प्रेमाश्रम/५७

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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५७

गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल-जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलतीं सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए साघुओं पर विश्वास क्यों किया और उनको अपने रुपयों की थैली क्यों दिखायी? उसी पथिक की भाँति अब वह प्रत्येक बटोही को आशंकित नेत्रों से देखती थी। यह विडम्बना उसके लिए सहस्रों उपदेशों से अधिक शिक्षाप्रद और सजगकारी थी। अब उसे याद आया था कि एक साधु ने मुझे प्रसाद खिलाया था। जरा दूर चल कर मुझे प्यास लगी तो उसने मुझे शर्बत पिलाया, जो तृषित होने के कारण मैंने पेट भर पिया। अब उसे यह भी ज्ञात हो रहा था कि वह प्यास उसी प्रसाद का फल था। ज्यों-ज्यों वह उस घटना पर विचार करती थीं, उसके सभी रहस्य, कारण और कार्य सूत्र में बँधे हुए मालूम होते थे। गायत्री ने अपने आभूषण तो बनारस में ही उतार कर श्रद्धा को सौंप दिये थे, अब उसने रंगीन कपड़े भी त्याग दिये। पान खाने का उसे शौक था। उसे भी छोड़ा! आईने और कंघी को त्रिवेणी में डाल दिया। रुचिकर भोजन को तिलांजलि दी। उसे अनुभव हो रहा था कि इन्हीं व्यसनों ने मेरे मन को चंचल बना दिया। मैं अपने सतीत्व के गर्दै में विलास-प्रेम को निर्विकार समझती थी। मुझे यह न सूझता था कि वासना केवल इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके सन्तुष्ट नहीं होती, वह शनैः शनैः मन को भी अपना आज्ञाकारी बना लेती है। अब वह केवल एक उजली साड़ी पहनती थी, नंगे पाँव चलती थी और रूखा-सूखा भोजन करती थी। इच्छाओं को दमन कर रही थी, उन्हें कुचल डालना चाहती थी। शीशा ज्यों-ज्यों साफ होता है, उसके वाले स्पष्ट होते जाते हैं। गायत्री को अब अपने मन की कुप्रवृत्तियों साफ दिखायी दे रही थीं। कभी-कभी क्षोभ और ग्लानि के उद्वेग में उसका जी चाहता कि प्राणाघात कर लें। उसे अब स्वप्न में अक्सर अपने पति के दर्शन होते हैं उसकी मर्मभेदी बातें कलेजे के पार हो जातीं, उनकी तीव्र दृष्टि हृदय को छेद डालती।

बनारस से वह प्रयाग आयी और कई दिनों तक झूसी की एक घर्मशाला में ठहरी [ ३६२ ]रही। यहाँ उसे कई महात्माओ के दर्शन हुए, लेकिन उसे उनके उपदेशो से शान्ति न मिली। वे सब दुनिया के बन्दे थे। पहले तो उससे बात तक न की; पर ज्यों हीं। मालूम हुआ कि यह रानी गायत्री है त्यों ही सब जान और वैराग्य के पुतले बन गये। गायत्री को विदित हो गया कि उनका त्याग केवल उद्योग-हीनता है और उनका भेष केवल सरल-हृदय भक्तों के लिए मायाजाल। वह निराश हो कर चौथे दिन हरिद्वार जा पहुँची, पर यहाँ धर्म का आडम्बर तो बहुत देखा, भाव कम। यात्री गण दूर-दूर से आये हुए थे, पर तीर्थ करने के लिए नही, केवल बिहार करने के लिए। आठो पहर गंगा तट पर विलास और आभूषण की बहार रहती थी। गायत्री खिन्न होकर तीसरे ही दिन यहाँ से हृषीकेश चली गयी। वहाँ उसने किसी को अपना परिचय न दिया। नित्य पहर रात रहे उठती और गंगा-स्नान करके दो-तीन घंटे गीता का पाठ किया करती। शेष समय धर्म ग्रंथो के पढ़ने में काटती। सन्ध्या को साधु-महात्माओं के ज्ञानोपदेश सुना करती। यद्यपि वहाँ दो-एक त्यागी आत्मा के दर्शन हुए, पर कोई ऐसा तत्त्वज्ञानी न मिली जो उसके चित्त को विरक्त कर है। इतना संयम और इंद्रियनिग्रह करने पर भी सांसारिक चिन्ताएँ उसे सताया करती थी। मालूम नही घर पर क्या हो रहा है? न जाने सदाव्रत चलता है या ज्ञानशंकर ने बन्द कर दिया? फर्श आदि की न जाने क्या दशा होगी? नौकर-चाकर चारो और लुट मचा रहे होंगे। मेरे दीवानसाने में मनों गर्द जम गयी होगी। अबकी अच्छी तरह मरम्मत न हुई होगी तो छतें कई जगह फट गयी होगी। मोटरें और बग्घियाँ रोज मांगी जाती होगी। जो ही आ कर दो-चार लल्लो-चप्पो की बातें करता होगा, लाला जी दे देते होगें। समझते होगे अब तो मैं मालिक हूँ। बगीचा बिलकुल जंगल हो गया होगा। ईश्वर जाने कोई चिड़ियों और जानवरो की सुधि लेता हैं या नहीं। बेचारे भूखों मर गये होगें। दोनों पहाड़ी मैने कितनी दौड़-धूप करने पर मिले थे। अब या तो मर गये होंगे या कोई माँग ले गया होगा। सन्दुको की कुजियां तो श्रद्धा को दे आयीं हैं, पर ज्ञानशंकर जैसे दुष्ट चरित्र आदमी से कोई बात बाहर नहीं। बहुधा धर्म-ग्रंथों के पढ़ने या मन्त्र जाप करते समय ये दुश्चिन्ताएँ उसे आ घेरती थी। जैसे टूटे हुए बर्तन में एक और से पानी भरो और दूसरी ओर से टपक जाता है उसी तरह गायत्री एक ओर तो आत्म-शुद्धि की क्रिया में तत्पर हो रही थी, पर दूसरी और चिन्ता यदि उसे घेरे रहती थी। वह शान्ति, वह एकाग्रता ने प्राप्त होती थीं जौ अल्मोत्कर्ष का मूल मन्त्र है। आश्चर्य तो यह है कि वह विघ्न-बाधाओं का स्वागत करती थी और उन्हें प्यार से हृदयागार में बैठाती थी। वह बनारस से यह ठान कर चली थी कि अब संसार से कोई नाता न रखूंगी, लेकिन अब उसे ज्ञात होता था कि आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए वैराग्य की जरूरत नहीं है। मैं अपने घर रह कर रियासत की देख-रेख करते हुए क्या निलिप्त नही रह सकती, पर इस विचार से उसका जी झुंझला पड़ता था। वह अपने को समझाती, अब उसे रियासत से क्या प्रयोजन है। बहुत भोग कर चुकी। अब मुझे मोक्ष मार्ग पर ही चलना चाहिए, यह जन्म तो बिगड़ ही गया, दूसरा जन्म क्यों बिगाड़े? [ ३६३ ] इसी तर्क-वितर्क में गायत्री बद्रीनाथ की यात्रा पर आरूढ़ न हो सकी। हृषीकेश में पड़े-पड़े तीन महीने गुजर गये और हेमन्त सिर पर आ पहुँचा, यात्रा दुस्साध्य हो गयी।

पौष मास था, पहाड़ो पर बर्फ गिरने लगी थी। प्रात काल की सुनहरी किरणों में तुषार-मंडित पर्वत श्रेणियों की शोभा अकथनीय थी। एक दिन गायत्री ने सुना कि चित्रकूट में कहीं से ऐसे महात्मा आये है जिनके दर्शन मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है। वह उपदेश बहुत कम करते हैं, लेकिन उनका दृष्टिपात उपदेशो से भी ज्यादा सुधावर्षी होता है। उनके मुखमंडल पर ऐसी कान्ति है मानों तपाया हुआ कुन्दन हो। दूध ही उनका आहार है और वह भी एक छटाँक से अधिक नही, पर डलहौल और तेजबल ऐसा है कि ऊँचौ से ऊंची पहाड़ियों पर खटाखट चढते चले जाते हैं, न दम फूलता है, न पैर काँपते है, न पसीना आता है। उनका पराक्रम देख कर अच्छे-अच्छे योगी भी दंग रह जाते है। पसूनी के गलते हुए पानी में पहर रात से ही खड़े हो कर दो-तीन घंटे तक तप किया करते है। उनकी आँखों में कुछ ऐसा आकर्षण हैं कि बन के जीवधारी भी उनके इशारों पर चलने लगते है। गायत्री ने उनकी सिद्धि का यह वृत्तान्त सुना तो उसे उनके दर्शनों की प्रबल उत्कंठा हुई। उसने दूसरे ही दिन चित्रकूट की राह ली और चौथे दिन पसूनी के तट पर एक धर्मशाला में बैठी हुई थी।

यहाँ जिसे देखिए वही स्वामी जी का कीर्तिगान कर रहा था। भक्त जन दूर-दूर से आये हुए थे। कोई कहता था यह त्रिकालदर्शी हैं, कोई उन्हें आत्मज्ञानी बतलाता था। गायत्री उनकी सिद्धि की कथाएँ सुन कर इतनी विह्वल हुई कि इसी दम जा कर उनके चरणों पर सिर रख दे, लेकिन रात से मजबूर थी। वह सारी रात करवटें बदलती और सोचती रही कि मैं मुंह अँधेरे जा कर महात्मा जी के पैरों पर गिर पड़ेंगी और कहूंगी कि महाराज, मैं अभागिनी, आप आत्मज्ञानी है, आप सर्वज्ञ हैं, मेरा हाल आपसे छिपा हुआ नहीं है, मैं अथाह जल में डूबी जाती हूँ, अब आप ही मुझे उबार सकते हैं। मुझे ऐसा उपदेश दीजिए और मेरी निर्बल आत्मा को इतनी शक्ति प्रदान कीजिए कि वह माया मोह के बन्धनों से मुक्त हो जाय। मेरे हृदय-स्थल में अन्धकार छाया हुआ है, उसे आप अपनी व्यापक ज्योति से आलोकित कर दीजिए। इस दीन कल्पना से गदगद हो कर घंटों रोती रही। उसकी कल्पना इतनी सजग हो गयी कि स्वामी जी के आश्वासन-शब्द भी उसके कानो मे गूंजने लगे। ज्यों ही मैं उनके चरणो पर गिरूँगी वह प्रेम से मेरे सिर पर हाथ रख कर कहेंगे, बेटी, तुझ पर बड़ी विपत्ति पड़ी है, ईश्वर तेरा कल्याण करेंगे। जाड़े की लम्बी रात किसी भाँति कटती ही न थी। यह बार-बार उठ कर देखती तड़का तो नहीं हो गया है, लेकिन आकाश में जगमगाते हुए तारों को देख कर निराश हो जाती थी। पाँचवीं बार जब उठी तो पौ फट रही थी। तारागण किसी मधुर गान के अन्तिम स्वरों की भाँति लुप्त होते जाते थे। आकाश एक पीतवस्त्रधारी योगी की भाँति था जिसका मुखकमल आत्मोल्लास से खिला हुआ [ ३६४ ]हो और पृथ्वी एक माया-रहस्य थी, और के नीले पर्दे में छिपी हुई गायत्री ने तुरन्त पसूनी में स्नान किया और स्वामी जी के दर्शन करने चली।

स्वामी जी की कुटी एक ऊँची पहाड़ी पर थी। वहाँ वह एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। वही चट्टानो के फर्श पर भक्तजन आ-आ कर बैठते जाते थे। चढाई कठिन थी, पर श्रद्धा लोगों को ऊपर खींचे लिये जाती थी। अशक्तता और निर्बलता ने भी सदनुराग के सामने सिर झुका दिया था। नीचे से ऊपर तक आदमियों का तांता लगा हुआ था। गायत्री ने पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। थोड़ी दूर चल कर उसका दम फूल गया। पैर मन-मन भर के हो गये, उठायें न उठते थे, लेकिन वह दम ले-ले कर हाथों और घुटनों के बल चट्टानो पर चढती हुई ऊपर जा पहुँची। उसकी सारी देह पसीने से तर थी और आँख के सामने अँधेरा छा रहा था, लेकिन ऊपर पहुँचते ही उमका विज्ञ ऐसा प्रफुल्लित हुआ जैसे किसी प्यासे को पानी मिल आय। गायत्री की छाती में धड़कन सी होने लगी। ग्लानि की ऐसी विषम, ऐसी भीषण पीड़ा उसे कभी न हुई थी। इस ज्ञान-ज्योति को कौन सा मुँह दिखाऊ। उसे स्वामी जी की और ताकने का साहस न हुआ जैसे कोई आदमी सर्राफ के हाथ में खोटा फिक्की देता हुआ डरे। बस इसी हैसबैस में थी कि सहसा उसके कानो में आवाज आयी--गायत्री, मैं बहुत देर से तेरी बाट जोह रहा हैं। यह राय कमलानन्द की आवाज थी, करुणा और स्नेह में डूबी हुई। गायत्री ने चौक कर सामने देखा स्वामी जी उसकी ओर चले आ रहे थे। उनके तेजोमय मुखारबिन्द पर करुणा झलक रही थी और आँखे प्रेमाश्रु से भरी हुई थी। गायत्री की आँखें झुक गयी। ऐसा जान पड़ा मानो मैं तेज तरंगों में बही जाती हूँ। हा मैं इस विशाल आत्मा की पुत्री हूँ। ग्लानि ने कहा, हा पतिता। लज्जा ने कहा, हा कुलकलकिनी। निराशा बोली, हा अभागिनी। शोक ने कहा, तुझ पर धिक्कार! तू इस योग्य नहीं कि संसार को अपना मुँह दिखाये। अध पतन अब क्या शेष है जिसके लिए जीवन की अभिलाषा: विधाता ने तेरे भाग्य में ज्ञान और वैराग्य नही लिखा। इन दुष्कल्पनाओं ने गायत्री को इतना मर्माहत किया कि पश्चात्ताप, आत्मोद्धार और परमार्थ की सारी सदिच्छाएँ लुप्त हो गयी। उसने उन्मत्त नेत्रों से नीचे की ओर देखा और तब जैसे कोई चोट लाया हुआ पक्षी दोनों डैना फैला वृक्ष से गिरता है वह दोनों हाथ फैलाये शिखर पर से गिर पड़ी। नीचे एक गहरा कुंड था। उसने उसकी अस्थियों को संसार के निर्दय कटाक्षो से बचाने के लिए अपने अन्तस्थल के अपार अन्धकार में छिपा लिया।