भारतवर्ष का इतिहास/१४–बौद्ध समय के बड़े बड़े राजा और उनकी रियासतें
(ईसा से २०० बरस पहिले से लेकर ६०० ई॰ तक)
(१) मौर्य वंश।
१—चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में (ईसा से ३२१ बरस पहिले से लेकर २९७ बरस तक) उत्तरीय भारत में मगध एक बहुत बड़ा राज हो गया। कहते हैं कि गङ्गा जी की तरेटी से लेकर पंजाब तक सारा देश इसके आधीन था और प्राचीन आर्यों को समस्त रियासतें जो विदेह, पञ्चाल, कोशल के नामों से प्रसिद्ध थीं उसी राज में मिली थीं। चन्द्रगुप्त का कुल मौर्यवंश कहलाता है क्योंकि चन्द्रगुप्त की मां का नाम मुरा था। चन्द्रगुप्त ने पाटलीपुत्र में ३० बरस राज किया। हम पहिले लिख चुके हैं कि बाख्रर अर्थात् तुर्किस्तान के बादशाह सिल्यूकस ने (मलयकेतु) उसके साथ सन्धि करके उसको अपनी बेटी व्याह दी थी। एक यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ नामी आठ बरस तक इसके दर्बार में रहा। इसने मगध देश और हिन्दुओं की रीति नीति जो उसने देखी या सुनी थी बड़े बिस्तार से लिखी थी। वह लिखता है कि पाटलीपुत्र एक बहुत बड़ा नगर था, नौ मील लम्बा दो मील चौड़ा था। मगध के राजा की सेना में ६ लाख पैदल और ४० हज़ार सवार थे। राजा बड़ी सुगमता और विज्ञता से शासन करता था।
२—चन्द्रगुप्त का पोता अशोक २७२ बरस से २३२ बरस तक इस वंश का तीसरा राजा हुआ। यह चन्द्रगुप्त से भी अधिक प्रसिद्ध हुआ। इसको बहुधा अशोक महान कहते हैं, क्योंकि यह अपने समय का सब से बड़ा और प्रतापी राजा था। जवानी में यह बड़ा लड़नेवाला था। यह कहा करता था कि कलिङ्ग देश को जीत कर अपने राज्य में मिला लूंगा; तीन साल तक लड़ा और कलिङ्ग को जीत लिया। इस लड़ाई में हजारों लाखों मनुष्यों को मरते कटते देखकर उसको बड़ा तर्स आया और एकाएक उसका स्वभाव बिल्कुल बदल गया और कहने लगा कि अब मैं बुद्ध जी के धर्म पर चलूंगा और कभी किसी से लड़ाई न करूंगा। अशोक ने बुद्ध धर्म को अपने सारे राज का धर्म नियत किया और अपना नाम प्रियदर्शी रक्खा। इसका एक बेटा भिक्षु और एक बेटी भिक्षुणी हो गई। इसने दोनों को लङ्का भेजा कि वहां जाकर वे बुद्ध मत का प्रचार करैं। बौद्ध समाज के दूसरे सम्मेलन को प्रायः सवा सौ बरस से अधिक हो चुके थे और बुद्ध मत में कई प्रकार के उलट फेर हो गए थे। इनके निर्णय करने के लिए ईसा से २४२ बरस पहिले अशोक ने इस धर्म के १००० महात्माओं और विद्वानों की तीसरी बड़ी समाज इकट्ठा की। आशय यह था कि बुद्ध धर्म को पीछे की मिलावटों से रहित करके बुद्ध जीके मूल धर्म के अनुसार हो जाय—यह समाज पाटलीपुत्र में इकट्ठा हुआ। बुद्ध धर्म के समस्त उपदेश पाली भाषा में लिख लिये गये। २००० बरस से कुछ अधिक से जो बुद्धमत के ग्रंथ दक्षिण एशिया में प्रचलित हैं वह इसी समाज के इकट्ठा किये हुए हैं। इसने बुद्ध धर्म प्रचार के निमित्त कश्मीर, गांधार, तिब्बत, बर्मा दखिन और लङ्का में भिक्षु भेजें।
३—अशोक ने २१ शासन लिखाये और जगह जगह सारे भारत में पत्थर की लाटों और पहाड़ों पर अङ्कित करा दिये। इनमें से कई आज तक विद्यमान हैं। एक प्रयाग में है, एक गुजरात में गिरनार पर्वत पर है। इन शासनों में बुद्ध धर्म की बड़ी बड़ी बातें सब आ जाती हैं जैसे दया करो, सुशील बनो, अपने चित्त को शुद्ध करो, दान दो। एक शिला पर यह लिखा हुआ है कि अशोक ने कलिङ्ग देश जीत लिया और पांच यूनानी बादशाहों से संधि की। इनमें से तीन—मिश्र, यूनान और शाम के बादशाह थे। इससे यह जाना जाता है कि अपने समय का अशोक बड़ा प्रसिद्ध और प्रतापी राजा था।
(२) अंध्र वंश।
अंध्र आर्यों की एक जाति थी जो प्राचीन काल में गङ्गा की तरेटी से निकल कर महानदी और गोदावरी की तरेटियों में बस गई थी। यहां उसने एक राज्य स्थापन किया जिसने सैकड़ों बरस तक दखिन के पूर्वीय भाग और तिलङ्गाना पर राज्य किया। आज तक तैलङ्गी भाषा का दूसरा नाम अंध्र भाषा चला आता है। ईसा से २६ बरस पहिले जो हिन्दू राजा यहां राज करता था उसने देखा कि मगध राज बहुत शिथिल होगया है इस कारण उसने एक बड़ी सेना लेकर उत्तर की दिशा को प्रस्थान किया और मगध को जीत लिया। इसके पीछे ३०० बरस तक अंध्र वंश की एक शाखा मगध और पूर्वीय भारत और दूसरी दखिन पर राज्य करती थी। हम पहिले लिख चुके हैं कि ईसा से पहिले ४ शताब्दियों में पहिले बाख़र के यूनानियों और फिर शकों ने पंजाब और उत्तर-पश्चिमीय भारत को अपने आधीन किया था। अंध्र वंश के २४ राजाओं ने राज किया। उन्हों ने शकों को भारत के मध्य और पूर्व के भाग में घुसने नहीं दिया।
(३) गुप्त वंश।
१बुद्ध धर्म के समय के अन्त में मगध में उस वंश का राज था जो गुप्त के नाम से प्रसिद्ध है। ३०० ई॰ से ६०० ई॰ तक ३०० बरस के लगभग इस वंश का शासनकाल कहा जाता है। इस वंश के दो राजा बड़े नामी हुए हैं। एक समुद्रगुप्त और दूसरा चन्द्रगुप्त—विक्रमादित्य। इस चन्द्रगुप्त के साथ विक्रमादित्य की पदवी इस कारण सम्मिलित की गई थी कि इसमें और चन्द्रगुप्त मौर्य में भेद हो जाय जो इससे ७०० बरस पहिले मगध में राजा करता था। २—समुद्रगुप्त (३२६ ई॰ से ३७० ई॰ तक) बड़ा बली राजा हुआ है। यह एक बड़ी भारी सेना लेकर सारे मध्य भारत में होता हुआ धुर दक्षिण में पहुंचा और जिन राजाओं की रियासतों में होता गया उन सब को अपने आधीन करता गया। उसने उन देशों को अपने राज में तो नहीं मिलाया पर वहां से लूट का माल बहुत लाया। यह एक बड़े राजा होने के अतिरिक्त कवि भी था और बीणा बहुत अच्छी बजाता था। इलाहाबाद की लाट पर अशोक के लेख के नीचे एक लेख इसका अङ्कित कराया हुआ भी है। यह अशोक के लेख के बहुत पीछे का है। इस से जाना जाता है कि समुद्रगुप्त सारे उत्तरीय भारत का राजा था और दखिन के राजा उसको अपना महाराजाधिराज मानते थे।
गुप्त वंश के राजाओं का सम्बत ही पृथक है। यह ३१९ ई॰ से प्रारम्भ होता है। गुप्त राजा बुद्ध धर्म के अनुगामी न थे; वह वैष्णव थे और उन्हों ने प्राचीन हिन्दू धर्म को उन्नति कराने में बड़ा उद्योग किया। बहुत दिनों तक गुप्त वंश के राजाओं ने शकों का सामना किया जो झुंड के झुंड भारत में चले आ रहे थे और उनको गंगा जी की तरेटी में घुसने न दिया।
द्वितीय चन्द्रगुप्त (३७५ से ४१३ ई॰ तक) समुद्रगुप्त से भी बलवान हुआ है। उसने विक्रमादित्य की पदवी धारण की जिसका अर्थ है "बाहादुरी में सूर्य"। हिन्दू ग्रन्थों में यह इस नाम का सब से प्रसिद्ध राजा पाया जाता है। यह बड़ी भारी सेना लेकर उत्तर पश्चिम की दिशा में सिंधु नदी की घाटी, पञ्जाब, सिन्ध और गुजरात और मालवे में जहां सैकड़ों बरस से शकों को अमल्दारी चली आती थी पहुंचा और उनका देश जीत के अपने राज्य में मिला लिया।
लोगों का बिचार है कि यह वही विक्रमादित्य है जो हिन्दू धर्म का बड़ा पक्षपाती और विद्या का प्रचारक प्रसिद्ध है—इसको विक्रम भी कहते हैं। यह हिन्दू राजाओं में सब से प्रसिद्ध है; जैसा वीर था वैसाही विद्वान भी था। इसकी सभा में नौ विद्वान ऐसे थे जो उस समय के नौ रत्न कहलाते थे। इनमें सब से बड़ा विद्वान कालिदास था जिसके रचे बड़े प्रसिद्ध ग्रन्थ यह हैं, शकुन्तला, रघुवंश, मेघदूत, कुमारसम्भव; अमरसिंह जिसका बनाया हुआ अमरकोश भारतवर्ष की प्रत्येक पाठशाला में पढ़ाया जाता है; धन्वन्तरि वद्य थे। एक रत्न बररुचि ने उस समय की प्रचलित प्राकृत भाषा का व्याकरण रचा है। पांचवें रत्न प्रसिद्ध ज्योतिषी बराहमिहिर थे। पञ्चतन्त्र की कहानियां विक्रमादित्य ही के समय में लिखी गई थीं पीछे उसका अनुवाद फ़ारसी अरबी और अनेक यूरोपी भाषा में हुआ। विक्रमादित्य के समय की बहुत सी कहानियां आज तक भारत के गांव गांव में कही जाती हैं।
४—विक्रमादित्य के समय में बुद्ध धर्म धीरे धीरे भारतवर्ष में मिट रहा था—कालिदास के ग्रन्थों से जाना जाता है कि शिवालय और ठाकुर द्वारे बहुत थे और उनमें हिन्दुओं के देवताओं की पूजा होती थी। राजा शिवजी की आराधना करता था पर बौद्धों के साथ भी दयालुता का बर्ताव करता था। इसकी सभा के नौ रत्नों में से एक बौद्ध भी था।
(४) हूण।
(४५० ई॰ से ५२८ ई॰ तक)
गुप्त वंश का पराजय उन मङ्गोल जातियों के हाथ से हुआ जो हूण कहलाती थीं और ४५० ई॰ के लगभग पञ्जाब में आकर बस गईं थीं। यहां से चलकर यह लोग यमुना जी की तरेटी में पहुंचे और उस समय के गुप्त राजा को परास्त किया। इनके सर्दार का नाम तूरमान था। उसने ५०० ई॰ के लगभग अपने को मालवे का राजा बनाया और महाराजा की पदवी धारण की—उसके पीछे उसका पुत्र मिहिरिकुल गद्दी पर बैठा। यह बड़ा क्रूर था। इसने इतने मनुष्यों का बध किया कि अन्त में मगध के राजा बालादित्य ने मध्य भारत के एक राजा यशोधर्मन की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर उसका सामना किया और ५२८ ई॰ में मुलतान के पास कोदरौर के स्थान पर उसे परास्त किया और उसको और उसकी सेना को भारत से निकाल दिया। हूण भारत में २०० बरस के लगभग रहे। बहुत से हूण तो कहीं कहीं बस गये। गुप्त वंश के राजा उनके निकाले जाने के कोई २०० बरस पीछे तक थानेश्वर में राज करते रहे।
(५) हर्ष या शीलादित्य।
बौद्ध समय के अन्तिम काल का बड़ा राजा हर्ष हुआ है। यह ६०६ ई॰ से ६४८ ई॰ तक सतलज और यमुना के बीच के देश पर राज करता था। इसकी राजधानी थानेश्वर थी जिसका पुराना नाम कुरुक्षेत्र है। इसने शीलादित्य की पदवी धारण की और यह उत्तरीय भारत का राजाधिराज कहा जाता था। इसके पीछे हिन्दू राजाओं में कोई ऐसा बलवान नहीं हुआ जो इस देश का महाराजाधिराज कहलाया हो। पञ्जाब से लेकर आसाम तक गङ्गा और सिंधु की तरेटियों की कुल रियासतों को जीतने में इसे ३० बरस लगे थे। इसने दक्खिन को जीतने का भी उद्योग किया पर इसका मनोरथ पूरा न हुआ।
5 २—इसके राज्य का पूरा वृतान्त मिलता है। पहिले तो एक चीनी यात्री हौनच्वांग के लेख से जो कुछ काल तक उसके दर्बार में रहा था, दूसरे कवि बाण की लिखी हुई पुस्तक हर्ष चरित में। हर्ष बौद्ध मत का था पर ब्राह्मणों और हिन्दू धर्म का ऐसा आदर करता था जैसे निज धर्म का। कन्नौज में बौद्ध मत के सौ बिहार थे तो हिन्दुओं के मन्दिर दो सौ थे। ६३४ ई॰ में शीलादित्य ने एक बड़ी सभा की। इस में २१० राजा आये थे जिन्हों ने उसको अपना महाराजाधिराज होना स्वीकृत किया। इस समाज में राजा के सामने ब्राह्मण पण्डितों और बौद्ध भिक्षुओं में कई शास्त्रार्थ हुए। पहिले दिन सभा में बुद्ध जी की मूर्ति स्थापित की गई दूसरे दिन सूर्य की तीसरे दिन शिवजी की। ७७ दिन तक शीलादित्य ने सब को भोज दिया फिर अपना सारा धन, आभूषण और महल का सराजाम बौद्ध और हिन्दू धर्म के बिचार के बिना सब को बांट दिया। इसके पीछे राजसी बस्त्र भी उतार दिये और सन्यासियों का बाना पहिन लिया जैसे कि बुद्ध जी ने बाप के महल से बिदा होने के समय धारण किया था।
हर पांच बरस पीछे शीलादित्य ऐसाही करता था—गया जी से थोड़ी दूर नालिन्द में एक बहुत बड़ा बिहार था जहां १०,००० भिक्षुक धार्मिक पुस्तकों, शास्त्रों और आयुर्वेद के ग्रन्थों के पढ़ने में अपना समय व्यतीत करते थे।