रि का हृदय पहले भी उदार था। अब वह और भी दानशीला हो गयी थी। उसके यहां अब नित्य सदाव्रत चलता था और जितने साधु-सन्त आ जायँ सबको इच्छापूर्वक भोजन-वस्त्र दिया जाता था। वह देश की धार्मिक और पारमार्थिक संस्थाओं की भी यथासाध्य सहायता करती रहती थी। अब उसे सनातन धर्म से विशेष अनुराग हो गया। अतएव अब की जब सनातन-धर्म-मण्डल का वार्षिकोत्सव गोरखपुर मे होना निश्चय किया गया तब सभासदो ने बहुमत से रानी गायत्री को सभापति नियुक्त किया। यह पहला अवसर था कि यह सम्मान एक विदुषी महिला को प्राप्त हुआ। गायत्री को रानी की पदवी मिलने से भी इतनी खुशी न हुई थी जितनी इस सम्मान पद से हुई। उसने ज्ञानशंकर को, जो सभा के मन्त्री थे, बुलाया और अपने गहनों का सन्दूक दे कर बोली,इसमे ५० हजार के गहने है, मैं इन्हें सनातन धर्मसभा को समर्पण करती हूँ।

समाचार पत्रों में यह खबर छप गयी। तैयारियां होने लगी। मत्री जी का यह हाल था कि दिन को दिन और रात को रात न समझते। ऐसा विशाल सभा भवन कदाचित् ही पहले कभी बना हो। महमानों के आगत-स्वागत का ऐसा उत्तम प्रबन्ध कभी न किया गया था। उपदेशको के लिए एसे बहुमूल्य उपहार न रखे गये थे और न जनता ने कभी सभा से इतना अनुराग ही प्रकट किया था। स्वयसेवको के दल के दल भड़कीली वर्दिया पहने चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। पंडाल के अहाते में सैकडो दुकाने सजी हुई नजर आती थी। एक सर्कस और दो नाटक समितिया बुलायी गयी थी। सारे शहर में चहल-पहल देख पड़ती थी। बाजारों में भी विशेष सजावट और रौनक थी। सड़क पर दोनों तरफ वन्दनवारें और पताकाएँ शोभायमान थी।

जलने के एक दिन पहले उपदेशागण आने लगे। उनके लिए स्टेशन पे मोटरे [ २५७ ]खड़ी रहती थी। इनमे कितने ही महानुभाव सन्यासी थे। वह तिलकधारी पंडितों को तुच्छ समझते थे और मोटर पर बैठने के लिए अग्रसर हो जाते थे। एक सन्यासी महात्मा, जो विद्यारत्न की पदवी से अलकृत थे, मोटर न मिलने से इतनै अप्रसन्न हुए कि बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी फिटन पर न बैठे। सभा-भवन तक पैदल आये।

लेकिन जिस समारोह से सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ वह और किसी को नसीब न हुआ। जिस समय वह पाल मे पहुँचे, जलसा शुरू हो गया था और एक विद्वान् पडित जी विधवा-विवाह पर भाषण कर रहे थे। ऐसे निन्छ विषय पर गम्भीरता से विचार करना अनुपयुक्त समझ कर वह इसकी खूब हँसी उडा रहे थे और यथोचित हास्य और व्यग, धिक्कार और तिरस्कार से काम लेते थे।

'सज्जनों, यह कोई कल्पित घटना नही, मेरी आँखो देखी बात है। मेरे पड़ोस मे एक बाबू साहब रहते हैं। एक दिन वह अपनी माता से विधवा-विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। माता जी चुपचाप सुनती जाती थी। जब बाबू साहब की वार्ता समाप्त हुई तो माता ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, बेटा, मेरी एक विनती है, उसे मानो। क्यों मेरा भी किसी से पाणिग्रहण नहीं करा देते? देश भर की विधवाएँ सोहागिन हो जायेंगी तो मुझसे क्यों कर रहा जायगा? श्रोताओं ने प्रसन्न होकर तालियाँ बजायी, कहकहो से पंडाल गूंज उठा।

इतने में सैयद ईजाद हुसैन ने पंडाल में प्रवेश किया। आगे-आगे चार लड़के एक कतार में थे, दो हिन्दू, दो मुसलमान। हिन्दू बालको की धोतियाँ और कुरते पीले थे, मुसलमान बालको के कुरते और पाजामे हरे। इनके पीछे चार लड़कियो की पक्ति थी—दो हिन्दू और दो मुसलमान। उनके पहनाव में भी वहीं अन्तर था। सभी के हाथो में रंगीन झडियों थी, जिनपर उज्ज्वल अक्षरों में अकित था-'इत्तहादी यतीमखाना।' इनके पीछे सैयद ईजाद हुसैन थे। गौर वर्ण, श्वेत केश, सिर पर हरा अमामा, काले अल्पाके की आवा, सुफेद तजेब की अचकन, सुलेमशाही जूते, सौम्य और प्रतिभा की प्रत्यक्ष मूर्त थे। उनके हाथ में भी वैसा ही झड़ी थी। उनके पीछे उनके सुपुत्र सैयद इर्शाद हुसेन थे-लम्बा कद, नाक पर सुनहरी ऐनक, अल्वर्ट फैशन की दाढी, तुर्की टोपी, नीच अचकन, सजीवता की प्रत्यक्ष मूर्ति मालूम होते थे। सबसे पीछे साजिन्दे थे। एक के हाथ में हारमोनियम था, दूसरे के हाथ मे तवले, शेष दो आदमी करताल लिये हुए थे। इन सबो की वर्दी एक ही तरह की थी और उनकी टोपियो पर 'अजुमन इत्तहाद' की मोहर लगी हुई थी। पंडाल में कई हजार आदमी जमा थे। सब के सब 'इत्तहाद के प्रचारको की ओर टकटकी बाँध कर देखने लगें। पंडित जी का रोचक व्याख्यान फीका पड़ गया। उन्होंने बहुत उछल-कूद की, अपनी सम्पूर्ण हास्यशक्ति व्यय कर दीं, अश्लील कवित्त सुनाये, एक भद्दी सी गजल भी बेसुरे राग से गायी, पर रंग न जमा। समस्त श्रोतागण 'इत्तहादियों' पर आसक्त हो रहे थे। ईजाद हुसेन एक शनि के साथ मंच पर जा पहुँचे। वहाँ कई सन्यासी, महात्मा, उपदेशक चाँदी की कुसियों पर बैठे हुए थे। सैयद साहब को सबने ईर्षापूर्ण नेत्रो से देखा और जगह

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[ २५८ ]से न हटे। केवल भक्त ज्ञानशंकर ही एक व्यक्ति थे जिन्होंने उनका सहर्ष स्वागत किया और मंच पर उनके लिए एक कुर्सी रखवा दी। लड़के और साजिन्दे मंच के नीचे बैठ गये। उपदेशकगण मन ही मन ऐसे कुढ रहे थे, मानों हम समाज में कोई कौवा हो गया हो। दो-एक सहृदय महाशयों ने देवी जबान से फवतियाँ भी कसी, पर ईजाद हुसेन के तेवर जरा भी मैले न हुए। वह इस अवहेलना के लिए तैयार थे। उनके चेहरे से वह शान्तिपूर्ण दृढता झलक रही थी, जो कठिनाइयों की परवा नहीं करती और काँटों में भी राह निकाल लेती है।

पंडित जी ने अपनी रंग जमते न देखा तो अपनी वक्तृता समाप्त कर दी और जगह पर आ बैठे। श्रताओं ने समझा अब इत्तहादियों के राग सुनने में आयेंगे। सबने कुरसियाँ आगे खिसकायों और सावधान हो बैठे, किन्तु उपदेशक-समाज इसे कब पसन्द कर सकता था कि कोई मुसलमान उनसे बाजी ले जाय? एक सन्यासी महात्मा ने चट अपना व्याख्यान शुरू कर दिया। यह महाशय वेदान्त के पंडित और योगाभ्यासी थे। संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। वह सदैव संस्कृत में ही बोलते थे। उनके विषये में किंवदन्ती थी कि सस्कृत ही उनकी मातृ-भाषा हैं। उनकी वक्तृता को लोग उसी शौक से सुनते थे, जैसे चडूल का गाना सुनते है। किसी की भी समझ में कुछ ने आता था, पर उनकी विद्वत्ता और वाक्य प्रवाह को रोब लोगों पर छा जाता था। बह एक विचित्र जीव समझे जाते थे और यही उनकी बहुप्रियता का मन्त्र था। श्रोतागण कितने ही ऊबे हुए हों , उनके मंच पर आते ही उठनेवाले बैठ जाते थे, जानेवाले थम जाते थे। महफिल जम जाती थी। इसी घमंड पर इस वक्त उन्होंने अपना भाषण आरम्भ किया पर आज उनका जादू भी न चला। इत्तहादियों ने उनका रंग भी फीका कर दिया। उन्होने संस्कृत की झड़ी लगा दी, खूब तड़पे, खूब गरजे, पर यह भादो की नहीं, चैत की वर्षा थी। अन्त में वह भी थक कर बैठ रहे और अब किसी अन्य उपदेशक को खड़े होने का साहस न हुआ। इतहादियों ने मैदान मार लिया।

ज्ञानशकर ने खड़े हो कर कहा, अब इत्तहाद सस्था के संचालक सैयद ईजाद हुसेन अपनी अमृत वाणी सुनायेंगे। आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करे।

अभी भवन में सन्नाटा छा गया। लोग सँभल बैठे। ईजाद हुसेन ने हारमोनियम उठा कर मेज पर रखा, साजिन्दो ने साज निकाले, अनाथ बालकवृन्द वृत्ताकार बैठे। सैयद इर्शाद हुसेन ने इत्तहाद सभा की नियमावली का पुलिन्दा निकाला। एक क्षण में ईशवन्दना के मधुर स्वर पंडाल मे गूंजने लगे। बालको की ध्वनि में एक खास लोच होता है। उनका परस्पर स्वर में स्वर मिला कर गाना, उसपर साजों का मेल, एक समा छा गया-सारी सभा मुग्ध हो गयी।

राग बन्द हो गया और सैयद ईजाद हुसेन ने बोलना शुरू किया--प्यारे दोस्तो, आपको यह हैरत होगी कि हंसो में यह कौवा क्योंकर आ घुसा, औलिया की जमघट में यह भाँड कैसे पहुँचा? यह मेरी तकदीर की खूबी है। उलमा फरमाते हैं, जिस्म हादिम (अनित्य) है, रूह कदीम (नित्य) है। मेरा तजुर्वा बिलकुल वरअक्स (उल्टा) [ २५९ ]है। मेरे जाहिर में कोई तबदीली नहीं हुई । नाम वही है, लम्बी दाढी वही है, लिबासपोशाक वही है, पर मेरे रूह की काया पलट गयी। जाहिर है मुगालते में न आइए, दिल में बैठ कर देखिए, वहाँ मोटे हरूफ मे लिखा हुआ है--'हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।'

लडको और साजिन्दो ने इकबाल की गजल अलापनी शुरू की। सभा लोट-पोट हो गयी। लोगों की आँखो से गौरव की किरणें सी निकलने लगी, कोई मूँछो पर ताव देने लगा, किसी ने बेबसी की लम्बी साँस खीची, किसी ने अपनी भुजाओ पर निगाह डाली और कितने ही सहृदय सज्जनो की आँखें भर आयी । विशेष करके इस मिसरे पर--'हम बुलबुले है इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा' तो सारी मजलिस तडप उठी, लोगो ने कलेजे थाम लिये, “वन्देमातरम्” से भवन गूँज उठा । गाना बन्द होते ही फिर व्याख्यान शुरू हुआ--

‘भाइयो, मजहब दिल की तस्कीन के लिए है, दुनिया कमाने के लिए नही, मुल्की हुकूम हासिल करने के लिए नही । वह आदमी जो मजहब की आड़ में दौलत और इज्जत हासिल करना चाहता है, अगर हिन्दू है तो मलिच्छ है, मुसलमान है तो काफिर हैं। हाँ काफिर है, मजदूर है, रूसियाह है।'

करतल ध्वनि से पडाल काँप उठा।

'हम सत्तर पुश्तो से इसी सरजमीन का दाना खा रहे है, इसी सरजमीन के आब व गिल (पानी और मिट्टी) से हमारी शिरशिरी हुई है। तुफ है उस मुसलमान पर जो हिजाज और इराक को अपना वतन कहता है।'

फिर तालियाँ बजी । एक घटे तक व्याख्यान हुआ । सैयद ने सारी सभा पर मानो मोहिनी डाल दी । उनकी गौरवयुक्त विनम्रता, उनकी निर्भीक यथार्थवादिता, उनकी मीठी चुटकियाँ, उनकी जातीयता में डूबी हुई वाक्य-कुशलता, उनकी उत्तेजनापूर्ण आलोचना, उनके स्वदेशाभिमान, उसपर उनके शब्दप्रवाह, भायोत्कर्ष और राष्ट्रीय गाने ने लोगो को उन्मत्त कर दिया । हृदयों में जागृति की तरगे उठने लगी। कोई सोचता था, न हुए मेरे पास एक लाख रुपये नही तो इसी दम लुटा देता। कोई मन में कहता था, बाल-बच्चो की चिन्ता न होती तो गले में झोली लटका कर जाति के लिए भिक्षा माँगता ।

इस तरह जातीय भावो को उभाड कर भूमि को पोली बना कर सैयद साहब मतलब पर आये, बीज डालना शुरू किया।

‘दोस्तो, अब मजहबपरवरी का जमाना नहीं रहा। पुरानी बातो को भूल जाइए । एक जमाना था कि आरियों ने यहाँ के असली वाशिन्दो पर सदियों तक हुकूमत की, आज वही शूद्र आरियों में घुले-मिले हुए है। दुश्मनों को अपने सलूक से दोस्त बना लेना आपके बुजुर्गों का जोहर था । वह जोहर आप में मौजूद है। आप बारहा हमसे गले मिलने के लिए बढे, लेकिन हम पिंदरम मुलताबूद के जोश मे हमेशा आप से दूर भागते रहे । लेकिन दोस्तों, हमारी बदगुमानी से नाराज न हो । तुम जिन्दा कोम हो। तुम्हारे दिल में दर्द हैं, हिम्मत है, फैयाजी है। हमारी तगदिली को भूल जाइए । [ २६० ]उसी बेगाना कौम का एक फर्द हकीर आज आपकी खिदमत मे इत्तहाद का पैगाम लेकर हाजिर हुआ है, उसकी अर्ज कबूल कीजिए। यह फकीर इत्तहाद का सौदाई है। इत्तहाद का दीवाना है, उसका हौसला बढ़ाइए। इत्तहाद का यह नन्हा-सा भुक्षया हुआ पौध' आपकी तरफ भूखी-प्यासी आँखो से ताक रहा है। उसे अपनी दरियादिली के उबलते हुए चश्मों से सैराब कर दीजिए। तब आप देखेंगे कि यह पौधा कितनी जल्द तनावर दरख्त हो जाता है और उसके मीठे फलों से कितनी की जबाने, तर होती हैं। हमारे दिल में बड़े-बड़े हौसले है। बड़े-बड़े मनसूबे है। हम इत्तहाद की सदा से इस पाक जमीन के एक-एक गोशे को भर देना चाहते है। अब तक जो कुछ किया है आप ही ने किया है, आइन्दा जो कुछ करेंगे आप ही करेंगे। चन्दे की फिहरिस्त देखिए, वह आपके ही नामों से भरी हुई है और हक पूछिए तो आप ही उसके बानी हैं। रानी गायत्री कुँवर साहिबा की सखावत की इस वक्त सारी दुनिया में शोहरत है। भगत ज्ञानशंकर की कौमपरस्ती क्या पोशीदा है? वजीर ऐसा, बादशाह ऐसा? ऐसी पाक रूहे जिस कौम में हो वह खुशनसीब है। आज जब मैंने इस शहर की पाक जमीन पर कदम रखा तो बाशिन्दो के एखलाक और मुरौबत, मेहमाननवाजी और खातिर दारी ने मुझे हैरत में डाल दिया। तहकीकात करने से मालूम हुआ कि यह इसी मजहवी जोश की बरकत है। यह प्रेम के औतार सिरी किरिइन की भगती का असर है। जिसनें लोगों को इन्सानियत के दर्जे से उठा कर फरिश्तो का हमसर बना दिया है। हुजरात, मैं अर्ज नहीं कर सकता कि मेरे दिल में सिरी किरिश्न जी की कितनी इज्जत है। इससे चाहे मेरी मुसलमानी पर ताने ही क्यों न दिये जायें, पर मैं बेखौफ कहता हूँ कि वह रूहे पाक उलूहियत (ईश्वरत्व) के उस दर्जे पर पहुँची हुई थी जहाँ तक किसी नबी या पैगम्बर को पहुँचना नसीब न हुआ। आज इस सभा में मैं सच्चे दिल से अजुमन इत्तहाद को उसी रूपाक के नाम मानूम (समर्पित) करता हूँ। मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि उनके भगतो के सामने मेरा सवाल खाली न जायगा। इत्तहादी यतीमखाने के बच्चे और बच्चियाँ आप ही की तरफ वैकस निगाहों से देख रही हैं। यह कौमी भिखारी आपके दरवाजे पर खडा दुआएँ दे रहा है। इस लम्बी दाडों पर निगाह डालिए, इन सुफेद बालों की लाज रखिए।'

फिर हारमोनियम बजा, तबले पर थाप पड़ी, करताल ने झकार ली और ईजाद हुसैन की करुण-रस-पूर्ण गजल शुरू हुई। श्रोताओं के कलेजे मसोस उठे। चन्दे की अपील हुई तो रानी गायत्री की ओर से १००० रु० की सूचना हुई, भक्त ज्ञानशंकर ने यतीमखाने के लिए एक गाय भेंट की, चारो तरफ से लोग चन्दा देने को लपके। इधर तो चन्दे की सूची चक्कर लगा रही थी, उधर इर्शाद हुसेन ने अजुमन के पैम्फलेट और तमगे बेचने शुरू किये। तमगे अतीव सुन्दर बने हुए थे। लोगों ने शौक से हाथों-हाथ लिये। एक क्षण में हजारों वक्षस्थलों पर यह तमगे चमकने लगे। हृदयों पर दोनों तरफ से इत्तहाद की छाप पड़ गयीं। कुल चन्दे का योग ५००० रु० हुआ। ईजाद हुसेन [ २६१ ]का चेहरा फूल की तरह खिल उठा। उन्होंने लोगों को धन्यवाद देते हुए एक गजल गायी और आज की कार्यवाही समाप्त हुई। रात के दस बजे थे।

जब ईजाद हुसेन भोजन करके लेटे और खमीरे का रस-पान करने लगे तब उनके सुपुत्र ने पूछा, इतनी उम्मीद तो आपको भी न थी।

ईजाद---हर्गिज नहीं। मैंने ज्यादा से ज्यादा १००० रु० का अन्दाज किया था, मगर आज मालूम हुआ कि ये सब कितने अहमक होते है। इसी अपील पर किसी इस्लामी जलसे में मुश्किल से १०० रु० मिलते। इन बछिया के ताउओं की खूब तारीफ कीजिए। इमलीह की हद तक हो तो मुजायका नहीं, फिर इनसे जितना चाहे वसूल कर लीजिए।

इर्शाद-आपकी तकरीर लाजवाब थी।

ईजाद-उसी पर तो जिन्दगी का दामदार है। न किसी के नौकर, न गुलाम। बस, दुनिया में कामयाबी का नुसखा है तो वह शतरजवाजी है। आदमी जरा लस्सान (वाक्-चतुर) हो, जरा मर्दुमशनास हो और जरा गिरहवाज हो, बस उसकी चाँदी है। दौलत उसके घर की लौंडी है।

इर्शाद-सच फरमाइएगा अब्बी जान, क्या आपका कभी यह खयाल था कि यह सब दुनियासाजी है?

ईजाद--क्या मुझे मामूली आदमियों से भी गया-गुजरा समझते हो? यह दगाबाजी है, पर करूँ क्या? औलाद और खानदान की मुहब्बत अपनी नजात की फिकर से ज्यादा है।