बिखरे मोती/एकादशी
एकादशी
[ १ ]
शहर भर में डाक्टर मिश्रा के मुक़ाविले का कोई
डाक्टर न था । उनकी प्रैकटिस खूब चढ़ी-
बढ़ी थीं। यशस्वी हाथ के साथ ही साथ वे बड़े विनोद
प्रिय, मिलनसार और उदार भी थे। उनकी प्रसन्न मुद्रा और
उनकी उत्साहजनक बातें मुद्दों में भी जान डाल देती थीं।
रोता हुआ रोग भी हंसने लगता था। वे रोगी के साथ
इतनी घनिष्टता दिखलाते कि जैसे बहुत निकट सम्बन्धी
या मित्र हो। कभी-कभी तो बीमार की उदासी दृर ने
के लिए उसके हृदय में विश्वास और आशा का संचार
करने के लिए वे रोगी के पास घंटो बैठ कर न जाने कहाँ कहाँ की बातें किया करते है।
उन्हें बच्चों से भी विशेष प्रेम था । यही कारण था कि वे जिघर से निकल जाते बच्चे उनसे हाथ मिलाने के लिए दौड़ पड़ते । और सबसे अधिक बच्चों को अपने पास खींच लेने का आकर्षण, उनके पास था, उनके जेब की मीठी गोलियाँ, जिन्हें वे केवल बच्चों के ही लिए रखा करते थे। वे होमियोपैथिक चिकित्सक थे । बच्चे उनसे मिलकर बिना दवा खाए मानते ही न थे, इसलिए उन्हें सदा अपने जेब में बिना दवा की गोलियाँ रखनी पड़ती थीं।
एक दिन इसी प्रकार बच्चों ने उन्हें आ घेरा । आज
उनके ताँगे पर कुछ फल और मिठाई थी, जिस
उनके एक मरीज़ ने उनके बच्चों के लिए रख दिया
था । डाक्टर साहब ने आज दुवा को भीठी गोलियों के
स्थान में मिठाई देना प्रारम्भ किया। उन बच्चों में एक
दस वर्ष की बालिको भी थी जिसे डाक्टर साय मैं पहिली
री बार अपने इन छोटे-छोट मित्रों में देखा था। बालिका
की मुखाकृवि और विशेष कर आँखों में एक ऐसी भोली
और चुभती हुई मोहकती थी कि उसे स्मरण रखने के
लिए उसके मुँह की ओर दूसरी बार देखने की आवश्यकता न थी । दूसरे बच्चों की तरह डाक्टर साहब ने उसे भी मिठाई देने के लिए हाथ बढ़ाया । किन्तु बालिका ने कुछ लज्जा और संकोच के साथ सिमट कर सिर हिलाते हुए मिठाई लेने से इन्कार कर दिया । बालक और मिठाई न ले, यह बात जरा विचित्र सी थी । डाक्टर ने एक की, जगह दो लड्डू देते हुए उससे फिर बड़े प्रेम के साथ लेने के लिए अग्रह किया। बालिका ने फिर सिर हिलाकर अस्वीकृति की सूचना दी । तब डाक्टर साहब ने पूछा-
-
-"क्यों बिटिया ! मिठाई क्यों नहीं लेती ?”
-"आज एकादशी है । आज भी कोई मिठाई खाता है।”
डाक्टर साहब हँस पड़े और बोले-"यह इतने बच्चे खा रहे है सो ?"
-“आदमी खा सकते हैं औरतें नहीं खातीं । हमारी दादी कहती हैं कि हमें एकादशी के दिन अन्न नहीं खाना चाहिए ।"
-"तो तुम एकादशी करती हो ?”
–“क्यों नहीं ? हमारी दादी कहती हैं कि हमें नेम धरम
से रहना चाहिए ।"
डाक्टर साहब ने दिन में बहुत से रोगी देखे, बहुत से बच्चों से प्यार किया और संभवतः दिन भर चह बालिका को भूले भी रहे । किन्तु रात को जब सोने के लिए लैम्प बुझा कर वे खाट पर लेटे तो बालिका की स्मृति उनके सामने आ गई। वह लज्जा और संकोच भरी आँखे,वह भोला किन्तु ढृढ निश्चयी चेहरा ! वह मिठाई न लेने की अस्वीकृति का चित्र ! उनकी आँवों के सामने खिच गया।
[ २ ]
बाद में डाक्टर साहब को मालूम हुआ कि वह एक
दूर के मुहल्ले में रहती है। उसका पिता एक गरीब ब्राह्मण
जो वहीं किसी मन्दिर में पुजारी का काम करता
है। अभी दो वर्ष हुए जव वालिका का विवाद हुआ था
और विवाह के छै महीने बाद ही वह विधवा भी हो गई।
विधवा होते ही पुरानी प्रथा के अनुसार उसके बाल काट
दिए गए थे। यही कारण था कि उसका सिर मुंडा हुआ
था। उस परिवार में दो विधवाएँ थीं। एक तो पुजारी
की चूढी माँ, दूसरी यह अभागिनी बालिका । एक की
जीवन अंधकार पूर्ण भूतकाल था जिसमें कुछ सुख-स्मृतियाँ
धुंधली तारिकाओं की तरह चमक रही थीं । दूसरी के
जीवन में था अंधकार पूर्ण भविष्य । परन्तु संतोष इतना ,
ही था कि वह बालिका अभी उससे अपरिचित थी। दोनों
की दिनचर्या ( साठ और दस वर्ष की अवस्थाओं को
दिनचर्या ) एक सी ही संयम पूर्ण और कठोर थी ।
चेचारी बालिका में जानती थी अभी उसके जीवन में सुंयम
और यौवन के साथ युद्ध छिड़ेगा ।।
इस घटना को हुए प्रायः इस वर्ष बीत गये । डाक्टर साहब उस शहर को अपनी प्रैक्रटिस के लिए अपर्याप्त समझ कर एक दूसरे बड़े शहर में चले गये । यहाँ उनकी डाक्टरी और भी चमकी । वे ग़रीब-अमीर सभी के लिए सलभ थे ।
बड़ा शहर था । सभा-सोसाइटियों की भी खासी
धूम रहती; और हर एफ सभी सोसाइटी वाले यह चाहते
कि डाक्टर मिश्रा सरीखे प्रभावशाली और मिलनसार
व्यक्ति उनकी सभा के सदस्य हो जावः । किन्तु डाक्टर
साहब को अपनी प्रेकटिस से कम फुरसत मिलती थी।
वे इन बातों से दूर ही दूर रहा करते थे।
इसी समय शुद्धी श्रीर, संगटन में चर्चा ने जोर
पकड़ा ! शताब्दियों में सोए हुए हिन्दुओं ने जाना कि
उनका संग्व्या दिनोंदिन कम होती जा रही है और विध-
मियों की, विशेकर मुसलमानों की संख्या बे-हिसाब बढ़
रही है। यदि यही क्रम चलता रहा तो, सी डेढ़ सी चपे
'या हिन्दुस्तान में हिन्दुओं का नाम मात्र भले ही रह जाय,
किन्तु हिन्दू से कहीं ढूढ़ने से भी न मिलेंगे। सभी मुसल-
मान हो जायेंगे। इसलिए धर्म-भ्रष्ट हिन्दू और दूसरे
धर्मवाला को फिर से हिन्दू बनाने और हिन्दुओं के संगठन
की सबको आवश्यकता मालूम होने लगी। आर्य समाज
ने बहुत छदा आयोजन करके दस-पाँच शुद्धियाँ भी कर
डालीं । हिन्दू समाज में बड़ी हलचल मच गई। बहुत
से खुश थे; और चहुत से पुराने खयाले वाले इन बातों को
अनर्गल समझते थे ।
उधर मुसलमान भी उत्तेजित हो उठे, तंजीम श्रीर तव-
लीग की स्थापना कर दी गई। किन्तु डाक्टर मिश्रा पर
इसका प्रभाव कुछ भी न पड़ता । हिन्दू और मुसलमान
दोनों ही समान रूप से उनके पास आते थे, और वे दोनों
की चिकित्सा दत्तचित्त होकर करते। दोनो जाति के बच्चों
को समान भाव से प्यार करते । इनकी आँखों में हिन्दुओं
का शुद्धी-संगठन और मुसलमानों का तंज़ीम-तबलीग़ दोनों
व्यर्थं के उत्पात थे।
[ ३ ]
एक दिन डाक्टर साहब अपने दुवाखाने में बैंठे थे कि
एक घबराया हुआ व्यक्ति जो देखने से बहुत साधारण परि-
स्थिति का मुसलमान मालूम होता था, उन्हें बुलाने आया ।
डाक्टर साहब के पूंछने पर उसने बताया कि उसकी
स्त्री बहुत बीमार है। लगभग एक साल पहले उसे बच्चा
हुआ था उस समय वह अपने मां-बाप के घर थी । देहात
में उचित देख-भाल न हो सकने के कारण वह बहुत
बिमार हो गईं सब रहमान उसे अपने घर लिवा लीया ।
लेकिन दिनों-दिन तबीयत खराद ही होती जाती है ।
डाक्टर साहब उसके साथ तांगे पर बैठकर बीमार को
देखने के लिए चल दिए। एक तंग गली के मोड़ पर ताँगा
रुक गया। यहीं ज़रा आगे कुलिया से निकल कर रहमान
का घर था । मकान कच्चा था; सामने के दरवाजे पर एक
टाट को परदा पड़ा था, जो दो-तीन जगह से फटा हुआ
था ! उस पर किसी ने पान की पीक मार दी थी । जिससे
पटियाला सा लाल धब्बा बन गया था। सामने जरा सी
छपरी थी और वीच में एक कोठरी। यही कोठरी रहमान के
सोने, उठने-बैठने की थी और यही रसोई-वर भी थी । रह-
मान बीड़ी बनाया करता था।गीले दिनों में यही कोठरी बीड़ी
बनाने का कारखाना भी बन जाती थी। क्योंकि छपरी में
वौछार के मारे बैठना मुश्किल हो जाया करता था । कोठरी
में दूसरी तरफ एक दरवाज्ञा यौर था जिससे दिख रहा
था कि पीछे एक छोटी सी छपरी और है जिसके कोने में
टट्टी थी और इट्टी से कुछ-कुछ दुर्गन्धि भी आरही थी।
रहमान पहिले भीतर गया, डाक्टर साहब दरवाज़े के बाहर
ही खड़े रहे। बाद में वे भी रहमान के बुलाने पर अंदर
गये। इनके अंदर जाते ही एक मुर्गी जैसे नवागंतुक के
भय से कुड़-कुड़ाती हुई, पंख फट-फटती हुई, डाक्टर साहव
के पैरों के पास से बाहर निकल गई। डाक्टर साहव को
बैठने के लिए रहमान ने एक स्टूल रख दिया। उनकी
खो खाट पर लेटी थी।
वहाँ की गंदगी और कुंद हवा देख कर डाक्टर साहब
घबरा गये । धीमार की नब्ज़ देखकर उन्होंने उसके फेफड़ों
को देखा, परन्तु सिवा कमजोरी के और कोई बीमारी
उन्हें न देख पड़ी।
वे बोले-इन्हें कोई बीमारी तो नहीं है, यह सिर्फ बहुत
ज्यादः कमजोर हैं । आप इन्हें शोरवा देते हैं ?
रहमान-शोरवा यह जव लें तय न ? मैं तो कह-कह के तंग आ गया हूँ। यह कुछ खाती ही नहीं । दूध और साबूदाना खाती हैं, उससे कहीं ताक़त आती है ?
‘क्यों डाक्टर साहब ने पूछा "क्या इन्हें शोरवे से परहेज़ है ?
रहमान-परहेज़ क्या होगा डाक्टरसाहब ? कहती हैं कि हमें हज़म ही नहीं होता ।
डाक्टर साहव ने हंसकर कहा-वाह, हज़म कैसे न होगा, हम तो कहते हैं, सब हज़म होगा ।
-“डाक्टर साहव इतनी मेहरवानी और कीजिएगा कि शोरवा इन्हें आपही पिला जाइए, क्योंकि मैं जानता हूँ, यह मेरी बात कभी न मानेगीं ।
डाक्टर साहव रहमान की स्त्री की तरफ मुड़कर चोले- कहिये, आप हमारे कहने से तो थोड़ा शोरवा ले सकती हैं न ? हज़म कराने का जिम्मा हम लेते हैं ।
उसने डाक्टर के अाग्रह का कोई उत्तर नहीं दिया;
सिर्फ सिर हिलाकर अस्वीकृति की सूचना ही दी। उसके
मुँह पर लज्जा संकोच के भाव थे । उसका मुँह
दूसरी तरफ़ था जिससे साफ़ जाहिर होता था कि वह
डाक्टर के सामने अपना मुँह ढाँक लेना चाहती है। डाक्टर
साहब ने फिर अाग्रह किया—आपको आज मेरे सामने थोड़ा
शोरवा लेना ही पड़ेगा; इससे आपको जरूर फ़ायदा होगा।
इसपर भी उसने अस्वीकृति-सूचक सिर हिला दिया, कुछ बोली नहीं । इतने से ही डाक्टर साहब हताश न होने वाले थे। उन्होंने रहमान से पूछा कि शोरवी तैयार हो तो थोड़ा लायो; इन्हें पिलावें।
रहमान उत्सुकता के साथ कटोरा उठाकर पिछवाड़े साफ़ करने गया । इस अवसर पर उसकी स्त्री ने आँख उठाकर अत्यन्त कातर दृष्टि से डाक्टर साहब की श्रीर देखते हुए कहा "डाक्टर साह, मुझे माफ करें मैं शोरवा नहीं ले सकती'
स्वर कुछ परिचित सा था और आँखों में एक विशेष चितवन......जिससे डाक्टर साहब कुछ चकराए । एक धुँधली सी स्मृति उनके आँखों के सामने आ गई; उनके मुँह से अपने आप ही निकल गया "क्यों" ?
छलकती हुई आँखों में स्त्रो ने जवाव दिया “आज एकादशी हैं"।
डाक्टर साहब चौंक-से उठे। विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते रह गये।
उसी दिन से डाक्टर मिश्रा भी शुद्धी और संगठन के पक्षपाती हो गये।