बिखरे मोती/आहुति

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बिखरे मोती  (1932) 
द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान
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११

आहुति

[ १ ]


ज़नाने अस्पताल के पर्दा-वार्ड में दो स्त्रियों को एक ही दिन बच्चे हुए। कमरा नं०५ में बाबू राधेश्याम जी की स्त्री मनोरमा को दूसरी चार पुत्र हुआ था। उन्हें प्रसृत-ज्वर हो गया था। उनकी अवस्था चिन्ताजनक थी। वे मृत्यु की घड़ियाँ गिन रही थीं। कमरा नं०६ में कुन्तला की मां के सातवाँ वचा, लड़की हुई थी। मां-बेटी दोनों स्वस्थ और प्रसन्न थीं । घर में कोई बड़ा आदमी न होने के कारण मां की देख-भाल कुन्तला ही करती थी। उसके पिता एक दफ्तर में नौकरी करते
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थे। उन्हें पत्नी की देख-भाल करने की फ़़ुर्सत ही कहाँ थी?

पं० राधेश्याम जी एडवोकेट, अपनी मां और कई नौकरों के रहते हुए भी पत्नी को छोड़कर कहीं न जाते थे। दस दिन के बाद कुन्तला की मां पूर्ण स्वस्थ होकर बच्ची समेत अपने घर चली गई और उसी दिन राधेश्याम जी की स्त्री का देहान्त हो गया। अपने नवजात शिशु को लेकर वे भी घर आए। किन्तु पत्नी-विहीन घर उन्हें जंगल से भी अधिक सूना मालूम हो रहा था ।

[ २ ]

पत्नी के देहान्त के बाद राधेश्याम जी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे दूसरा विवाह न करेंगे; मनोरमा पर उनका अत्यन्त अधिक प्रेम था। वह अपना चिन्ह स्वरूप जो एक छोटा सा बच्चा छोड़ गई थी, वही राधेश्याम जी का जीवनाघार था। वे कहते थे कि इसी को देखकर और मनोरमा को मूर्ति की पूजा करते हुए ही अपने जीवन के शेप दिन बिता देंगे । जिस हृदय-मन्दिर में वे एक बार मनोरमा की पवित्र मूर्ति की स्थापना कर चुके थे, वहाँ पर किसी दूसरी प्रतिमा को स्थापित नहीं कर सकते थे। घर से उन्हें विरक्ति-सी हो गई थी। भीतर वे
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कम आते । अधिकतर चाहर बैठक में ही रहा करते । घर में आते ही वहाँ को एक-एक वस्तु उन्हें मनोरमा को स्मृति दिलाती । उनका हृदय विचलित हो जाता है जिस कमरे में मनोरमी रहा करती थी, उसमें सदा ताला पड़ा रहता । उस कमरे में वे उस दिन से कभी न गये थे जिस दिन से मनोरमा वहाँ से निकली थी । जीवन में उन्हें वैराग्य-सा हो गया था। आने-जाने वालों को वे संसार की असारता और शरीर की नश्वरता पर लेकचर दिया करते । कचहरी जाते, वहाँ भी जी न लगता । जिन लोगों से पचास रुपया फ़ीस लेनी होती उनका काम पञ्चीस में ही कर देते ! ग़रीबों के मुकद्दमों में वे विना फ़ीस के ही खड़े हो जाते । सोचते, रुपये के पीछे हाय-हाय करके करना ही क्या हैं ? किसी तरह जीवन को ढकेल ले जाना है। तात्पर्य यह कि जीवन में उन्हें कोई रुचि ही न रह गई थी।

दूसरे विवाह की बात आते ही, उनकी गंभीर मुद्रा को देखकर किसी को अधिक कहने-सुनने का साहस है। न होता । अतएव सभी यह समझ चुके थे कि राधेश्याम जी अब दूसरा विवाह न करेंगे । उनकी माता में भी उनमे अनेक बार दूसरे विवाह के लिए कहा; किन्तु वे
[ १३१ ] टस से मस न हुए। अन्त में वे अपनी इस इच्छा को साथ ही लिए हुए इस लोक से विदा हो गई।

इसके कुछ ही दिन बाद, राधेश्याम जी जव एक दिन अपनी वैठक में कुछ मित्रों के साथ बैठे थे, और बाहर उनका लड़का हरिहर नौकर के साथ खेल रहा था, सामने से एक ताँग निकला। न जाने कैसे तांगे का एक पहिया निकल गया और ताँगा कुछ दूर तक घिसटता हुआ चला गया । एक सात-आठ साल का बालक तांगे पर से गिर पड़ा और एक बालिका जो कदाचित् उसकी बड़ी बहिन थी गिरते गिरते बच कर दूसरी तरफ खड़ी हो गई ।बालक को अधिक चोट आई थी । बालिका ने, मृगशावक की तरह घबराये हुए अपने दो सुन्दर नेत्र चंचल गति से सहायता के लिए चारों ओर फेरे और फिर अपने भाई को उठाने लगी। राधेश्याम जी ने देखा, और दौड़ पड़े; बालक को उठा कर झाड़ने पोंछने लगे । राधेश्याम के एक मित्र जगमोहन जो राधेश्याम के साथ ही दौड़ कर बाहर आए थे, बालिका को सम्बोधन कर के बोले-

-“कहाँ जा रही थीं कुन्तला ?” [ १३२ ]
-"मौसी के घर जनेऊ है; वहीं अम्मा के पास जा रही थी”, कुन्तला ने शरमाते हुए कहां।

कुन्तला को देखते ही राधेश्याम जी की एक सोई हुई स्मृति जारा सी उठीं। दूसरी तांगा चुलवा कर कुन्तला को इसमें बैठा कर उसे रवाना करके राधेश्याम जगमोहन के साथ अपनी वैठक में आ गये ।

[ ३ ]

एक दिन बात है। बात में राधेश्याम ने जगमोहन से पूछा “भाई ! वह किसक्री लड़की थी जो उस दिन तांगे पर से गिर पड़ी थी ?"

जगमोहन ने बताया कि वह पंडित नंदकिशोर तिवारी की कन्या है ! पढ़ी-लिखी, गृह-कार्य में कुशल और सुन्दर होने पर भी धनाभाव के कारण वह अभी तक कुमारी है । बेचारे तिवारी जी ५०) माहवार पर एक आफिस में नौकर हैं। बड़ा परिवार हैं, ५०)में तो खाने-पहिनने को भी मुश्किल में पूरा पड़ता होगा । फिर लड़की के विवाह के लिए दो-तीन हजार रुपये, कहाँ से लावा ? 'कान्यकुञ्जों में तो बिना
[ १३३ ]ठहरौनी के कोई बात ही नहीं करता। कुछ ही में हैं। विचारे । लड़की सयानी है । पढ़ा-लिखा कर किसी मूर्ख के गले भी तो नहीं बांधते बनता ।

एक बार तिवारी जी पर उपकार करने की संद्-भावना से राधेश्याम जी का हृदय आतुर हो उठा; किन्तु तुरन्त ही मनोरमा की स्मृति ने उन्हें सचेत कर दिया । तिवारी जी पर उपकार करना, मनोरमा को हृदय से भुला देना था । राधेश्याम को जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो; वे अपने आप ही सिर हिलाते हुए बोल उठे,“नहीं, यह कभी नहीं हो सकती ।" राधेश्याम के हृदय की हलचल को जगमोहन ने ताड़ लिया। बार करने का उन्होंने यहीं उपयुक्त अवसर समझा; सम्भव है, निशाना ठीक पड़े।

जग०-तुम क्या कहते हो राधेश्याम ? है न लड़की बड़ी सुन्दर ? पर बिचारी को कोई योग्य वर ही नहीं मिलता । अगर तुम इससे विवाह कर लो तो कैसा रहे ?

राधेश्याम उदासीनता से वोले-भाई लड़की सुन्दर तो जरूर है; पर मैंने तो विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर ली है।

जगमोहन उत्साह भरे शब्दों में बोले-अरे छोड़ो भी ! [ १३४ ]
ऐसी प्रतिज्ञा तो पत्नी के देहान्त के बाद सभी कर लेते हैं। उसके माने यह थोड़े हैं, क्रि फिर कोई विवाह करता ही नहीं । अरे भाई ! जन्म और मृत्यु तो जीवन में लगा ही रहता है। संसार में जो पैदा हुआ है वह मरेगा, जो मरा हैं वह फिर आएगा । रंज किसे नहीं होता है किन्तु उस; रंज के पीछे वैराग थोड़े बन जाना पड़ता है। और फिर अभी तुम्हारी उमर ही क्या है ? यही न;पैंतीस- छत्तीस साल की, बस ? जीवन भर तपस्या करने की बात हैं । विना स्त्री का घर जंगल से भी बुरा रहता है । व्रजेश की माँ चार ही छै दिनों के लिए मायके चली जाती है तो घर जैसे काट खाने को दौड़ता हैं।

राधेश्याम-यह कोई बात नहीं, जगमोहन ! घर से तो मुझे कुछ मतलब ही नहीं है। जिस दिन से मनोरमा का देहान्त हुआ, घर मेरे लिए बुर ही नहीं रह गया । बात इतनी है कि बच्चे की देख-भाल करने वाला अब कोई नहीं है। अम्मी थी, तब तक तो कोई बात ही न थी । पर अब बच्चे की कुछ भी देख-भाल नहीं होती। नोकरों पर बच्चे को छोड़ देना उचित नहीं, और मैं कितनी देख-भाल कर सकती हैं, तुम्हीं सोचो ? परिणाम यह
[ १३५ ] हुआ है कि बच्चा दिनोंदिन कमजोर होता जा रहा है |

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राधेश्याम का विवाह कुन्तला के साथ हो गया । उनकी उजड़ी हुई गृहस्थी में फिर से बहार आगई । मनोरमा के वंद कमरे का ताला खोलकर उसके चित्रों पर हल्की रंगीन जाली का परदा डाल दिया गया। उस घर में फिर से नूपुर की मधुर ध्वनि' सुनाई पड़ने लगी । चतुर गृहणी : का हाथ लगते ही घर फिर स्वर्ग हो गया ! कुन्तला की कार्य-कुशलता और बुद्धि की कुशाग्रता पर राधेश्याम मुग्ध थे। कुन्तला के प्रेम के प्रकाश से उनका हृदय अलोकित हो उठा। अब वहाँ पर मनोरमा की धुंधली स्मृति के लिए भी स्थानं न था; ये पूर्ण सुखी थे।

[ ४ ]

राधेश्याम जी ने दूसरा विवाह किया था; संभवत: इरिहर की देखभाल के ही लिए । किन्तु इस समय कुन्तला को हरिहर से भी अधिक राधेश्याम की देख-भाल करनी पड़ती थी। उनकी देख-भाल से ही वह इतनी परेशानी हो [ १३६ ] जाती, इतना थक जाती कि उस रिहर की तरफ़ आँख उठाकर देखने का भी अवसर न मिलता है।

कुन्तला के असाधारण रूप और यौवन ने वया राधेश्याम जी की ढलती अवस्था ने उन्हें अावश्यकता से अधिक असावधान बना दिया था ।

बुरा भला कैसा भी काम हो, सच की एक सीमा होती है। राधेश्याम के इस अनाचार से कुन्दला को जो मान- सिक वेदना होती हो तो थी ही ; किन्तु इसका प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर भी पड़े विना न रहा। कुंदन की तरह उसका चमकती हुअा रंग पीला पड़ गया; आंखें निस्तेज हो गई ।छै महीने की बीमार मालूम होती। वैसे ही वह स्वभाव से सुकूमार थी। अब चलने में उसके पैर कांपते; मादा हाथ-पैर में दर्दू बना रहता; जी सदा ही अलसाया रहता; खांट पर लेट जाती तो इटने की हिम्मत ही न पड़तीं। कुंतला की इस अवस्था से राधे- स्याम अनभिज्ञ हो, सो बात न थी; उन्हें सब मालूम था । कमी कभी ग्लानि और पश्चात्ताप उन्हें भले ही होता; किन्तु लाचार थे। [ १३७ ]
कहते हैं कि ढलती उमर का विवाह और विशेष कर दूसरे विवाह की सुन्दर स्त्री मनुष्य को पागल बना देती है। था भी कुछ ऐसा ही।

कुन्तला अपने जीवन से वेज़ार-सी हो रही थी।

किन्तु वह राधेश्याम को किस प्रकार रोक सकती थी ? क्योंकि वह उनकी विवाहिता पत्नी ठहरी । सात भांवरे फिर लेने के वाद् राधेश्याम को तो उसके शरीर की पूरी माँनापोली सी (monopoly ) मिल चुकी थी न ।

[ ५ ]

इधर कुछ दिनों से शहर में एक स्त्री-समाज की स्थापना हुई थी। एक दिन उसकी कार्यकारिणी की कुछ महिलाएँ आकर कुन्तला को भी निमंत्रण दे गई । कुन्तला ने सोचा, अच्छा ही है; घंटे-दो-घंटे घर से बाहर रहकर, अपने इसे जीवन के अतिरिक्त और भी देखने और सोचने- समझने का अवसर मिलेगा । उसने निमंत्रण स्वीकार कर लिया; और वहीं गई भी । यहाँ जितनी स्त्रियों ने भाषण पढ़े या दिए, कुन्तल ने सुने; उसने सो वह इन सबसे अधिक अच्छा लिख सकती है और बोल सकती है। घर आकर
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उसने भी एक लेख लिखा; विषय थी "भारत की वर्तमान सामाजिक अवस्था में स्त्रियों का स्थान ।” राधेश्याम जी ने भी लेख देखा । बहुत ही प्रसन्न हुए, लेख लिए हुए वे बाहर गए; बैठक में कई मित्र बैंठे थे; उन्हें दिखलाया। सभी ने लेखिका की शैली एवं सामयिक ज्ञान की प्रशंसा की ।

अपने एक साहित्य-सेवी मित्र अखिलेश्वर को लेकर राधेश्याम भीतर आए; कुन्तला को पुकार कर बोले- “कुन्तला, तुम्हारा लेख बहुत ही अच्छा है; मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतना अच्छा लिख सकती हो, नहीं तो तुमसे सदा लिखते रहने का आग्रह करता। तुम्हारे इस लेख में कहीं भाषा की त्रुटियाँ हैं ज़रूर, पर ये मेरे मित्र अखिलेश्वर ठीक कर देंगे। अब तुम रोज़ कुछ लिखा करो; ये ठीक कर दिया करेंगे । मुझे तो भाषा का ज्ञान नहीं; अन्यथा मैं ही देख लिया करता। खैर कोई बात नहीं; यह भी घर ही के-से आदमी हैं। कुन्तला के लेखों के देखने का भार अखिलेश्वर को सौंप कर राधेश्याम को बहुत सन्तोष हुआ।

"कुन्तलाको अव एक ऐसा साथी मिला था, जिसकी
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आवश्यकता का अनुभव वह बहुत दिनों से कर रही थी। जो उसे घरेलू जीवन के अतिरिक्त और भी बहुत-सी उपयोगी बातें बता सकता था; जो उसे अच्छे से अच्छे लेखक और कवियों की कृतियों का रसास्वादन करा के साहित्यिक-जगत की सैर करा सकता था। कुन्तली अखिलेश्वर का साथ पाकर चहुत सन्तुष्ट थी। अब उसे अपना जीवन उतना कष्टमय और नीरसे न मालूम होता था । कुन्तला और अखिलेश्वर प्रतिदिन एक बार अवश्य मिला करते । कुन्तला की अभिरुचि साहित्य की ओर देखकर, उसकी विलक्षण कुशाग्र बुद्धि एवं लेखन-शैली की असाधारण प्रतिभा पर अखिलेश्वर मुग्ध ' थे । वे उसे एक सुयोग्य रमणी बनाने में तथा उसकी प्रतिभा को पूर्ण रूप से विकसित करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे। लाइब्रेरी में जाते; अच्छी से अच्छी पुस्तके लाते; और उसे घंटों पढ़कर सुनाया करते । कविवर शेली, टेनीसन और कीटस् तथा महाकवि शेक्सपीयर इत्यादि की ऊंचे दरजे की कविताएँ पढ़कर उसे समझाते, उसके सामने व्याख्या तथा आलोचना करते और उससे करवाते । हिन्दी के धुरंधर कवियों की रचनाएँ सुना कर वे कुन्तला ' की
[ १४० ]प्रवृत्ति कविता की ओर फेरना चाहते थे। उनका विश्वास था कि कुन्तला लेखों से कहीं अच्छी कविताएँ लिख सकेगी। किन्तु अब राधेश्याम को कुन्तला के पास अखिलेश्वर का बैठना अखरने लगा था। वे कभी-कभी सोचते, शायद कुन्तला के सुन्दर रूप पर ही रीझ कर अखिलेश्वर उसके साथ इतना समय व्यतीत करते हैं। किन्तु वे प्रकट में कुछ न कह सकते थे; क्योंकि उन्होंने स्वयं ही तो उनका आपस में परिचय कराया था। कुन्तला राधेश्याम के मन की बात कुछ-कुछ समझती थी; इसलिए वह बहुत सतर्क रहती। किन्तु फिर भी यदि कभी भूल से उसके मुंह से अखिलेश्वर का नाम निकल जाता तो राधेश्याम के हृदय में ईर्षा की अग्नि भमक उठती| अब अखिलेश्वर के लिए राधेश्याम के हृदय में मित्र भाव की अपेक्षा ईर्षा का भाव ही अधिक था।

इन्हीं दिनों कुन्तला ने दो चार तुकबन्दियाँ भी की। जिनमें कल्पना की बहुत ऊँची उड़ान और भावों का बहुत सुन्दर समावेश था। किन्तु शब्दों का संगठन उतना अच्छा नहीं था। अपने हाथ के लगाए हुए पौधों में फूल आते देख कर जिस प्रकार किसी चतुर माली को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कुन्तला की कविताएँ देख कर [ १४१ ] अखिलेश्वर खुश हुए; उन्होंने कविताएँ कई बार पढ़ीं और राधेश्याम को भी पढ़कर सुनाई। कुन्तला की बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की; किन्तु राधेश्याम खुश न हुए। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कुन्तला ने अखिलेश्वर के विरह में ही विकल होकर यह कविताएँ लिखी हैं।

‘अखिलेश्वर निष्कपट और नि:स्वार्थ भाव से ही कुन्तला का शिक्षण कर रहे थे। उन्हें कुन्तला से कोई विशेष प्रयोजन न था । कुन्तला के इस शिक्षण से उन्हें इतना ही अस्मि-सन्तोष था कि वे साहित्य की एक सेविका तैयार कर रहे हैं जिसके द्वारा कभी न कभी साहित्य की कुछ सेवा अवश्य होगी। राधेश्याम के हृदय में इस प्रकार उनके प्रति ईर्पा के भाव प्रज्वलित हो चुके हैं, इसका उन्हें ध्यान भी न था ।

[ ६ ]

अखिलेश्वर कई दिनों तक लगातार बीमार रहने । के कारण घर के बाहर न निकल सके । खाट पर अकेले पड़े-पड़े धनिया गिनते हुए उन्हें. अनेक, बार कुन्तला की याद आई। कई बार उन्होंने सोचा कि उसे .
[ १४२ ]बुलवा भेजें; फिर भी जाने क्या आगा-पीछा सोच कर वे कुन्तला को न बुला सके। इधर कई दिनों से अखिलेश्वर का कुछ भी समाचार ने पाकर कुन्तला भी उनके लिए उत्सुक थी। वह बार-बार सोचती, एकाएक इस प्रकार आना क्यों बन्द कर दिया? क्या बात हो गई? किन्तु वह अखिलेश्वर के विषय में राधेश्याम से कुछ पूछते हुए डरती थी। इसी बीच में एक दिन कुन्तला की मां ने कुन्तला को बुलवा भेजा। राधेश्याम कुन्तला से यह कह कर कि जब ताँगा आवे तुम चली जाना, कचहरी चले गए। कुन्तला मां के घर जाकर जब वहाँ से ३ बजे लौट रही थी तो उसे रास्ते में हाथ में दवा की शीशी लिए हुए अखिलेश्वर का नौकर मिला। नौकर से मालूम करके कि अखिलेश्वर बीमार हैं, कई दिनों तक तेज़ बुखार रहा है, अब भी कई दिनों तक घर से बाहर न निकल सकेंगे, कुन्तला अपने को न रोक सकी। क्षण भर के लिए अखिलेश्वर से मिलने के लिए उसका हृदय व्याकुल हो उठा। अखिलेश्वर के मकान के सामने पहुँचते ही ताँगा रुकवा कर वह अन्दर चली गई। साथ में उसकी छोटी बहिन भी थी।

अचानक कुन्तला को अपने कमरे में देखकर अखिलेश्वर [ १४३ ]लेश्वर को विस्मय :और आनन्द दोनों ही हुए । अपनी खाट के पास ही कुन्तला के बैठने के लिए कुरसी देकर वे स्वयं उठ कर खाट पर बैठ गये; बोले-“कुन्तला ! तुम कैसे आ गई ? इस बीमारी में तो मैंने तुम्हारी बहुत याद की ।”

इसी समय राधेश्याम जी ने कमरे में प्रवेश किया। ‘कुन्तला कुछ भी न बोल पाई ! राधेश्याम को देखते ही अखिलेश्वर ने कहा-“आओ भाई, राधेश्याम ! आज कुन्तला आई तो तुम भी आए; नहीं तो आज आठ दिन से बीमार पड़ा हूँ, रोज ही तुम्हारी याद करता था; पर तुम लोग कभी न आए। फिर घड़ी की ओर देखकर बोले—— "आज तीन ही बजे कचहरी से कैसे लौट आए ?”

राधेश्याम ने रुखाई से उत्तर दिया--कोई काम नहीं था; इसलिये चला आया ? फिर पत्नी की ओर मुड़कर बोले–“चलो चलती हो ? मैं तो जाता हूँ ।”

अखिलेश्वर ने बहुत रोकना चाहा, पर वे न रुके; चले ही गये । उनके पीछे-पीछे कुन्तला भी चली । जाते-जाते उसने अखिलेश्वर पर एक ऐसी मार्मिक दृष्टि डाली जिसमें न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, कितनी
[ १४४ ]कातरता, और कितनी दीनता थी। कुन्तला चली गई; किन्तु उसकी इस करुण-दृष्टि से अखिलेश्वर की आखें खुल गई। राधेश्याम के आन्तरिक भावों को वे अब समझ सके।

घर पहुँच कर कुन्तला कुछ न बोली। वह चौके में चली गई। कुछ ही क्षण बाद उसने लौट कर देखा कि उसके लेख, कविताएं, कापियाँ, पेन्सिलें और अखिलेश्वर द्वारा उपहार में दी हुई फाउन्टेन पेन, सब समेट कर किसी ने आग लगा दी है। उसी अग्नि में अखिलेश्वर का वह प्यारा चित्र जो कुछ ही क्षण पहिले ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा था धू-धू करके जल रहा है। ऊपर उठती हुई लपटें मानों कह रही हैं कि "कुन्तला यह तुम्हारे साहित्यिक-जीवन की चिता है।"