प्रेमाश्रम/४६

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४६

कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम से उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के लिए हाथ बढा देता था, तब उन पर एक विचित्र शिथिलता सी छा जाती थी। इसके सिवा धनाभाव भी अपील का बाधक था। दिवानी के खर्च ने उन्हें इतना जेरबार कर दिया था कि हाईकोर्ट जाने की हिम्मत न पड़ती थी। यद्यपि कितने ही अदिमियों को उनसे श्रद्धा थी और वह इस सुपय कार्य के लिए पर्याप्त धन एकत्र कर सकते थे, पर उनकी स्वाभाविक सरलता और कातरता इस आधार को उनकी कल्पना में भी न आने देती थी।

एक दिन सन्ध्या समय प्रेमशंकर बैठे हुए समाचार-पत्र देख रहे थे। गोरखपुर के सनातन धर्म महोत्सव का समाचार मोटे अक्षरो में छपा हुआ दिखायी दिया। गौर से पढ़ने लगे। ज्ञानशंकर को उन्होंने मन में घूर्व और स्वार्थ-परायणता का पुतला समझ रखा था। अब उनकी इस सत्य-निष्ठा और घर्म-परायणता का वृत्तान्त पढ़ कर उन्हें अपनी सकीर्णतापर अत्यन्त खेद हुआ। मैं कितना निर्बुद्धि हैं। ऐसी दिव्य और विमल आत्मा पर अनुचित सन्देह करने लगा। ज्ञानशंकर के प्रति उनके हृदय में भक्ति की तरगे सी उठने लगी। उनकी सराहना करने की ऐसी उत्कंट इच्छा हुई कि उन्होने मस्ता और भोला को कई बार पुकारा। जब उनमें से किसी ने जवाब न दिया तो वह मस्ता की झोपड़ी की और चले कि अकस्मात् दुर्गा, मस्ता और कृषिशाला के कई और नौकर एक मनुष्य को खींच-खींच कर लाते हुए दिखायी दिये। सब के सब उसे गालियों है। रहे थे और मस्ता रह-रह कर एक धौल जमा देता था। प्रेमशंकर ने आगे बढ़ कर तीव्र स्वर में कहा, क्या है भोला, इसे क्यों मार रहे हो?

मस्ता-मैया, यह न जाने कौन आदमी है। फाटक से चिमटा खड़ी था। अभी मैं फाटक बन्द करने गया तो इसे देखा। मुझे देखते ही और दबक गया। बस, मैंने चुपके से आकर सबको साथ लिया और बच्चू को पकड़ लिया। जरूर से जरूर कोई चोर है।

प्रेम-चोर सही, तुम्हारा कुछ चुराया तो नहीं? फिर क्यों मारते हो?

यह कहते हुए अपने बरामदे में आ कर बैठ गये। चोर को भी लोगों ने वही ला कर खड़ा किया। ज्यों ही लालटेन के प्रकाश में उसकी सूरत दिखायी दी, प्रेमशकर के मुँह से एक चौख सी निकल आयी, अरे, यह तो बिसेसर साह है। [ २९३ ] बिसेसर ने आँसू पोंछते हुए कहा, हाँ सरकार, मैं बिसेसर ही हूँ।

प्रेमशंकर ने अपने नौकरों से कठोर स्वर में कही, तुम लोग निरे गंवार और मूर्ख हो। न जाने तुम्हें कभी समझ आयेगी भी या नहीं।

मस्ता--भैया, हम तो बार-बार पूछते रहे कि तुम कौन हो? वह कुछ बोले ही नहीं, तो मैं क्या करता?

प्रेम-बस, चुप रह गंवार कहीं का!

नौकरों ने देखा कि हमसे भूल हो गयी तो चुपके से एक एक करके सरक गये। प्रेमशंकर को क्रोध में देख कर सब के सब थर-थर काँपने लगते थे। यद्यपि प्रेमशंकर उन सवसे भाई चारे का बर्ताव करते थे, पर वह सब उनका बड़ा अदब करते थे। उनके सामने चिलम तक न पीते। उनके चले जाने के बाद प्रेमशंकर ने बिसेसर साह को खाट पर बैठाया और अत्यन्त लज्जित हो कर वोले, साह जी, मुझे बड़ा दुःख है कि मेरे आदमियों ने आपके साथ अनुचित व्यवहार किया। सब के सब उजड्ड और मूर्ख हैं।

बिसेसर ने ठंडी साँस ले कर कहा, नहीं भैया, इन्होंने कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं इसी लायक हूँ। आप मुझे खम्भे में बाँध कर कोड़े लगवाये तव भी बुरा न मानूंगा। मैं विश्वासघाती हूँ। मुझे जो सजा मिले वह थोड़ी है। मैंने अपनी जान के डर से सारे गाँव को मटिया मेट कर दिया। न जाने मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी। पुलिस वालों की भभकी में आ गया। वह सब ऐसी-ऐसी बातें करते हैं, इतना डराते और धमकाते हैं कि सीधा-सादा आदमी बिलकुल उनकी मुट्ठी में आ जाता हूँ। उन्हें जरूर मे जरूर किसी देवता का इष्ट है कि जो कुछ वह कहलाते हैं, वहीं मुंह से निकलता है। भगवान जानते हैं जो गौस खाँ के बारे में मुझे किसी से कुछ बात हुई हो। मुझे तो उनके कतल को हाल दिन चढ़े मालूम हुआ, जब मैं पूजा-पाठ करके दूकान पर आया। पर जब दरोगा जी थाने में ले जा कर मेरी साँसत करने लगे तब मुझपर जैसे कोई जादू हो गया। उनकी एक-एक बात दुहराने लगा। जब मैं अदालत में बयान दे रहा था तब सरम के मारे मेरी आँखें ऊपर न उठती थीं। मेरे जैसा कुकर्मी संसार में न होगा। जिन आदमियों के साथ रात-दिन का रहन-सहना उठना-बैठना था, जो मेरे दुःख दर्द में शरीक होते थे, उन्हीं के गर्दन पर मैंने छुरी चलायी। जब कादिर ने मेरा वयान सुन कर कहा, 'बिसेसर, भगवान से डरो उस घड़ी मेरा ऐसा जी चाहता था, कि धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। मन होता था कि साफ-साफ कह दें ‘यह सब सिखायी-पढ़ाई बाते हैं पर दारोगा जी की ओर ज्यों ही आँख उठती थी मेरी हियाव छूट जाता था। जिस दिन से मनोहर ने अपने गले में फाँसी लगायी है उस दिन से मेरी नींद हराम हो गयी। रात को सोते-सोते चौंक पड़ता हैं, जैसे मनोहर सिरहाने खड़ा हो। साँझ होते ही घर के कैवाड़ बन्द कर देता हूँ। बाहर निकलता हैं तो जान पड़ता है, मनोहर सामने आ रहा है। घरवाली उसी दिन से बीमार पड़ी हुई है। घर की तो यह दुर्दशा है, उधर गाँव में अँधेर मचा हुआ है। सबके बाल-बच्चे भूखों मर रहे हैं। फैजू और कर्तार नित नये तूफान रचते रहते हैं। भगवान् सुक्खू चौधरी का [ २९४ ]भला करे. उनके हृदय में दया आयी दो साल की मालगुजारी अदा कर दी, नहीं तो अब तक सारा गाँव बेदखल हो गया होता। इस पर फैजू चला जाता है। अब सुक्लू आ जाते हैं तो भीगी बिल्ली बन जाता है, लेकिन ज्यो ही वह चले जाते हैं फिर वही उपद्रव करने लगता है। इन गरीबो का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। जिसे चाहता है मारता है डांट लेता है। एक दिन कादिर मियाँ के घर में आग लगवा दी। और तो और अब गाँव की बहूबेटियों की इज्जत-हुरमत भी बच्ती नहीं दिखायी देती। मनोहर के घर सास-बहू में रार मची हुई है। दोनों अलग-अलग रहती हैं। परसो रात की बात है, फैजू और कर्तार दोनों बहू के घर में घुस गये। उस बेचारी ने चिल्लाना शुरू किया। सास पहुँच गयी, और लोग भी पहुँच गये। दोनों निकल कर भागे। सवेरा होते ही इसकी कसर निकली। कर्तार ने मनोहर की दुलहिन को इतना माया कि बेचारी पड़ी हल्दी पी रही है। यह सब पाप मेरे सिवा और किसके सिर पड़ता होगा? मैं ही इस सारी विपद् लीला की जड़ हूँ। भगवान् मेरी न जाने क्या दुर्गत करेंगे! काहे भैया, क्या अब कुछ नहीं हों सकता? सुनते हैं तुम अपील करनेवाले हो, तो जल्दी कर क्यों नहीं देते? ऐसा न हो कि मियाद गुजर जाय। तुम मुझे तलब करा देना। मुझपर दरोग-हलफी का इलजाम जायेगा तो क्या! पर मैं अबकी सब कुछ सच-सच कह दूंगा। यही न होगा, मेरी सजा हो जायगी, गाँव का तो भला हो जायगा। मैं हजार पाँच सौ से मदद भी कर सकता हूँ।

प्रेमशंकर—हाईकोर्ट मे तो मिसल देख कर फैसला होता है, किसी के बयान नहीं लिये जाते।

बिसेसर—भैया, कुछ लेने-देन से काम चले तो दे दो, हजार-पाँच सौ का मुंह मत देखो। मुझसे जो कुछ फरमाओ उसके लिए हाजिर हूँ। यह बात मेरे मन में महीनों से समायी हुई है, पर आपको मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आज कुछ सौदा लेने चला तो चौपाल के सामने फैजू मिल गये। कहने लगे—जाते हो तो यह रुपये लेते जाओ, मालिकों के घर भेजवा देना। मैंने रुपये लिए और डेवढ़ी पर जाकर छोटी बहू के पास रुपये भेज दिये। जब चलने लगा तो बड़ी बहू ने दीवानखाने मे मुझे बुलाया। उनको देख कर ऐसा जान पड़ा मानो साक्षात देवी के दर्शन हो गये। उन्होंने मुझे ऐसा-ऐसा उपदेश दिया कि आपसे क्या कहूँ। मेरी आंख खुल गयी। मन में ठान कर चला कि आपसे अपील दायर करने को कहूँ जिसमें मेरा भी उद्धार हो जाये। लेकिन दो-तीन बार आ-आ कर लौट गया। आपको मुँह दिखाते लाज आती थी। सूरज दूबते वक्त फिर आया, पर वही फाटक के पास दुविधा में खड़ा सोच रहा था कि क्या करू? इतने में आपके आदमियों ने देख लिया और आपकी शरण में ले आयें। मुझ जैसे झूठे दगाबाज आदमी का इतबार ही क्या? पर अब मैं सौगन्ध खा के कहता हूँ कि फिर जो मेरा बयान लिया जायेगा तो मैं एक-एक बात खोल कर कह दूंगा। चाहे उल्टी पड़े या सीधी। आप जरूर अपील कीदिए।

प्रेमशंकर विसेसर साह को महानीच, कपटी, अधम मनुष्य समझते थे। उनके [ २९५ ]विचार मे वह मनुष्य कहलाने के योग्य भी न था। लेकिन उसकी इस ग्लानि-सूचक बातो ने उसे पिशाच श्रेणी से उठा कर देवासन पर बैठा दिया। भगवान्! जिसे मैं इतना दुरात्मा समझता था, उसके हृदय में आत्मग्लानि का यह पवित्र भाव! यह आत्मोत्कर्ष, यह ईश्वर-भिस्ता, यह सदुद्गार! मैं कितने भ्रम में पडा हुआ था? दुनिया के लोग अनायास ही बदनाम करते हैं, पर मैंने तो हर एक बुरे को अच्छा ही पाया। इसे अपने सौभाग्य के सिवा और क्या कहूँ? ईश्वर मुझे इस अविश्वास के लिए क्षमा करना। यह सोचकर उनकी आँखों में आंसू भर आय। बोले—शाह जी, तुम्हारी बाते सुन कर मुझे वही आनन्द हुआ जो किसी सच्चे साधु के उपदेश से होता। मैं बहुत जल्द अपील करनेवाला हूँ! अड़चन यही है कि गवाहो के बयान कैनै बदले जायें? सम्भव है हाईकोर्ट मुकदमे पर नजरसानी करने की आज्ञा दे दे और फिर इसी अदालत में मामला पैदा हो, लेकिन बयान बदलने से तुम और डाक्टर प्रियनाथ दोनों ही फंस जाओगे। प्रियनाथ ने तो अपने बचाव की युक्ति सोच लीं, लेकिन तुम्हारा बचाव कठिन है। इसे अच्छी तरह सोच लो।

बिसेसर—खूब सोच लिया है।

प्रेमशंकर—ईश्वर ने चाहा तो तुम भी बच जाओगे। मैं कल वकीलो से इन विषय में सलाह लूँगा।

यह कह कर वह बिसेसर के खाने-पीने का प्रबन्ध करने चले गये।