भारतवर्ष का इतिहास/२३—गुलामों का वंश

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भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

[ १०२ ]

२३—गुलामों का वंश।
(१२०६ ई॰ से १२९० ई॰ तक)

१—इस वंश में ९ बादशाह और एक मलका हुई है। इन सबों ने ८४ वर्ष राज किया। इन में से बहुतों ने बहुत थोड़े दिन राज किया। इन में से पांच अधिक प्रसिद्ध हैं।

२—इस वंश का पहिला बादशाह कुतुबुद्दीन था। यह [ १०३ ] बास्तव में तुर्क था और बाल्यावस्था से ही दास बना दिया गया था।

कुतुबुद्दीन।

उस समय मुसलमानी देशों की यह रीति थी कि जो लोग युद्ध क्षेत्र में बंदी किये जाते थे वह दास बना लिये जाते थे और दूर देशों में जाकर बिकते थे; और मुसलमान कर लिये जाते थे। वह अपने देश और साथियों से दूर होने के कारण अपने स्वामी के वंश को अपना ही समझते थे और उनकी भलाई मानते अपना जन्म काटते थे। दास कम उमर होता और स्वामी के कोई सन्तान न होती तो वह कभी कभी गोद भी ले लिया जाता था। कुतुबुद्दीन इसी नाते से अपने स्वामी के कुटुम्ब में आया था और होते होते पहिले सेनापति हुआ फिर बादशाह बना। यह गुलामवंश का पहिला बादशाह था। इस वंश का यह नाम होने का मुख्य कारण यह है कि इस में से बहुधा कुतुबुद्दीन को भांति पहिले दास ही थे।

३—कुतुबुद्दीन एक बीर योद्धा और योग्य सेनापति था; अपने आधीन अफसरों के साथ भलाई करने और उन को धन और सम्पत्ति देने पर ऐसा तत्पर रहता था कि लोग उसको चशमये फेज़ (अर्थात दान का सोता) कहते थे। दिल्ली के निकट उसने वह देखने योग्य मीनार बनाना आरम्भ कर दिया जो अब तक कुतुब मीनार के नाम से प्रसिद्ध है।

४—इस वंश का तीसरा बादशाह अलतमश था जो अपने [ १०४ ] वंश के सब बादशाहों से बिशेष प्रसिद्ध हुआ है। इस ने १५ बरस राज किया। कुतुबुद्दीन की तरह यह बाल्यावस्था ही से गुलाम बना परन्तु इसने अपनी भलमंसी और बुद्धिमानी से अपने स्वामी को इतना प्रसन्न कर लिया कि इसने उसको अपनी बेटी ब्याह दी। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के पीछे इसने उसके बेटे आरामशाह को मारडाला और राज का स्वामी बन बैठा। कुतुबुद्दीन का नायब बख़्तियार ख़िलजी कुतुबुद्दीन की ओर से बिहार और बंगाले का स्वामी था। कुतुबुद्दीन की एक बेटी उस से भी व्याही थी। कुतुबुद्दीन के मरने पर उसने सोचा कि मैं क्यों अलतमश के आधीन रहूं और बंगाले का स्वाधीन स्वामी क्यों न बन जाऊं। अलतमश और बख़्तियार ख़िलजी में लड़ाई हुई। अलतमश जीत गया और बख़्तियार को मार कर उसने अपने बेटे को बंगाले का स्वामी बनाया।

५—सिंध के स्वामी ने भी अलतमश की आधीनता से मुख मोड़ा। इसी ने सिंध जीता था और मुहम्मद ग़ोरी के समय से वहां का स्वामी चला आता था अब इसने भी सिंध देश का स्वाधीन बादशाह होना चाहा पर अलतमश से लड़ाई में हार गया। सिंधु नदी पार भागना चाहता था कि वह और उसका कुटुम्ब नदी में डूब गया।

६—इस के पीछे अलतमश ने मालवा और गुजरात के राजपूतों पर चढ़ाई की; ६ बरस तक उनके साथ लड़ा। अंत को उनको भी आधीन कर लिया और फिर दिल्ली को लौट आया और यहीं १२३२ ई॰ में मर गया। वह सुन्दर मीनार जिसे कुतुब साहेब की लाट कहते हैं कुतुबद्दीन के समय में बनने लगा परन्तु अलतमश के समय में पूरा हुआ।

७—जिस समय में अलतमश दिल्ली का स्वामी था, तातार [ १०५ ] का प्रसिद्ध सरदार चंगेज़ ख़ां जो बौद्ध था अपने भयानक और कुरूप सिपाहियों को लेकर मंगोलिया से आंधी की भांति उठा और बहुतसे मुसलमानी राज्यों को उसने परास्त कर लिया। यह सिंधु नदी तक आ गया था और हिन्दुस्थान में भी उतर आता परन्तु अलतमश बुद्धिमान था और चंगेज़ ख़ां ऐसे बलवान बैरी को कब लड़ाई का अवसर देता। उसने एक तुरकिस्तानी सरदार को जो चंगेज़ ख़ां से हार कर उसके पास सहायता की खोज में आया था सहायता देने से इनकार किया, और आई हुई बला भारत से टल गई; यानी चंगेज़ और तुर्क इसपार न आये।

रज़िया बेग़म।

८—रज़िया बेग़म अलतमश की बेटी थी। जब इसका बड़ा भाई रुकनुद्दीन सात महीने राज करने पर राज के योग्य न समझा गया तो रज़िया दिल्ली की मलका हुई। दिल्ली के सिंहासन पर रज़िया के सिवा और कोई रानी नहीं बैठी। अलतमश जब कहीं दूर किसी शत्रु से लड़ने जाता तो दिल्ली का प्रबन्ध रज़िया को सौंप जाता था। वह कहा करता था कि रज़िया का स्वभाव पुरुषों का सा है; यह बीस लड़कों से बढ़कर सुयोग्य है। रज़िया सुल्ताना ने साढ़े तीन बर्ष बड़ी सावधानी और प्रतिष्ठा से राज किया। मुसलमान बीबियों के भांति यह बुरक़ा या नक़ाब कुछ न लगाती थी; मर्दाने बस्त्र पहिन कर नित्य राज-सिंहासन पर विराजती थी; और जो कोई उसके [ १०६ ] पास नालिश करने आता था, उससे बोलती और उसकी बात पूंछती थी।

९—लोग अनुमान करते हैं कि यह अपने एक सभासद को बहुत मानती थी; और उसे अपने सेना का सेनापति बना दिया था। यह हबशी था इस कारण रज़िया के अफ़गानी सभासद और सर्दार बहुत बुरा मानने लगे और बाग़ी होकर दंगा करने पर उतारू हुए। रज़िया ने अपने प्राणों के डर से एक सर्दार से ब्याह कर लिया। वह रज़िया की ओर से बहुत लड़ा। परन्तु उसकी हार हो गई। वह और रज़िया दोनों मारे गये।

१०—रज़िया के मरने पर अलतमश का एक और बेटा उसकी जगह राज-गद्दी पर बैठा। इसने कोई दो बरस राज किया होगा कि दर्बार के अफ़गानी अमीरों ने उसे कैद कर लिया और अलतमश के पोते को सिंहासन पर बैठाया। पांच बरस राज करने पर यह भी कैद किया गया। इसके पीछे नासिरुद्दीन जो अलतमश का सब से छोटा बेटा था राज का अधिकारी हुआ। यह बड़ा बुद्धिमान था। इसने ग़यासुद्दीन को जो उसका बहनोई और एक बड़ा रईस था अपना वज़ीर बनाया और उसकी सहायता से बीस बरस राज किया। रज़िया के उन दोनों शक्तिहीन उत्तराधिकारियों के समय में कई राजपूत राजा लोग जो कुतुबुद्दीन और अलतमश से हार मान चुके थे अपना अपना देश फिर दबा बैठ और स्वतन्त्र हो गये। ग़यासुद्दीन ने इन देशों को जीत कर फिर दिल्ली के राज में मिला लिया। मोग़लों ने भी कई बार भारत पर चढ़ाई की पर इसने उनको भी भगा दिया।

११—नासिरुद्दीन बादशाह था, फिर भी वह सूफ़ी फ़कीरों की तरह रहता था। उसकी एकही स्त्री थी, घर में न तो कोई दासी थी और न खाना पकानेवाली थी। बिचारी शुद्ध आचरणवाली [ १०७ ] मलकाही अपने हाथ से खाना बनाती और खिलाती थी। बादशाह अपने हाथ से किताबें लिखता और उनके बेचने से जो धन पाता उससे अपनी जीविकानिर्बाह करता था।

नासिरूद्दिन।

एक बार एक दर्बारी बादशाह के पास गया। बादशाह के पास उन्हीं की लिखी किताब रक्खी थी। दर्बारी किताब उठाकर उसकी अशुद्धियां दिखाने लगा। आप भी लेखनी उठाकर जिस तरह वह कहता गया बनाते गये। परन्तु जब वह चला गया तब उसकी काटी हुई अशुद्धियां फिर ज्यों की त्यों कर दी। किसी ने पूछा जहांपनाह यह क्या बात है। आपने कहा कि बास्तव में अशुद्धियां नहीं थीं। परन्तु जो मनुष्य मुझपर इतनी कृपा करे कि मेरी अशुद्धियां मुझे चेता दे, उसका मान रखना उचित है। मैंने इसी बिचार से उसके कहने पर किताब काट दी थी। और जब वह चला गया तो फिर ठीक कर दी।

१२—नासिरुद्दीन के मरने के पीछे उसका मन्त्री ग़यासुद्दीन बलबन राज का मालिक हुआ। लड़कपन में यह दास था। परन्तु उच्च कुल का था। अलतमश ने इसे मोल ले लिया था। अपनी बुद्धिमानी से इसकी प्रतिष्ठा बढ़ती रही और इसको ऊंचे पद मिलते गये और अन्त को एक सूबे का हाकिम हो गया और अलतमश ने अपनी बेटी उसे ब्याह दी। इन पदवियों के पाने से पहिले यह उन चालीस दासों में से था जिन्हों ने आपुस में यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जन्मभर एक दूसरे के मित्र और सहायक [ १०८ ] बने रहेंगे। इस प्रतिज्ञा पर वह लोग ऐसे स्थिर रहे कि चालीस के चालीसों बड़े बड़े ओहदों पर पहुंच गये।

ग़यासुद्दीन।

पर जब बलबन राज्याधिकारी हुआ तो उसे डर लगा कि ऐसा न हो कि कहीं मेरे मरने पर इन लोगों में से कोई राज का दावा करे और मेरे बेटों को राज न करने दे। इस डर से उसने सब को मरवा डाला।

१३—बलबन के राज में एशिया के कई प्रान्तों के रईस और सर्दारों ने मुग़लों के अत्याचार से व्याकुल होकर अपने अपने देश छोड़ दिये और भारत में शरण ली और यहीं रहने सहने लगे। एक बार ऐसा हुआ कि बलबन की सभा में इस प्रकार के पन्द्रह रईस इकट्ठा हो गये। बलबन ने दिल्ली के बाज़ारों और गलियों के नाम बदल दिये। किसी का नाम ग़ोर की गली, किसी का नाम बग़दाद का कूचा, और किसी का खेवा का कूचा आदि नाम रख दिया। मुग़लों के दल के दल पंजाब पर चढ़ आये पर बलबन और उसके बेटों ने सब को मार पीट कर भगा दिया। अन्त में मुग़लों और बलबन के बेटे महम्मद में घोर संग्राम हुआ और महम्मद मारा गया। बलबन की आयु इस समय अस्सी बरस की थी; सिंहासन पर बैठे हुए भी उसे बाईस बरस हो चुके थे। बेटे के मरने का समाचार सुनकर उसे इतना दुःख हुआ कि वह मरही गया।

१४—बङ्गाले का हाकिम तोग़रल खां बाग़ी हो गया था। [ १०९ ] बलबन ने उसे पराजित करके मार डाला और अपने बेटे बुग़रा खां को उसकी जगह बङ्गाले का हाकिम बनाया। बुग़रा खां सुख से बङ्गाले में राज करता था और इसी पर सन्तुष्ट था। मरने के पीछे भी कभी उसने ऐसा बिचार न किया कि मैं बलबन के सिंहासन का अधिकारी बनूं। फल यह हुआ कि उसका बेटा कैक़बाद दिल्ली का बादशाह हुआ। कैक़बाद के समय में बड़ी अनीति रही। बुग़रा खां भी एक बार आया और बेटे को समझाया पर कैक़बाद ने एक न सुनी। बुग़रा खां की पीठ फिरते ही पहिले से भी अधिक उत्पात होने लगा। कैक़बाद को राज मिले अभी तीन बरस भी न हुए थे कि उसके वज़ीर ने जो ख़िलजी जाति का था उसे मार डाला और आप बादशाह बन बैठा। बुगरा खां बङ्गाले ही में पड़ा रहा और ४४ बरस उस देश में राज करके इस संसार से सिधार गया। कैक़बाद के पीछे बुग़रा खां की मृत्यु तक दिल्ली के तख्त़ पर छ: बादशाह बैठे।