प्रेमाश्रम/८

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ५२ ]

जिस भांति सूर्यास्त के पीछे एक विशेष प्रकार के जीवधारी, जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लम्बी श्रेणियो से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भॉति कात्तिक का आरम्भ होते ही एक अन्य प्रकार के जंतु [ ५३ ] देहातों में निकल पड़ते है और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राममंडल को उज्ज्वल कर देते है। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पंतग का उद्भव होता है, उसके अंत में तामसिक कीट और पंतग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते है।

इसमे संदेह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित हो कर होते है। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्याय-प्रार्थी के द्वार तक पहुंचना, प्रजा के दुखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसंतकाल से भी अधिक प्राण पोषक होते, लोग वीणा-पखावज से, ढोलमजीरे से उनका अभिवादन करते। किन्तु जिस भांति प्रकाश की रश्मियां पानी मे वक्रगामी हो जाती है, उसी भांति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवी दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है। अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भांति इस सुख काल के दिन गिना करते है। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोटे पर होता है या किसी दीन किसान की गर्दन पर। जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मास-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों को यहाँ केवल जिला और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते है, खाते है, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते है। घी से भरे हुए कनस्टर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी, घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती है। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते है, क्योंकि अब दुख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनको तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनद उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बडे संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है, दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।

अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुई थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बात कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पत्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अंत में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।

दुखरन बोले, आजकल रात को मटर में सियार और हरिन या उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।

कादिर-अब की ठंड पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहरे लपेटे पटा रहता हूँ। पुआल न हो गया होता तो रात [ ५४ ]को अकड़ जाता।

डपट---यहाँ किसके पास कम्बल है। उसी एक पुराने धुस्से की भुगुत है। लकड़ी भी इतनी नहीं मिलती किं रात भर तापें।

मनोहर---अब की बेटी के ब्याह में इमली का पेड़ कटवाया था। क्या सब जल गयी?

डपट--नहीं, बची तो बहुत थी, पर कल डिप्टी ज्वालासिंह के लश्कर में चली गयी। खाँ साहब से कितना कहा कि इसे मत ले जाइए, पर उनकी बला सुनती है। चपरासियों को ढेर दिखा दिया। बात को बात में सारी लकड़ी उठ गयी।

मनोहर--तुमने चपरासियों से कुछ कहा नहीं?

डपट क्या कहता, दस-पाँच मन लकड़ी के पीछे अपनी जान सांसत में डालता। गालियाँ खाता, लश्कर में पकड़ जाती, मार पड़ती ऊपर से, तब तुम भी पास न फटकते। दोनो लड़के और झपट तो गरम हो पड़े थे, लेकिन मैंने उन्हे डाँट दिया। जबरदस्त का ठेगा सिर पर।

कादिर-हाकिमों का दौरा क्या है, हमारी मौत है। बकरीद में कुर्बानी के लिए यो बकरी पाल रखा था, वह कल लश्कर में पकड़ गया। रब्बी बूचड़ पाँच रुपये नगद देता था, मगर मैंने न दिया था। इस बखत सात से कम का माल न था।

मनोहर--यह लोग बड़ा अंधेर मचाते है। आते हैं इंतजाम करने, इन्साफ करने, लेकिन हमारे गले पर छुरी लाते हैं। इससे कहीं अच्छा तो यहीं था कि दौरे बंद हो जाते। यही न होता कि मुकदमें वालों को सदर जाना पड़ता, इस सांसत से तो जान बचती।।

कादिर-इसमें हाकिमों का कसूर नहीं। यह सब उनके लश्करवालों की धाँधली है। वही सब हाकिमों को भी बदनाम कर देते हैं।

मनोहर-कैसी बाते कहते हो दादा? यह सब मिली भगत है। हाकिम का इशारा न हो तो मजाल हैं कि कोई लश्करी परायी चीज पर हाथ डाल सके। सब कुछ हाकिमो की मर्जी से होता है और उनकी मर्जी क्यों न होगी? सेत का माल किसको बुरा लगता है।

डपट ठीक बात है। जिसकी जितनी आमद होती है वह उतना ही और मुँह फैलाता है।

दुखरन--परमात्मा यह अधेर देखते है, और कोई जतन नहीं करते। देखें बिसेमर साहू को अबकी कितनी घटी आती है।

डपट-परसाल तो पूरे तीन सौ की चपत पड़ी थी। वही अबकी भी समझो, अगर जिन्न हीं तक रहे तो इतना घाटा न पड़े, मगर यहाँ तो इलायची, कत्था, सुपारी, मेवा और मिश्री सभी कुछ चाहिए और सब टके सेर। लोग खाने के इतने शौकीन बनते हैं, पर यह नहीं होता कि वे सब चीजें अपने साथ रखें।

मनोहर-शहर मे खरे दाम लगते हैं, यहाँ जी में आया दिया न दिया।

कादिर-कल लश्कर का एक चपरासी बिसेसर के यहाँ साबूदाना माँग रहा था। [ ५५ ] बिसेसर हाथ जोड़ता था, पैरों पड़ता था कि मेरे यही नहीं है, लेकिन चपरासी एक न सुनता था, कहता था जहाँ से चाहो मुझे ला कर दो। गालियाँ देता था, डंडा दिखाता था। बारे बलराज पहुँच गया। जब वह कड़ा पड़ा तो चपरासी मियाँ नरम पड़े, और भुनभुनाते चले गये।

दुखरन-बिसेसर की एक बार मरम्मत हो जाती तो अच्छा होता। गाँव भर का गला मरोड़ता है, यह उसकी सजा है।

डपट-—और हम तुम किसका गला मरोड़ते है?

मनोहर ने चिन्तित भाव से कहा, बलराज अब सरकारी आदमियों के मुँह आने लगा। कितनी समझा के हार गया मानता नहीं।

कादिर—यह उमिर ही ऐसी होती है।

यही बातें हो रही थी कि एक बटोही आ कर अलाव के पास खड़ा हो गया। उसके पीछे-पीछे एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अलाव से दूर सिर झुका कर बैठ गयी।

कादिर ने पूछा–कहाँ भाई, कहाँ घर है?

घर तो देवरी पार, अपनी बुढ़िया माता को लिये अस्पताल जाता था। मगर वह जो सड़क के किनारे बगीचे में डिप्टी साहब को लश्कर उतरा है, वहाँ पहुँचा तो चपरासी ने गाड़ी रोक ली और हमारे कपड़ेलत्ते फेक-फक कर लकड़ी लादने लगे। कितनी अरज-विनती की, बुढिया बीमार है, भर रात का चला हैं, आज अस्पताल नहीं पहुँचता तो कल न जाने इसका क्या हाल हो। मगर कौन सुनता है? मैं रोता ही रहा, वहां गाड़ी लद गयी। तब मुझसे कहने लगे, गाड़ी हाँक। क्या करूँ, अब गाड़ी हाँक कर सदर जा रहा हूँ। बैल और गाड़ी उनके भरोसे छोड़ कर आया हूँ। जब लकड़ी पहुँचा के लौटूँगा तब अस्पताल जाऊँगा। तुम लोगों में हो सके तो बुढ़िया के लिए एक खटिया दे दो और कहीं पड़े रहने का ठिकाना बता दो। इतना पुण्य करो, मैं बड़ी विपत्तियों में हूँ।

दुखरन यह बड़ा अंधेर है। यह लोग आदमी काहे कें, पूरे राक्षस हैं, जिन्हें दयाघरम का विचार नहीं।

डपट–दिन भर के थके-मदै बैल हैं, न जाने कहाँ गाड़ी जानी पड़ेगी और न जाने कब लौटोगे। तब तक बुढ़िया अकेली पड़ी रहेगी? जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े! हम लोग कितने भी हो, है तो पराये ही, घर के आदमी की और बात है।

मनोहर-मेरा तो ऐसा ही जी चाहता है कि इस दम डिप्टी साहब के सामने चला जाऊं और ऐसी खरी-खरी सुनाऊँ कि वह भी याद करेंगे। बड़े हाकिम के पोंग बने हैं। इन्साफ तो क्या करने, उल्टे और गरीबों को पीसते हैं। खटिया की तो कोई बात नहीं हैं और न जगह की ही कमी है, लेकिन यह अकेली रहेंगी कैसे?

बटोही--कैसे बताऊँ? जो भाग्य में लिखा है वही होगा।

मनोहर वहाँ से कोई तुम्हारी गाड़ी हाँक ले जाए तो कोई हरज है? [ ५६ ] बटोही-ऐसा हो जाय तो क्या पूछना। है कोई आदमी?

मनोहर आदमी बहुत है, कोई न कोई चला आयगा।

कादिर-तुम्हारा हलवाहा तो खाली है, उसे भेज दो।

मनोहर-हुलवाहे से बैल सधे न सधे, मैं ही चला जाऊँगा।

कादिर-तुम्हारे अपर मुझे विश्वास नहीं आता। कही झगड़ा कर बैठे तो और बन जाय। दुखरन भगत, तुम चले आओ तो अच्छा हो।

दुखरन ने नाक सिकोड़ कर कहा, मुझे तो जानते हो, रात को कहीं नहीं जाता। भजन-भाव की यही बेला है।

कादिर---चला तो मैं जाता, लेकिन मेरा मन कहता है कि बूढ़ी को अच्छा करने का जस मुझी को मिलेगा। कौन जाने अल्लाह को यही मंजूर हो। मैं उन्हें अपने घर लिए जाता हूँ। जो कुछ बन पड़ेगा करूंगा। माली हसनू से हँकवाये देता हूँ। बैलो को चारा-पानी देना है, बलराज को थोड़ी देर के लिए भेज देना।

कादिर के बरौठे में वृद्धा की चारपाई पड़ गयी। कादिर का लड़का हसनू गाठी हाँकने के लिए पड़ाव की तरफ चला। इतने मे सुक्खू चौधरी और गौस खाँ दो चपरासियों के साथ आते दिखायी दिये। दूसरी ओर से बलराज भी आ कर खड़ा हो गया।

गौस खाँ ने कहा, सब लोग यहाँ के गलथौड़ कर रहे हो, कुछ लश्कर की भी खबर है? देखो, यही चपरासी लोग दूध के लिए आये हैं, उसका बदोबस्त करो।

कादिर-कितना दूध चाहिए?

एक चपरासी–कम से कम दस सैर।

कादिर-दस सेर। इतना दूध तो चाहे गाँव भर में न निकले। दो ही चार आदमियों के पास तो भैसें है और वह भी दुधार नहीं है। मेरे यहाँ तो दोनों जून में सैर भर से ज्यादा नहीं होता।

चपरासी–भैसे हमारे सामने लाओ, दूध तो हमारा चपरास निकालता है। हम पत्थर से दूध निकाल लें। चोरों के पैट की बात तक निकाल लेते है, भैसें तो फिर भैसे है। इस चपरासी में वह जादू है, किं चाहे तो जंगल में मंगल कर दें। लाओ, भैसे यहां खड़ी करो।

गौस खाँ---इतने तूल-कलाम की क्या जरूरत है? दूध का इंतजाम हो जायेगा। दो सेर सुक्खू देने को कहते हैं। कादिर के यहाँ दो सेर मिल ही जायगा, दुखरन भगत। दो सेर देंगे, मनोहर और डपटसिंह भी दो-दो सेर दे देंगे। बस हो गया।

कादिर-मैं दो-चार सेर का बीमा नहीं लेता। यह दोनों भैसे खड़ी हैं। जितना दूध दें दें उतना ले लिया जाय।

दुखरन--मेरी तो दोनों भैसे गाभिन है। बहुत देंगी तो आधा सेर। पुवाल तो खाने को पाती हैं और वह भी आधा पेट। कही चराई है नहीं, दूध कहाँ से हो?

डपटसिंह-सुक्खू चौधरी जितना देते हैं, उसको आधा मुझसे ले लीजिए। हैसियत के हिसाब से न लीजिएगा। [ ५७ ]गौस खाँ–तुम लोगों की यह निहायत बेहुदी आदत हैं कि हर बात मे लाग-डांट करने लगते हो। शराफत और नरमी से आया भी न दोगे, लेकिन सख्ती से पूरा लिए हाजिर हो जाओगे। मैंने तुमसे दो सेर कह दिया है, इतना तुम्हें देना होगा।

डपट-इस तरह आप मालिक हैं, भैसे खोल ले जाइए, लेकिन दो सेर दूध मेरे यहाँ न होगा।

गौस खाँ—मनोहर तुम्हारी भैसे तो दुधार है?

मनोहर ने अभी जवाब न दिया था कि बलराज बोल उठा मेरी भैसे बहुत दुधारे हैं, मन भर दूघ देती हैं, लेकिन बेगार के नाम से छटाँक भर भी न देगी।

मनोहर--तू चुपचाप क्यों नहीं रहता? तुमसे कौन पूछता है? हमसे जितना हो सकेगा देंगे, तुमसे मतलब?

चपरासी ने बलराज की और अपमानजनक क्रोध से देख कर कहा, महतो, अभी इम लोगों के पंजे में नहीं पड़े हो। एक बार पड़ जायोगे तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा। मुंह से बाते न निकलेगी।

दूसरा चपरासी--मालूम होता है, सिर पर गरमी बढ़ गयी है तभी इतना ऐठ रहा है। इसे लश्कर ले चलो तो गरमी उतर जाय।

बलराज ने मर्माहत हो कर कहा, मियाँ, हमारी गरमी पाँच-पाँच रुपल्ली के चपरासियों के मान की नहीं है, जाओ, अपने साहब बहादुर के जूते सीधे करो, जो तुम्हारा काम हैं, हमारी गरमी के फेर में न पड़ो, नहीं तो हाथ लग जायेंगे। उस जन्म के पापों का दंड भोग रहे हो, लेकिन अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलती है।

बलराज ने यह शब्द ऐसी सगर्व गम्भीरता से कहे कि दोनों चपरासी खिसिया-से गये। इस घोर अपमान का प्रतिकार करना कठिन था। यह मानो वाद को वाणी की परिधि से निकाल कर कर्म के क्षेत्र में लाने की ललकार थी। व्यगाघात शाब्दिक कलह की चरम सीमा हैं। उनका प्रतिकार मुँह से नहीं हाथ से होता है। लेकिन बलराज की चौड़ी छाती और पुष्ट भुजदण्ड देख कर चपरामियों को हाथापाई करने का साहस न हो सका। गौस खाँ में गोला, खाँ साहब, आप इस लौड़े को देखते हैं, कैसा बढ़ा जाता है? इसे समझा दीजिए, हमारे मुंह न लगें। ऐसा न हो शामत आ जाये और छह महीने तक चक्की पीसनी पड़े। हम आप लोगों का मुलाहिजा करते हैं, नहीं तो न हेकड़ी का मजा चखा देते।

गौस खाँ-सुनते ही मनोहर, अपने बेटे की बात भला सोचो तो डिप्टी साहब के कानों में यह बात पड़ जाय तो तुम्हारी क्या हाल हो? कही एक पत्ती को साया भी न मिलेगा।

मनोहर ने दीनता से खाँ साहब की ओर देखकर कहा, 'खाँ साहब, मैं तो इसे सब तरह से समझा-बुझा कर हार गया। न जाने क्या हाल करने पर तुला है? (बलराज से) अरे, तू यहां से जाएगा कि नहीं?

बलराज-- क्यों जाऊं, मुझे किसी का डर नहीं हैं। यह लोग डिप्टी साहब से मेरी [ ५८ ] शिकायत करने की धमकी देते है, मैं आप ही उनके पास जाता हैं। इन लोगों को उन्होंने कभी ऐसा नादिरशाही हुक्म न दिया होगा कि जा कर गाँव मे आग लगा दी। और मान लें कि वह ऐसा कड़ा हुक्म दे भी दे, तो इन लोगों को तो सोचना चाहिए कि गरीब किसान भी हमारे भाई बन्द है, इन्हें व्यर्थ न सताये। लेकिन इन लोगों को तो पैसे के लोभ और चपरास के मद ने ऐसा अन्धा बना दिया है कि कुछ सूक्षता ही नहीं। आज उस बेचारी बुढ़िया का क्या हाल होगा, मरेगी कि जियेगी। नौकरी तो की है। पाँच रुपये की, काम है बस्ते ढोना, मेज साफ करना, साहब के पीछे-पीछे खिदमतगारों की तरह चलना और बनते है रईस'

मनोहर-तू चुप होगा कि नहीं?

एक चपरासी–नहीं, इसे खूब गालियाँ दे लेने दो, जिसमे इसके दिल की हवस निकल जाय। इसका मजा कल मिलेगा। खाँ साहब, आपने सुना है, आपको गवाही देनी पड़ेगी। आपका इतना मुलाहिजा बहुत किया। लाइए, दूध का कुछ इतजाम करते है कि हम लोग जायें?

गौस खाँ–नहीं जी, दुध लो, और दस सेर से ज्यादा। यह लोग झख मारेंगे। क्या बताये आज इस छोकड़े की बदौलत हमको तुम लोगों के सामने इतना शर्मिंदा होना पड़ा। इस गाँव की कुछ हवा ही बिगड़ी हुई है। मैं खूब समझता हूँ। यह लोग जो भीगी बिल्ली बने बैठे हुए हैं, इन्हीं के शह देने से लौड़े को इतनी जुर्रत हुई है, नहीं तो इसकी मजाल थी कि यो टर्राता। बछड़ा खूँटे के ही बल कूदता है। खैर, अगर मेरा नाम गौस खाँ है तो एक-एक से समझूँगा।

इस तिरस्कार को आशातीत प्रभाव हुआ। सब दहल उठे। वह अविनयशीलता, जो पहले सब के चेहरे से झलक रहीं थी, लुप्त हो गयी। मनोहर तो ऐसा सिटपिटा गयी, मानों सैकड़ो जूते पड़े हो। इस खटाई ने सबके नशे उतार दिये।

कादिर खाँ बोले--मनोहर, जाओ, जितना दूध है सब यह भेज दो।

गौस खाँ-हमको मनोहर के दूध की जरूरत नहीं है।

बलराज--यहाँ देता ही कौन है?

मनोहर खिसिया गया। उठ खड़ा हुआ और बोला, अच्छा ले अब तू ही बोल, जो तेरे जी में आये कर, मैं जाता हूँ। अपना घर-द्वार संभाल, मेरा निबाह तेरे साथ न होगा। चाहे घर को रख, चाहे आग लगा दे।

यह कह कर वह सशंक क्रोध से भरा हुआ वहाँ से चल दिया। बलराज भी धीरे-धीरे अपने अखाड़े की ओर चला। वहीं इस समय सन्नाटा था। मुगदर की जोड़ी रखी हुई थी। एक पत्थर की नाल जमीन पर पड़ी हुई थी, और लेजिम आम की डाल से लटक रहा था। बलराज ने कपड़े उतारे और लँगोट कस कर अखाड़े में उत्तरा, लेकिन आज व्यायाम में उसका मन न लगा। चपरासियों की बात एक फोड़े की भाँति उसके हृदय में टीस रही थी। यद्यपि उसने चपरासियों को निर्भय हो कर उत्तर दिया था, लेकिन उसे इसमे तनिक भी संदेह न था कि गाँव के अन्य पुरुषों को, यहाँ तक कि मेरे [ ५९ ]पिता को भी, मेरी बातें उद्दड़ प्रतीत हुई। सब के सब कैसा सन्नाटा खीचे बैठे रहे। मालूम होता था किसी के मुंह में जीभ ही नहीं है। तभी तो यह दुर्गति हो रही है। अगर कुछ दम हो तो आज इतने पीनै-कुचले क्यों जाते है और तो और, दादा ने भी मुझी को डाँटा। न जाने इनके मन में इतना डर क्यों समा गया है। पहले तो ये इतने कायर न थे। कदाचित् अब मेरी चिन्ता इन्हे सताने लगी। लेकिन मुझे अवसर मिला तो स्पष्ट कह दूंगा कि तुम मेरी और से निश्चित रहो। मुझे परमात्मा ने हाथ-पैर दिये है। मिहनत कर सकता हूँ और दो को खिलीकर खा सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने खेत इतने प्यारे है कि उनके पीछे तुम अत्याचार और अपमान सहने पर तैयार हो तो शौक से सहो, लेकिन मैं ऐसे खेत पर लात मारता हूँ। अपने पसीने की रोटी खाऊँगा और अकड़ कर चलूंगा। अगर कोई आँख दिखायेगा तो उसकी आँख निकाल लूँगा। यह बुड्ढा गौस खाँ कैसी लाल-पीली आँख कर रहा था, मालूम होता है। इनकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी हुई है। मुझपर दो चोट कर चुके हैं। अब देखता हैं कौन हाथ निकालते हैं। इनका क्रोध मुझ पर उतरेगा। कोई चिन्ता नहीं, देखा जायगा। दोनों चपरासी मन में फूले न समाये होंगे कि सारा गाँव कैसा रोब में आ गया, पानी भरने को तैयार है। गांव वालों ने भी लल्लो-चप्पों की होगी। कोई परवाह नहीं। चपरासी मेरा कर ही क्या सकते हैं लेकिन मुझे कल प्रात काल डिप्टी साहब के पास जा कर उनसे सब हाल कह देना चाहिए। विद्वान पुरुष है। दीन जनों पर उन्हें अवश्य दया आयेगी। अगर वह गाड़ीयों के पकड़ने की मनाही कर दे तो क्या पूछना? उन्हें यह अत्याचार कभी पसंद न आता होगा। यह चपरासी लोग उनसे छिपा कर यों जबरदस्ती करते हैं। लेकिन कहीं उन्होंने मुझे अपने इजलास से खड़े-खड़े निकलवा दिया तो बड़े आदमियों को घमंड बहुत होता है। कोई हरज नहीं मैं सड़क पर खड़ा हो जाऊँगा और देखूँगा कि कैसे कोई मुसाफिरों की गाड़ी पकड़ता है। या तो दो-चार का सिर तोड़ के रख दूंगा या आप भी वहीं मर जाऊँगा। अब बिना गरम पड़े काम नहीं चल सकता। वह दादा बुलाने आ रहे है।

बलराज अपने बाप के पीछे-पीछे घर पहुंचा। रास्ते में कोई बात-चीत नहीं हुई। दिलासी बलराज को देकर बोली, कहीं जाके बैठ रहे? तुम्हारे दादा कब से खोज रहे। हैं। चलो, रोटी तैयार हैं।

बलराज---अखाड़े की ओर चला गया था।

बिलसी--तुम अखाड़े मत जाया करो।

बलराज--क्यों?

बिलसी–क्यों क्या, देखते नहीं हो, सबकी आँखे में कैसे चुभते हो? जिन्हें तुम अपना हितैषी समझते हो, वह सब के सब तुम्हारी जान घातक हैं। तुम्हें आग में ढकेलकर आप तमाशा देखेंगे। आज ही तुम्हें सरकारी आदमियों से भिड़ाकर कैसा दुबक गए।

बलराज ने इस उपदेश का उत्तर न दिया। चौके पर जा बैठा। उसके एक [ ६० ]ओर मनोहर था और दूसरी ओर जरा हट कर उनका हलवाहा रंगी चमार बैठा हुआ या। बिलसी ने जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ, बथुआ का शाक और अरहर की दाल तीन थालियों में परोस दी। तब एक फूल के कटौरे में दूध ला कर बलराज के सामने रख दिया।

बलराज—क्या और दूध नहीं है?

बिलसी—दूध कहाँ है, बेगार में नहीं चला गया?

बलराज—अच्छा, यह कटोरा रंगी के सामने रख दो।

बिलसी—तुम खा लो, रंगी एक दिन दूध न खायेगा तो दुबला न हो जायेगा।

बलराज बेगार का हाल सुनकर क्रोध में आग हो रहा था। कटोरे को उठा कर आँगन की ओर ज़ोर से फेंक दिया। वह तुलसी के चबूतरे से टकरा कर टूट गया। बिलसी ने दौड़ कर कटोरा उठा लिया और पछताते हुए बोली, तुम्हें क्या हो गया है? राम, राम ऐसा सुंदर कटोरा चूर कर दिया। कहीं सनक तो नहीं गये हो?

बलराज—हाँ, सनक ही गया हूँ।

बिलसी—किस बात पर कटोरे को पटक दिया?

बलराज—इसी लिए की जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहूत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खायें, बुरा खायें तो सब खायें; लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं हैं, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे ने कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़ कर काम मैं करूँ और मूँछों पर ताव देकर खायें यह लोग। ऐसे दूध-भी खाने पर लानत है।

रंगी ने कहा—भैया नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक़-नाहक इनसे ख़फ़ा हो गए।

इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पी कर बलराज और रंगी अन्न की रखवाली करने नादिया की तरफ़ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने ख़ूब दम लगाए। जब दोनों अन्न के छिलके के बिछावन पर कम्बल ओढ़ कर लेटे तो रंगी बोला, काहे भैया, आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी क्या?

बलराज—हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मना न किया होता तो दोनों को मारता।

रंगी—तभी दोनों तुम्हें बुरा भला कहने चले थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोल कर आरा था। मुझे देख कर दोनों चुप हो गए। मैंने इतना सुना, 'अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इल्ज़ाम लगा कर गिरफ़्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जाएँ तो इनकी शेखी उतर जाय।'

बलराज—अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया की मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब कि पास जाऊँगा।

रंगी—क्या करने जाओगे भैया। अच्छा आदमी नहीं हैं। बड़ी बड़ी सज़ा देता [ ६१ ]हैं। किसी को छोडना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है। जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निवट लेगा।

बलराज--वाह, लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाडी पकड़ी ही क्यो जाती ? सीधे का मुंँह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है।

रगी--तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज बहुत उदास थे और अमाँ रोती रही।

बलराज--क्या जाने क्यो रगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ मुझसे अन्याय नही देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ। तो मेरे बदन मे आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान है या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड नहीं फोड सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।

इसी तरह की बातें करते दोनो सो गये। प्रात काल बलराज घर गया, कसरत की, दूध पीया और अपना ढीला कुर्ता पहन, पगडी बाँध डिप्टी साहब के पडाव की ओर चल। मनोहर अब तक उनसे रूठे बैठे थे, अब जब्त न कर सके। पूछा, कहाँ जाते हो ?

बलराज–-जाता हूँ डिप्टी साहब के पास ।

मनोहर--क्यो सिर पर भूत मवार है? अपना काम क्यो नही देखते।

बलराज--देखूँगा कि पढ़े-लिखे लोगो का मिजाज कैसा होता है?

मनोहर--धक्के खाओगे, और कुछ नही ।

बलराज--धक्के तो चपरासियों के खाते हैं, इसकी क्या चिन्ता । कुते की जात पहचानी जायेगी।

मनोहर ने उसकी और निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से देखा और कधे पर कुदाल रख कर हार की ओर चल दिया। बलराज को मालूम हो गया कि अब यह मुझे छोडा हुआ नाइ समझ रहे हैं, पर वह अपनी धुन में मम्न धा। मनोहर का यह विचार कि इस समय समझाने का उतना अमर न होगा जितना विरक्ति-भाव का, निष्फल हो गया। वह यौही घर से बाहर निकला, बलराम ने भी लट्ठ कधे पर रखा और कैम्प की ओर चला। किसी हाकिम के सम्मुख जाने का यह पहला ही अवसर था। मन में अनेक विचार आते थे। मालूम नहीं मिले, या न मिले, कही मेरी बातें सुनकर बिगड न जायँ, मुझे देते ही सामने ने निकलवा न दे, चपरासियों ने मेरी शिकायत अवश्य की होगी। क्रोध में भरे बैठे होगे। बाबू ज्ञानशंकर में इन दोती भी तो हैं। उन्होंने भी हम लोगों को ओर में उनके कान खुब भरे होगे। मेरी मुख देखते ही जल जायेंगे। उँह जो कुछ हो, एक नया अनुभव तो हो जायगा। यह पढे-लिखे लोग तो हैं जो सभाओं में और लाट साहब के दरदार में इन लोगों की भलाई की रट लगाया करते हैं, हमारे नेता बनने हैं। देखूँगा कि यह लोग अपनी बातो के कितने घनी हैं।

बलराज कैम्प में पहुँचा तो देखा कि जगह-जगह लकड़ी के अलाव जल रहे हैं, कहीं पानी गर्म हो रहा है, कही चाय बन रही है। एक ओर बुचड़ बकरे का मांस काट रहा [ ६२ ]है, दूसरी ओर बिसेसर साह बैठे जिन्स तौल रहे है। चारों ओर घड़े और हाँड़ियों टूटी पड़ी थी। एक वृक्ष की छाँह में कितने ही आदमी सिकुड़े बैठे थे, जिनके मुकदमों की आज पेशी होनेवाली थी। बलराज पेड़ो की आड़ में होता हुआ ज्वालासिंह के खेमे के पास जा पहुँचा। उसे यह घड़का लगा हुआ था कि कहीं उन दोनों चपरासियों की निगाह मुझपर न पड़ जाय। वह खड़ा सोचने लगा कि डिप्टी साहब के सामने कैसे जाऊँ? उस पर इस समय एक रोब छाया हुआ था। खेमे के सामने जाते हुए पैर काँपते थे। अचानक उसे गौस खाँ और सुक्खू चौधरी एक पेड़ के नीचे आग तापते दिखाई पहे। अब वह खेमे के पीछे खड़ा न रह सका। उनके सामने धक्के खाना या डॉट सुनना मर जाने से भी बुरा था। वह जी कड़ा करके खेमे के सामने चला गया और ज्वालासिंह को सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया।

बाबू ज्वालासिंह एक न्यायशील और दयालु मनुष्य थे, किन्तु इन दो तीन महीना के दौरे में उन्हें अनुभव हो गया था कि बिना कड़ाई के मैं सफलता के साथ अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। सौजन्य और शालीनता निज के कामों मे चाहे कितनी ही सराहनीय हो, लेकिन शासन-कार्य में यह सद्गुण अवगुण बन जाते है, लोग उनसे अनुचित लाभ उठाने लगते है, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लेते है। अतएव न्याय और शौल में परस्पर विरोध हो जाता है। रसद और बेगार के विषय में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की चापलूसियाँ उनकी न्याय-नीति पर विजय पा गयी थी, और वह अज्ञात भाव से स्वेच्छाचारी अधिकारियों के वर्तमान साँचे में ढल गये थे। उन्हें अपने विवेक पर पहले से ही गर्व था, अब इसने आत्मश्लाघा का रूप धारण कर लिया था। वह जो कुछ कहते या करते थे उसके विरुद्ध एक शब्द भी न सुनना चाहते थे। इससे उनकी राय पर कोई असर न पड़ता था। वह निस्पृह मनुष्य थे और न्यायमार्ग से जी भर भी न ढलते थे। उन्हे स्वाभाविक रूप से यह विचार होता था कि किसी को मुझसे शिकायत न होनी चाहिए। अपने औचित्य-पालन का विश्वास और अपनी गौरवशील प्रकृति उन्हें प्राथियों के प्रति अनुदार बना देती थी। बलराज को सामने देख कर बोले, कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?

बलराज ने झुक कर सलाम किया। उसकी उद्दडता लुप्त हो गयी थी। डरता हुआ बोला, हुजूर से कुछ बोलना चाहता हूँ। ताबेदार का घर इसी लखनपुर में है।

ज्वालासिंह-क्या कहना है?

बलराज-कुछ नहीं, इतना ही पूछना चाहता हूँ कि सरकार को आज कितनी गाड़ियों की जरूरत होगी।

ज्वालासिंह—क्या तुम गाड़ियों के चौधरी हो?

बलराज--जी नहीं, चपरासी लोग सड़क पर जा कर मुसाफिरों की गाड़ियाँ रोकते हैं और उन्हें दिक करते है। मैं चाहता हूँ कि सरकार को जितनी गाड़ियाँ दरकार हो, उतनी आस-पास के गाँव से खोज लाऊँ। उनकी सरकार से जो किराया मिलता हो वह दे दिया जाय तो मुसाफिरों को रोकना न पड़े।

ज्वालासिंह ने अपना सामान लादने के लिए ऊँट रख लिए थे, किन्तु यह जानते [ ६३ ] थे कि मातहतों और चपरासियों को अपना असवाव लादने के लिए गाड़ियों की जरूरत होती है। उन्हें इसका खर्च सरकार से नहीं मिलता। अतएव वे लोग गाड़ियाँ न रोके, तो उनका काम ही न चले। यह व्यवहार चाहे प्रजा को कष्ट पहुँचाए, पर क्षम्य है। उनके विचार में यह कोई ऐसी ज्यादती न थी। संभव था कि यही प्रस्ताव किसी सम्मानित पुरुष ने किया होता, तो वह उस पर विचार करते, लेकिन एक अक्खड़, गँवार, मूर्ख देहाती को उनसे यह शिकायत करने का साहस हो, वह उन्हें न्याय का पाठ पढ़ाने का दावा करे, यह उनके आत्माभिमान के लिए असह्य था। चिढ़कर बोले, जाकर सरिश्तेदार से पूछो।

बलराज-हुजूर ही उन्हें बुला कर पूछ लें, मुझे वह न बतायेंगे।

ज्वालासिंह–मुझे इस दर्द-सिर की फुर्सत नहीं है।

बलराज के तीवर पर वल पड़ गये। शिक्षित समुदाय की नीति-परायणता और सज्जनता पर उसकी जो श्रद्धा थी, वह क्षण-मात्र में भंग हो गयी। इन सद्भावों की जगह उसे अधिकार और स्वेच्छाचार का अहंकार अकड़ता दीख पड़ा। अहंकार के सामने सिर झुकाना उसने न सीखा था। उसने निश्चय किया कि जो मनुष्य इतना अभिमानी हो और मुझे इतना नीच समझे, वह आदर के योग्य नहीं है। इनमें और गौस खाँ था मामूली चपरासियों में अंतर ही क्या रहा? ज्ञान और विवेक की ज्योति कहाँ गयी थी? निःशंक हो, कर बोला--सरकारे इसे सिर-दर्द समझते हैं और यहाँ हम लोगों की जान पर बनी हुई है। हुजूर यहाँ धर्म के आसन पर बैठे हैं, और चपरासी लोग परजा को लूटते फिरते हैं। मुझे आपसे यह विनती करने का हौसला हुआ, तो इसलिए कि मैं समझता था, आप दोनों की रक्षा करेंगे। अब मालूम हो गया कि हम अभागों का सहायक परमात्मा के सिवा और कोई नहीं।

यह कह कर वह विना सलाम किये ही वहाँ से चल दिया। उसे एक नशा-सा हो गया था। बातें अवज्ञापूर्ण थीं, पर उनमें स्वाभिमान और सदिच्छा कूट-कूट कर भरी हुई थी। ज्वालासिंह में अभी तक सहृदयता का सम्पूर्णतः पतन न हुआ था। क्रोध की जगह उनके मन में सद्भावना का विकास हुआ। अब तक इनके यहाँ स्वार्थी और खुशामदी आदमियों का ही जमघट रहता था। ऐसे एक भी स्पष्टवादी मनुष्य से उनका सम्पर्क न हुआ था। जिस प्रकार मीठे पदार्थ खाने से ऊब कर हमारा मन कड़वी वस्तुओं की और लपकता है, उसी भाँति ज्वालासिंह को यें कड़वी बातें प्रिय लगीं। उन्होंने उनके हृदय-नेत्रों के सामने से पदाभिमान का पर्दा हटा दिया। जी में तो आया कि इस युवक को बुला कर उससे खूब बातें करू, किन्तु अपनी स्थिति का विचार करके रुक गये। वह बहुत देर तक वैये हुए इन बातों पर विचार करते रहे। अंतिम् शब्दों ने उनकी आत्मा को एक ठोंका दिया था, और वह जाग्रत हो गई थी। मन में अपने कर्तव्य का निश्चय कर लेने के बाद उन्होंने अहमद-साहब को बुलाया। सैयद ईजाद हुसैन ने वलराज को जाते देख लिया! कल का सारा वृत्तांत उन्हें मालूम ही था। ताड़ गये कि लौंडर डिप्टौं साह्य के पास फरियाद ले कर आया होगा। पहले तो [ ६४ ] शंका हुई, कही डिप्टी साहब इसकी बातो में न आ गये हो। लेकिन जब उसकी बातो से ज्ञान हुआ कि डिप्टी साहब ने उल्टे और फटकार सुनाई तो धैर्य हुआ। बलराज को डॉटने लगे। यह अपने अफसरों के इशारे के गुलाम थे और उन्ही की इच्छानुसार अपने कर्तव्य का निर्माण किया करते थे।

बलराज इस समय ऐसा हताश हो रहा था कि पहले थोड़ी देर तक वह चुपचाप पड़ा ईजाद हुसेन की कठोर बाते सुनता रहा। अत मै गम्भीर भाव से बोला, आप क्या चाहते है कि हम लोगो पर अन्याय भी हो और हम फरियाद भी न करे?

ईजाद हुमेन--फरियाद की मजा तो चख लिया। अब चालान होता है तो देखे कहाँ जाते हो। सरकारी आदमियों से मुजाहिम होना कोई खाली जी का घर नहीं है। डिप्टी साहब को तुम लोगो की सरकशी का रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। बाबू ज्ञानशकर ने मारा कच्चा चिट्ठा उनसे क्यान कर दिया है। वह तो मौके की तलाश में थे। आज शाम तक सारा गाँव बँधा जाता है। गौस खों को सीधा पा लिया है, इसी से और हौ गये हो। अव सारी कसर निकल जाती है। इतने बेत पडेगे कि धज्जियाँ उड़ जायेगी।

बलराज-ऐसा कोई अधेर है कि हाकिम लोग बेकसूर किसी को सजा दे दें।

ईजाद हुसेन-हाँ हाँ, ऐसा ही अधेर है। सरकारी आदमियों को हमेशा बेगार मिली है और हमेशा मिलेगी। तुम गाडियाँ न दोगे तो वह क्या अपने सिर पर असबाब लादेगे? हमे जिन जिन चीजों की जरूरत होगी, तुम्ही से ली जायेगी। हँसकर दो या रो कर दो। समझ गये।

इतने में एक चपरासी ने कहा, चलिए, आप को सरकार याद करते हैं। ईजाद हुसेन पान खाए हुए थे। तुरत कुल्ली की, पगडी बाँधी और ज्यालासिंह के सामने जी कर सलाम किया।

ज्वालासिंह ने कहा, मीर साहब, चपरासियों को ताकीद कर दीजिए कि अब से कैम्प के लिए बेगार में गाडियाँ न पकडा करे। आप लोग अपना सामान मेरे ऊँटी पर रख लिया कीजिए। इससे आप लोगो को चाहे थोड़ी सी तकलीफ हो, लेकिन यह मुनासिब नहीं मालूम होता कि अपनी आसाइश के लिए दूसरो पर जत्न किया जाय।

ईजाद हुसैन----हुजूर बहुत वजा फरमाते है। आज से गाडियां पकड़ने की सख्त भुमानियत कर दी जायगी। बेशक यह सरासर जुल्म है।

ज्वालासिंह---चपरासियों से कह दीजिए कि मेरे इजलास के खेमे में रात को सो रहा करे। वेगार में पुआल लेने की जरूरत नहीं। गरीब किसान यही पुआल काटकाट कर जानवरों को खिलाते है, इसलिए उन्हें इसको देना नागवार गुजरता है।

ईजाद हुसैन-हुजूर का फर्माना बजा है। हुक्काम को ऐसा ही गरीबरपरवर होना चाहिए। लोग जमीदारो की सख्तियो से यौ ही परेशान रहते हैं, उस पर हुक्काम की वेगार तो और भी सितम हो जाती है।

ज्वालासिंह के हृदय में ज्ञानशकर के ताने अभी तक खटक रहे थे। यदि थोड़े से कप्ट से उनपर छीटे उझाने को सामग्री हाथ आ जाय तो क्या पूछना। ज्वालासिंह इस द्वेष के आवैग को न रोक सके। एक बार गांव में जा कर उनकी दशा आँखो से देखने का निश्चय किया। [ ६५ ]आठ बज चुके थे, किन्तु अभी तक चारों ओर कुहरा छाया हुआ था। लखनपुर के किसान आज छुट्टी सी मना रहे थे। जगह-जगह अलाव के पास बैठे हुए लोग कल की घटना की आलोचना कर रहे थे। बलराज की धृष्टता पर टिप्पणियाँ हो रही थीं। इतने में ज्वालासिंह चपरासियों और कर्मचारियों के साथ गाँव में आ पहुँचे। गौस खाँ और उनके दोनों चपरासी पीछे-पीछे चले आते थे। उन्हें देखते ही स्त्रियाँ अपने अघमँजे बर्तन छोड़ छोड़ कर घरों में घुसीं। बाल-वृद्ध भी इधर-उधर दबक गये। कोई हार पर कूड़ा उठाने लगा, कोई रास्ते में पड़ी हुई खाट उठाने लगा। ज्वालासिंह गाँव भ्रमण करते हुए सुक्खू चौधरी के कोल्हुआड़े में आ कर खड़े हो गये। सुक्खू चारपाई लेने दौड़े। गौस खाँ ने एक आदमी को कुरसी लाने के लिए चौपाल दौड़ाया। लोगों ने चारों ओर से आ-आ कर ज्वालासिंह को घेर लिया। अमंगल के भय से सब के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

ज्वालासिंह-तुम्हारी खेती इस साल कैसी है?

सुक्खू चौधरी को नेतृत्व का पद प्राप्त था। ऐसे अवसरों पर वहीं अग्रसर हुआ करते थे। पर वह अभी तक घर में से चारपाई निकाल रहे थे, जो बृहदाकार होने के कारण द्वारे से निकल न सकती थी। इसलिए कादिर खाँ को प्रतिनिधि का आसन ग्रहण करना पड़ा। उन्होंने विनीत भाव से उत्तर दिया, हजूर अभी तक अच्छी है, आगे अल्लाह मालिक है।

ज्वालासिंह-यहाँ मुझे आवपाशी के कुएँ बहुत कम नजर आते हैं, क्या जमींदार की तरफ से इसका इंतजाम नहीं है?

कादिर हमारे जमींदार तो हजूर हम लोगों की बड़ी परवस्ती करते हैं, अल्लाह उन्हें सलामत रखें। हम लोग आप ही आलम के मारे कोई फिकर नहीं करते।

ज्वालासिंह- मुंशी गौस खाँ तुम लोगों की सरक्शी की बहुत शिकायत करते हैं। बाबू ज्ञानशंकर भी तुम लोगों से खुश नहीं हैं, यह क्या बात है? तुम लोग वक्त पर लगान नहीं देते और जब तकाजा किया जाता है, तो फिसाद पर अमादा हो जाते हो। तुम्हें मालूम है कि जमींदार चाहे तो तुमसे एक के दो वसूल कर सकता है।

गजाधर अहीर ने दबी जुबान से कहा, तो कौन कहे कि छोड़ देते हैं!

ज्वालासिंह क्या कहते हो? सामने आ कर कहो।

कादिर-कुछ नहीं हुजूर, यही कहता है कि हमारी मजाल है जो अपने मालिक के सामने सिर उठायें। हम तो उनके तावेदार हैं, उनका दिया खाते हैं, उनकी जमीन में बसते हैं, भला उनसे सरकशी करके अल्लाह को क्या मुँह दिखायेंगे? रही बकाया, सो हजूर जहाँ तक होता है साल तमाम तक कौड़ी-कौड़ी चुका देते हैं। हाँ, जब कोई काबू नहीं चलता तो कभी थोड़ी बहुत बाक़ी रहे भी जाती है।

ज्वालासिंह ने इसी प्रकार से और भी कई प्रश्न किये, किन्तु उनका अभीष्ट पूरा न हो सका। किसी की जवान से गौस खाँ या बाबू नानशंकर के विरुद्ध एक शब्द भी न निकला। अंत में हार मान कर वह पड़ाव को चल दिये।