प्रेमाश्रम/७

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ४७ ]

जब तक इलाके का प्रबंध लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर दिया था। वर्षान्त पर उन्होंने बड़ी निर्दयता से लगान वसूल किया। एक कौड़ी भी बाकी न छोड़ी। जिसने रुपये न दिये या न दे सका, उस पर नालिश की, कुर्की करायी और एक का डेढ़ वसूल किया। शिकमी आदमियों को समूल उखाड़ दिया और उनकी भूमि पर लगान बढ़ा कर दूसरे आदमियों को सौंप दिया। मौरूसी और दखीलकार असामियों पर भी कर-वृद्धि के उपाय सोचने लगे। वह जानते थे कि कर-वृद्धि भूमि की उत्पादक शक्ति पर निर्भर है और इस शक्ति को घटाने-बढ़ाने के लिए केवल थोड़ी-सी वाक्-चतुरता की आवश्यकता होती है। सारे इलाके में हाहाकार मच गया। कर-वृद्धि के पिशाच को शांत करने के लिए लोग नाना प्रकार के अनुष्ठान करने लगे। प्रभात से संध्या तक खाँ साहब का दरबार लगा रहता! वह स्वयं मसनद लगा कर विराजमान होते। मुन्शी मौजीलाल पटवारी उनके दाहिनी और बैठते और मुक्खू चौधरी बायीं ओर। यह महानुभाव गाँव के मुखिया, सबसे बड़े किमान और सामर्थी पुरुष थे। असामियों पर इनका बहुत दबाव था, इमलिए नीतिकुशल खाँ साहब ने इन्हें अपना, मंत्री बना लिया था। यह त्रिमूर्ति समस्त इलाके की भाग्य विधायक थी।

खाँ साहब पहले अपने अवकाश का समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। अब यह समय कुरान का पाठ करने में व्यतीत होता था। जहाँ कोई फकीर या भिक्षुक द्वार [ ४८ ] पर खड़ा भी न होने पाता था, वहां अब अभ्यागतो का उदारतापूर्ण सत्कार किया जाता था। कभी-कभी वस्त्रदान भी होता। लोक-सिद्धि ने परलोक बनाने की सदिच्छा उत्पन्न कर दी थी।

अब खां साहब को विदित हुआ कि इस इलाके को विद्रोही समझने मे मेरी भूल थी। ऐमा विरला ही कोई असामी था जिसने उनकी चौखट पर मस्तक न नवाया हो। गांव में दस-बारह घर ठाकुरों के थे। उनमें लगान बड़ी कठिनाई से वसूल होता था। किन्तु इजाफा लगाने की खबर पाते ही वह भी दब गये। डपटसिंह उनके नेता थे। वह दिन में दम-पांच बार खाँ साहब को सलाम करने आया करते थे। दुखरन भगत शिव जी को जल चढ़ाने जाते समय पहले चौपाल का दर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। बस, अब समस्त इलाके में कोई विद्रोही था तो मनोहर था और कोई उसका वधु था तो कादिर। वह खेत से लौटता तो कादिर के घर जा बैठता और अपने दिनों को रोता। इन दोनो मनुष्यों को साथ बैठे देख कर सुक्खू चौधरी की छाती पर सांप लोटने लगता था। वह यह जानना चाहते थे कि इन दोनों मे क्या बातें हुआ करती हैं। अवश्य दोनों मेरी ही बुराई करते होगे। उन्हें देखते ही दोनों चुप हो जाते थे, इमसे चौधरी के संदेह की और भी पुष्टि हो जाती थी। खाँ साहब ने कादिर का नाम शैतान रख छोड़ा था और मनोहर को काला नाग कहा करते थे। काले नाग का तो उन्हें बहुत भय नहीं था, क्योंकि एक चोट से उसका काम तमाम कर सकते थे, मगर शैतान से डरते थे। क्योंकि उस पर चोट करना दुस्तर था। उम जवार मे कादिर का बड़ा मान था। वह बड़ा नीतिकुशल, उदार और दयालु था। इसके अतिरिक्त उसे जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान था। यहां हकीम, वैद्य, डाक्टर जो कुछ था वही था। रोग-निदान मे भी उसे पूर्ण अभ्यास था। इससे जनता की उसमें विशेष श्रद्धा थी। एक बार लाला जटाशंकर कठिन नेत्र रोग से पीड़ित थे। बहुत प्रयत्न किये, पर कुछ लाभ न हुआ, कादिर की जड़ी-बूटियों ने एक ही सप्ताह में इस असाध्य रोग का निवारण कर दिया। खाँ साहब को भी एक बार कादिर के ही नुस्खे ने प्लेग से बचा लिया था। खाँ साहब इस उपकार से तो नहीं, पर कादिर को सर्वप्रियता से मगन रहते थे। वह सदैव इसी उधेड़-बुन में रहते थे कि इस शैतान को कैसे पजे में लाऊँ।

किन्तु कादिर निश्चित और निश्शक अपने काम में लगा रहता था। उसे एक क्षण के लिए भी यह भय न होता था कि गांव के जमींदार और कारिन्दा मेरे शत्रु हो रहे हैं और उनकी शत्रुता मेरा सर्वनाश कर सकती है। यदि इस समय भी दैवयोग से खाँ साहब बीमार पड़ जाते, तो वह उनका इशारा पाते ही तुरंत उनके उपचार और सेवाशुश्रूषा में दत्तचित हो जाता। उसके हृदय में राग और द्वेष के लिए स्थान न था और न इस बात की ही परवाह थी कि मेरे विषय में कैसे-कैसे मिथ्यालाप हो रहे हैं! वह गांव में विद्रोहाग्नि भड़का सकता था, खाँ साहब और उनके सिपाहियों की खबर ले सकता था। गाँव में ऐसे कई उद्दंड नवयुवक थे, जो इस अनिष्ट के लिए आतुर [ ४९ ] थे किन्तु कादिर उन्हें संभाले रहता था। दीनरक्षा उसका लक्ष्य था, किन्तु क्रोध और द्वेष को उभार कर नहीं, वरन् सद्व्यवहार तथा सत्य प्रेरणा से।

मनोहर की दशा इनके प्रतिकूल थी। जिस दिन से वह ज्ञानशंकर की कठोर बातें सुन कर लौटा था, उसी दिन से विकृत भावनाएँ उनके हृदय और मस्तिष्क में गूंजती रहती थी। एक दीन मर्माहत पक्षी था, जो घावों से तड़प रहा था। वह अपशब्द उसे एक क्षण भी न भूलते थे। वह ईट का जवाब पत्थर से देना चाहता था। वह जानता था कि सबलों से बैर बढ़ाने से मेरा ही सर्वनाश होगा, किन्तु इस समय उसकी अवस्था उस मनुष्य की-सी हो रही थी, जिसके झोपड़े में आग लगी हो और वह उसके बुझाने में असमर्थ हो कर शेष भागों में भी आग लगा दे कि किसी प्रकार इस विपत्ति का अंत हो। रोगी अपने रोग को असाध्य देखता है, तो पथ्यापथ्य की बेड़ियों को तोड़ कर मृत्यु की ओर दौड़ता है। मनोहर चौपाल के मामने से निकलता तो अकड़ कर चलने लगता। अपनी चारपाई पर बैठे हुए कभी खाँ साहब या गिरधर महाराज को आते देखता, तो उठ कर सलाम करने के बदले पैर फैलाकर लेट जाता। सावन में उसके पेड़ों के आम पके, उसने सब आम तोड़ कर घर में रख लिये, जमींदार का चिरकाल से बंधा हुआ चतुर्थाश न दिया और जब गिरधर महाराज मांगने आये तो उन्हें दुत्कार दिया। वह सिद्ध करना चाहता था कि मुझे तुम्हारी धमकियों को जरा भी परवाह नहीं है। कभी-कभी नौ-दस बजे रात तक उसके द्वार पर गाना होता, जिसका अभिप्राय केवल खाँ साहब और नुक्खू चौधरी को जलाना था। बलराज को अब वह स्वेच्छाचार प्राप्त हो गया, जिसके लिए पहले उसे झिड़कियां खानी पड़ती थी। उसके रंगीले सहचरी का यहाँ खूब आदर-सत्कार होता, भंग छनती, लकड़ी के खेल होते, लावनी और ख्याल की ताने उड़ती, डफली बजती। मनोहर जवानी के जोश के साथ इन जमघटो में सम्मिलित होता। ये ही दोनों पक्षों के विचार विनिमय के माध्यम थे। खाँ साहब को एक-एक बात की सूचना यहाँ हो जाती थी। यहाँ का एक-एक शब्द वहाँ पहुँच जाता था। यह गुप्त चाले आग पर तेल छिड़कती रहती थी। खाँ साहब ने एक दिन कहा, आजकल तो उधर खूब गुलछरें उड़ रहे हैं, बेदखली का सम्मन पहुंचेगा तो होश ठिकाने हो जायगा। मनोहर ने उत्तर दिया, बेदखली की धमकी दूसरों को दे, यहाँ हमारे खेत के मेड़ों पर कोई आया तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोयेंगे।

एक दिन संध्या समय, मनोहर द्वार पर बैठा हुआ बैलों के लिए कड़वी छांट रहा था और बलराज अपनी लाठी में तेल लगाता था कि ठाकुर डपटसिंह आ कर माचे पर बैठ गये और बोले, सुनते है डिप्टी ज्वालासिंह हमारे बाबू साहब के पुराने दोस्त हैं। छोटे सरकार के लड़के थानेदार थे, उनका मुकद्दमा उन्हीं के इजलास में था। वह आज बरी हो गये।

मनोहर-रिसवत तो साबित हो गयी थी न?

डपटसिंह-हाँ साबित हो गयी थी। किसी को उनके बरी होने की आशा न थी। [ ५० ] पर बाबू ज्ञानशंकर ने ऐसी सिफारिस पहुंचायी कि डिप्टी साहब को मुकदमा खारिज करना पड़ा।

मनोहर-हमारे परगने का हाकिम भी तो वही डिप्टी है।

डपट-हां, इसी की तो चिन्ता है। इजाफा लगान का मामला उसी के इजलास मे जायगा और ज्ञान बाबू अपना पूरा जोर लगायेंगे।

मनोहर-तब क्या करना होगा?

डपट-कुछ समझ में नहीं आता।

मनोहर-ऐसा कोई कानून नहीं बन जाता कि बेसी का मामला इन हाकिमों के इजलास मे न पेश हुआ करे। हाकिम लोग भी तो ज़मीदार होते है, इसलिए वह जमीदारों का पक्ष करते है। सुनते है, लाट साहब के यहाँ कोई पंचायत होती है। यह बातें उस पंचायत में कोई नहीं कहता?

डपट-वहाँ भी तो सब जमींदार ही होते हैं, काश्तकारों की फरयाद कौन करेगा। मनोहर-हमने तो ठान लिया है कि एक कौड़ी भी बेसी न देंगे। बलराज ने लाठी कधे पर रख कर कहा, कौन इजाफा करेगा, सिर तोड़ के रख दूंगा।

मनोहर-तू क्यों बीच में बोलता है? तुझसे तो हम नहीं पूछते। यह तो न होगा कि सांझ हो गयी है, लाओ भैस दुह लूँ, बैल की नाद में पानी डाल दूं। बे बात की बात बकता है। (ठाकुर से) यह लौंडा घर का रत्ती भर काम नहीं करता, बस खाने भर का घर से नाता है, मटरगस किया करता है।

डपट-मुझसे क्या कहते हो, मेरे यहाँ तो तीन-चीन मूसलचद हैं।

मनोहर-मैं तो एक कौड़ी बेसी न दूंगा, और न खेत ही छोड़ेंगा। खेतो के साथ जान भी जायगी और दो-चार को साथ ले कर जायगी।

बलराज-किसी ने हमारे खेतों की ओर आंख भी उठायी तो कुशल नहीं।

मनोहर-फिर बीच में बोला?

बलराज क्यों न बोलू, तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी वह तो हमारे ही सिर पड़ेगी। जमींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और हम मुंह न खोले। इस जमाने में वो बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, जमींदार किस गिनती में है। कचहरी-दरबार में कही सुनायी नहीं है तो (लाठी दिखला कर) यह तो कहीं नहीं गयी है।

डपट-कही खाँ साहब यह बातें सुन ले तो गजब हो जाय।

बलराज-तुम खाँ साहब से डरो, यहाँ उनके दबैल नहीं है। खेत मे चाहे कुछ उपज हो या न हो, वैसी होती चली जाय, ऐसा क्या अंधेर है? सरकार के घर कुछ तो न्याय होगा, किस बात पर बेसी मंजूर करेगी।

डपट-अनाज का भाव नहीं चढ़ गया है?

बलराज-भाव चढ़ गया है तो मजदूरों की मजदूरी भी तो चढ़ गयी है, बैलों का [ ५१ ] दाम भी तो चढ़ गया है, लोहे-लक्कड़ को दाम भी तो चढ़ गया है, यह किस के घर से आयेगा?

इतने में तो कादिर मियाँ घास को गर सिर पर रखे हुए आकर खड़े हो गये। बलराज की बातें सुनीं तो मुस्कराकर बोले, भाँग का दाम भी तो चढ़ गया है। चरस भी महँगी हो गयी है, कत्था-सुपारी भी तो दूने दामों बिकती हैं, इसे क्यों छोड़े जाते हो,

मनोहर-हाँ, कादिर दादा, तुमने हमारे मन की कही।

बलराज- तो क्या अपनी जवानी में तुम लोगों ने बूटी-भाँग न पी होगी?

सदी इसी तरह एक जून चबेना और दूसरी जून रोटी-साग खा कर दिन काटें हैं? और फिर तुम जमींदार के गुलाम बने रहो तो उस जमाने में और कर ही क्या सकते थे? न अपने खेत में काम करते, किसी दूसरे के खेत में मजूरी करते। अब तो शहरों में मजूरों की माँग है, रुपया रोज खाने को मिलता है, रहने को पक्का घर अलग। अब हम जमींदारों की धौंस क्यों सहें, क्यों भर पेट खाने को तरसे?

कादिर--क्यों मनोहर, क्या खाने को नहीं देते?

बलराज---यह भी कोई खाना है कि एक आदमी खाय और घर के सव आदमी उपास करें? गाँव में सुक्खू चौधरी को छोड़ कर और किसी के घर दोनों बेला चूल्हा जलता है? किसी को एक जून चबेना मिलता है, कोई चुटकी भर सत्तू फाँक कर रह जाता है। दूसरी बेला भी पेट भर रोटी नहीं मिलती।

कादिर--भाई, बलराज बात तो सच्ची कहता है। इस खेती में कुछ रह नहीं गया, मजदूरी भी नहीं पड़ती। अब मेरे ही घर देखो, कुल छोटे-बड़े मिलाकर दस बादमी हैं, पाँच-पाँच रुपये भी कमाते तो छह सौ रुपये साल भर के होते। खा-पी कर पचास रुपये बच ही रहते। लेकिन इस खेती में रात-दिन लगे रहते हैं, फिर भी किसी को भर पेट दाना नहीं मिलता।

डपट बस, एक मरजाद रह गयी हैं, दूसरे की मजूरी नहीं करते बनती। इसी बहाने से किसी तरह निबाह हो जाता हैं। नहीं तो बलराज की उसिर में हम लोग खेत के डाँढ़ पर न जाते थे। न जाने क्या हुआ कि जमीन की वरक्कत ही उठ गयी। जहाँ बीघा पीछे बीस-बीस मन होते थे, वहाँ अब चार-पाँच मन से आगे नहीं जाता।

मनोहर-सरकार को यह हाल मालूम होता तो जरूर कास्तकारों पर निगाह करती।

कादिर---मालूम क्यों नहीं है? रत्ती-रत्ती का पता लगा लेती है।

डपट----(हँसकर) बलराज से कहो, सरकार के दरबार में हम लोगों की ओर से फरियाद कर आये।

बलराज---तुम लोग तो ऐसी हँसी उड़ाते हो, मानो कास्तकार कुछ होता ही नहीं। वह जमींदार की वेगार ही भरने के लिए बनाया गया है; लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिला है कि रूस देश में कास्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं। करते हैं। उसी के पास कोई और देशं वलगारी है। वहाँ अभी हाल की बात है, [ ५२ ] कास्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानो और मजदूरों की पंचायत राज करती है।

कादिर--(कुतूहल से) तो चलो ठाकुर। उसी देश में चले, वहीं मालगुजारी न देनी पड़ेगी।

डपट-वहाँ के कास्तकार बड़े चतुर और बुद्धिमान होगे तभी राज सँभाल होगे।

कादिर-मुझे तो विश्वास नही आता।

मनोहर--हमारे पत्र में झूठी बाते नहीं होती।

बलराज-पत्रवाले झूठी बाते लिखे तो सजा पा जायें।

मनोहर-जब उस देश के किसान राज का बदोवस्त कर लेते है, तो क्या हम लोग लाट साह्न से अपना रोना भी न रो सकेगे?

कादिर-तहसीलदार साहब के सामने तो मुँह झुलता नहीं, लाट साहब से कौन फरियाद करेगा?

बलराज-तुम्हारा मुँह न खुलै, मेरी तो लाट साहब से बातचीत हो, तो सारी कथा। कह सुनाऊँ।

कादिर-अच्छा, अब की हाकिम लोग दौरे पर आयेगे, तो हम तुम्ही को उनके सामने खड़ा कर देगे।

यह कह कर कादिर खाँ घर की ओर चले। बलराज ने भी लाठी कंधे पर रखी और उनके पीछे चला। जब दोनो कुछ दूर निकल गयें तब बलराज ने कहा, दादा कहो तो खाँ साहव की (घूसे का इशारा करके) कर दी जाये।

कादिर नै चौक कर उसकी ओर देखा, क्या गाँव भर को बंधवाने पर लगे हौ? भूल कर भी ऐसा काम न करना।

बलराज----सब मामला लैस है, तुम्हारे हुकुम की देर है।

कादिर--(कान पकड़ कर) नही, मैं तुम्हें आग में कूदने की सलाह न दूंगा। जब अल्लाह को मजूर होगा तब वह आप ही यहाँ से चले जायेंगे।

बलराज----अच्छा तो बीच में न पड़ोगे न?

कादिर---तो क्या तुम लोग सचमुच मार-पीट पर उतारू हो क्या? हमारी बात न मानोगे तो मैं जा कर थाने में इत्तला कर दूंगा। यह मुझसे नही हो सकता कि तुम लौग गाँव में आग लगाओ और मैं देखता हूँ।

बलराज तो तुम्हारी सलाह है नित यह अन्याय सहते जायें।

कादिर–जब अल्लाह को मंजूर होगा तो आप-ही-आप सब उपाय हो जायगा।