भारतवर्ष का इतिहास/१५—बौद्ध समय में भारतवर्ष की अवस्था

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१५—बौद्ध समय में भारतवर्ष की अवस्था।
(ईसा से २०० बरस पहिले से ६०० ई॰ तक।)

१—हम पहिले लिख चुके हैं कि बौद्ध मत बुद्ध जी का चलाया हुआ था जिनका जन्म मगध देश में हुआ था और वहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी। इस कारण मगध को बौद्ध मत की जन्म भूमि कह सकते हैं। सारे संसार के बौद्ध इस स्थान को अपना तीर्थ मानते हैं और कपिलबस्तु का जहां उनके मोक्ष की राह बतानेवाले पैदा हुए और बुद्ध-गया का जहां उनको मोक्ष प्राप्त हुआ और उस बड़ के वृक्ष का जिसके नीचे उन्हों ने अपने धर्म के उपदेश दिये बड़ा आदर और सम्मान करते हैं। बहुत से देशों में बुद्ध मत ही का डंका बज रहा था। सैकड़ों बरस तक इन देशों के धर्मात्मा वैद्य, बुद्ध जी की जन्म-भूमि उनकी तपस्या और मृत्यु के स्थान की यात्रा और दर्शनों के निमित्त आया करते थे। बहुत से यात्री चीन से आये। इनमें से दो ऐसे थे जिन्हों ने भारत की अवस्था जो अपनी आंखों देखी या कानों सुनी थी लिखी है पहिला फ़ाह्यान जो लगभग ४०० ई॰ के और दूसरा हौनच्वांग जो ६३० ई॰ में आया था। हिन्दू प्रायः अपने देश का वृत्तान्त नहीं लिखा करते थे इस कारण चीनी यात्रियों के वृत्तान्त को बड़े आदर से देखना चाहिये।

२—समुद्रगुप्त की मृत्यु के पीछे जब गुप्त वंश के राजा भारत में राज कर रहे थे फ़ाह्यान भारत में उपस्थित था। यह काबुल होकर आया था और पश्चिम से पूर्व की दिशा में सारे भारतवर्ष में होता हुआ गङ्गा जी के मुहाने से जल-यान के द्वारा लङ्का पहुंचा। राह में पंजाब और भारत के जो जो प्रसिद्ध नगर आये [ ७६ ] उसने सब की सैर की। वह कहता है कि उत्तरीय भारत के लोग जीव-हिंसा नहीं करते थे मदिरा नहीं पीते थे, और चाण्डालों अथवा नीच जातियों के अतिरिक्त कोई लस्सुन या प्याज़ नहीं खाता था। जो लोग शिकार करते थे अथवा मांस बेचते और खाते थे वह चाण्डाल थे। इनके अतिरिक्त कोई ऐसा काम नहीं करता था। राजा बड़ी नरमी के साथ शासन करता था। जहां जिसका जी चाहे जाय आये, कोई रोक टोक न थी। न किसी भांति की कठिनाई थी। जो मनुष्य शास्त्र के बिरुद्ध चलते थे राजा उन्हें दंड देता था। बाग़ियों को भी प्राणदंड नहीं दिया जाता था; केवल उनका दाहिना हाथ कटवा दिया जाता था। सौदा सुलुफ़ के लेने देने में कौड़ियां चलती थीं। जगह जगह पर बिहार बने हुए थे। इनमें हज़ारों भिक्षु रहते थे। बिहारों में भिक्षुओं के लिये राजा बिछौना, चटाई, खाने पीने की सामग्री कपड़ा लत्ता देता था। मनुष्यों और पशुओं के लिये बहुत से चिकित्सालय थे जहां बड़े बड़े विद्वान वैद्य चिकित्सा करते थे। रोगियों को औषध के साथ खाना भी चिकित्सालय से ही बिना मूल्य मिलता था। इससे प्रगट है कि फ़ाह्यान के समय में अथवा ४०० ई॰ के लगभग उत्तरीय भारत में बौद्ध धर्म ही का प्रचार था।

३—हौनच्वांग फ़ाह्यान से २२० बरस पीछे आया और भारतवर्ष में बहुत दिनों तक रहा। उसने भी भारत की दशा ब्यौरे समेत वर्णन की है। इसने भी काबुल की दिशा से भारत में प्रवेश किया और काश्मीर, पंजाब और भारतवर्ष के बड़े बड़े नगर देखता भालता उड़ीसा, कलिङ्ग और दक्षिण भारत से होता हुआ पश्चिमीय समुद्रतट पर जा पहुंचा और वहां से महाराष्ट्र राजपूताना, गुजरात और सिन्ध में गया अर्थात उसने सारे भारत में चक्कर लगा डाला। इस चक्कर में उसको पन्द्रह बरस लगे थे। [ ७७ ]४—हौनच्वांग जहां गया वहीं उसने हिन्दू और बौद्ध धर्म को साथ साथ चलता और बढ़ता हुआ पाया। किसी किसी प्रान्त में जैसे उड़ैसा, काश्मीर और दखिन में बुद्धमत बढ़ा हुआ था और किसी में हिन्दू धर्म का अधिक प्रचार था। हौनच्वांग का कथन है कि बहुतेरे देशों में जहां मैं गया राज-कार्य बड़ी सुगमता से होता था और प्रजा सुखी और निश्चिन्त थी। सब लोग चाहे वह बौद्ध हों चाहे हिन्दू जो जी में आता था सो करते थे और जिसको चाहते थे उसकी आराधना करते थे और एक धर्म के लोग दूसरे धर्मावलम्बियों से बैरभाव नहीं रखते थे। विद्वानों की प्रतिष्ठा होती थी

५—यद्यपि बौद्ध समय में ऐसे बड़े कवि नहीं हुए जैसे इससे पहिले के समय में हुए थे या उसके पीछे, फिर भी विद्या और कला के सीखने सिखाने में बड़ा परिश्रम किया जाता था और उस समय के हिन्दुओं ने बहुत सी नई बातें निकालीं थीं। जब यूनानियों ने भारत में प्रवेश किया तो उन्हों ने भारतवर्ष के विद्वानों से बहुत सी बातें सीखीं और हिन्दुओं को भी यूनानियों से बहुत कुछ लाभ हुआ।

६—बौद्धमतवाले जीव रक्षा को अपना बड़ा कर्तव्य मानते थे। आप हिंसा करना तो दूर रहा दूसरों को भी इससे रोकते थे। हम ऊपर लिख चुके हैं कि उन्हों ने मनुष्यों और पशुओं के निमित्त अलग अलग चिकित्सालय स्थापन किये थे। आयुर्वेद की उन्नति में बड़ा परिश्रम किया जाता था। इस विद्या में सब से निपुण चरक था। इसने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ चरकसंहिता में बड़े ब्यौरे के साथ जड़ी बूटियों से हजारों औषधियों के बनाने की रीतियां लिखी हैं। यूनानियों और अरबवालों ने इस विद्या की बहुत सी बातें चरक से सीखी थीं। आयुर्वेद के अतिरिक्त हिन्दू जर्राही में [ ७८ ] भी बड़े निपुण थे। इस विद्या के बिषय में सुश्रुत की पुस्तक बड़ी प्रसिद्ध है। उसने १०० से अधिक जर्राही औज़ारों के नाम और उनकी सेवन विधि दी है। जहां इन यन्त्रों का ब्यौरा है वहां यह भी लिखा है कि इनमें से कोई कोई ऐसे तीक्ष्ण थे कि बाल को चीर कर दो कर देते थे।

७—इस समय के हिन्दू अपने सकालीन यूनानियों से अङ्कगणित और बीजगणित में अधिक ज्ञान रखते थे। हिन्दुओं को प्राचीन ज्योतिषशास्त्र की पुस्तकें जो कि अब तक प्रचलित हैं इसी समय में बनाई गई थीं। इनको सिद्धान्त कहते हैं। कहते हैं कि यह सिद्धान्त गिन्ती में अठारह थे। सब से प्राचीन सिद्धान्त् सिकन्दर के आक्रमण से कुछ ही पीछे लिखा गया था। इसमें यूनानियों का भी नाम आया है। हो सकता है कि इस ग्रन्थ के रचयिता ने यूनानियों से भी कुछ सीखा हो। एक दूसरे सिद्धान्त में बाख़र के यूनानियों और शकों का भी बर्णन है। और सिद्धान्त उस समय रचे गये थे जब बौद्ध समय की आयु पूरी होने को थी। इस समय का बड़ा ज्योतिषी आर्यभट्ट है जो ६०० ई॰ के लगभग पाटलीपुत्र में रहता था। उसका कथन है कि पृथ्वी अपने चारों ओर लट्टू की भांति घूमती है। वह चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का कारण भी ठीक ठीक जानता था।

८—व्याकरण भी बड़े परिश्रम के साथ पढ़ा जाता था और बहुत सी पुस्तकें इस बिषय पर लिखी गई थीं। मनु जी का धर्मशास्त्र जो अब मनुसंहिता के नाम से प्रसिद्ध है ईसा के जन्म के समय में सङ्कलित किया हुआ जान पड़ता है।