भारतवर्ष का इतिहास/२४—ख़िलजी वंश

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भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

[ १०९ ]

२४—ख़िलजी वंश।
(१२९० ई॰ से १३२० ई॰ तक)

१—तीस बरस में ख़िलजीवंश के चार बादशाह हुए। यह वास्तव में अफ़ग़ानी थे पर तुर्किस्तान से आये थे और भाषा भी तुर्की ही बोलते थे। इनके समय में मुसलमान दखिन में भी पहुंच गये।

२—इस वंश का पहिला बादशाह जलालुद्दीन खिलजी था। सिंहासन पर बठने के समय इसकी आयु अस्सी बरस की थी। यह मित्र और शत्रु सब से सरल सुभाव से मिलता था। जलालुद्दीन अपने भतीजे अलाउद्दीन पर बड़ा भरोसा रखता था और उसे अपने [ ११० ] बेटों की भांति मानता था। अलाउद्दीन सेना लेकर दखिन पहुंचा जहां अभी तक कोई अफ़ग़ान नहीं गया था। यह विन्ध्याचल पर्वत में आठ सौ मील चल कर आठ हज़ार सेना के साथ देवगिरि में पहुंचा जिसे अब दौलताबाद कहते हैं और जो मरहठा देश के राजा रामदेव की राजधानी थी। अलाउद्दीन सब से कहता था कि मेरा चचा मुझे मारनेवाला है; मैं उससे भाग कर आया हूं। इस कारण किसी राजपूत राजा ने उससे छेड़ छाड़ न की और अचानक उसने देवगिरि को आ दबाया। राजा ने उसको बहुतसा धन दिया और कुछ भाग अपने देश का भी उसको भेंट किया। अलाउद्दीन दिल्ली लौट गया। बूढ़े चचा ने जब यह सुना तो बहुत प्रसन्न हुआ और अकेला आप ही उसकी अगवानी को आया। चचा अलाउद्दीन को छाती से लगाता था कि भतीजे ने उसकी छाती में तलवार भोंक दी फिर उसका सिर काट डाला और भाले में लगाकर सारी सेना में फिराया, जिसमें सब जान जायं कि जलालुद्दीन मर गया। इस करतूत के पीछे अलाउद्दीन दिल्ली आया; यहां जलालुद्दीन के दो बेटों को मारा और आप राज का अधिकारी बना। जिस समय जलालुद्दीन अलाउद्दीन के हाथ से मारा गया, उस समय उसे राज करते हुए, सात बरस हुए थे।

३—अलाउद्दीन ने १२९५ ई॰ से १३१५ ई॰ तक राज किया। यह बड़ा निर्दयी और कठोर था और जो मन में ठान लेता था उसपर दृढ़ रहता था। ख़िलजी बादशाहों में सब से शक्तिमान यही था। इसने बीस बरस राज किया; जितना धन दखिन से लाया था वह सब औरों को बांट दिया जिसमें वह लोग जलालुद्दीन के मरने की बात भूल जायं और यह अपना राज दृढ़ करे। गुजरात के लोगों ने जिनको कि ग़ोरी बादशाहों ने आधीन कर लिया था अलाउद्दीन के समय से बहुत पहिले पठान हाकिमों को निकाल [ १११ ] बाहर किया और एक राजपूत को अपना राजा बना लिया। अलाउद्दीन ने अपने भाई अलफखां को बहुत सी सेना देकर गुजरात भेजा।

अलाउद्दीन ख़िलजी।

अलफखां ने फिर से इस देश को मुसलमानी राज में मिला लिया। राजाकी रानी कमलादेवी बड़ी रूपवती थी। उसे क़ैद करके अलफ़खां ने दिल्ली को भेज दिया। यहां अलाउद्दीन ने उससे निकाह करके अपने हरममें रखा। इसके पीछे अलाउद्दीन को मुग़लों का सामना करना पड़ा। पांच बार मुग़ल पञ्जाब में आये और एक बार दिल्ली तक भी जा पहुंचे पर अन्त में मुग़लों की हार हुई और बहुत से मारे गये। इनमें से जो बच रहे वह मुसलमान हो गये और यहीं बस गये।

४—इसके पीछे अलाउद्दीन ने उत्तरीय राजपूत राजाओं के जीतने का बीड़ा उठाया और उनके बहुत से गढ़ और किले ले लिये। इस समय भीमसिंह चित्तौड़ में राज करता था। उसकी रानी सुन्दरता में अद्वितीय थी। अलाउद्दीन ने जो उसकी सुन्दरता की बड़ाई चारों ओर सुनी तो तत्काल ही उससे निकाह करने को जी में ठान लिया। उसने बड़ी भारी सेना लेकर चित्तौड़ पर चढ़ाई की। कई महीने अलाउद्दीन क़िले के सामने पड़ा रहा किन्तु उसे न ले सका। तब उसने भीमसिंह से कहा कि मैं पद्मिनी को देखना चाहता हूं। यदि एक बार तुम उसका मंह मुझे दिखा दो तो मैं सेना सहित लौट जाऊंगा। पहिले तो भीमसिंह ने यह बात स्वीकार न की पर अन्त में [ ११२ ] यह ठहरी कि रानी अपने राजभवन में पर्दे के पीछे बैठ जाय और उसके सम्मुख एक दर्पण रख दिया जाय और बादशा उसमें उसकी परछाईं देख ले। निदान अलाउद्दीन चित्तौड़ गढ़ गया और दर्पण में रानी का प्रतिबिम्ब देख लिया। लौटती समय भीमसिंह उसे उसके डेरे तक पहुंचाने गया। उस समय अलाउद्दीन ने भीमसिंह को कैद कर लिया और कहा कि जब तक पद्मिनी मुझसे ब्याह न करेगी तब तक तुम न छोड़े जाओगे। रानी ने देखा कि राजा के छुटकारे का सिवाय इसके और कोई उपाय नहीं है कि कुछ चालाकी से काम ले। इस कारण बादशाह से कहला भेजा कि मुझे स्वीकार है, मैं आती हूं। एक डोले में आप सवार हुई और सात सौ डोले और साथ लिये और सब के सब मुसलमानी डेरों की ओर चले। कहा तो यह गया कि उन सात सौ डोलों में रानी की सात सौ सहेलियां हैं परन्तु हर डोले में एक एक राज़पूत सूरमा हथियार बांधे बैठा था। केवल इतना ही नहीं बरन जो लोग कहारों की भांति डोलों को उठाये थे वह भी लड़ंतिये सिपाही थे। जब डोले मुसलमानी डेरों में पहुंचे तो अलाउद्दीन ने चाहा कि भीमसिंह और पद्मिनी को न जाने दे। इतने में राजपूत सूरमा तलवारें सूत कर डोलों से कूद पड़े और भीमसिंह और पद्मिनी को घोड़ों पर सवार करा कर लड़ते भिड़ते तलवारों की छाया में चित्तौड़गढ़ में पहुंचा दिया। अलाउद्दीन देखता ही रह गया। इस बार तो उसे हार मान कर भागना पड़ा किन्तु दो बरस पीछे पहिले से भी भारी सेना लेकर उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। इस बार राजपूत इसके सामने ठहर न सके। बहुत से राजपूत कट कर मर गये और गढ़ के बचाव की कोई आशा न रही तो पद्मिनी तेरह हज़ार राजपूतनियों के साथ [ ११३ ] अग्नि में प्रवेश करके भस्म हो गई। मर्द जो बचे सो तलवारें लेकर गढ़ के बाहर निकले और वीरता से लड़ते हुए शत्रु के हाथों संग्राम में कट मरे। यह घटना १३०३ ई॰ की है। इसके पीछे अलाउद्दीन जैसलमेर पहुंचा और आठ महीने घेरने के पीछे जैसलमेर का क़िला भी आधीन कर लिया। यहां भी वही हाल हुआ जो पहले चित्तौड़ में हो चुका था अर्थात् चार हज़ार राजपूतनियां अच्छे कपड़े और गहने पहिन कर आग में कूद पड़ी और जलकर स्वाहा हो गईं और राजपूत लोग घोर संग्राम करते हुए एक एक करके कट मरे। इस भांति प्राण देने को राजपूत लोग अपनी बोली में जौहर कहते हैं। जब अलाउद्दीन ने राजपूतों को जीत लिया और गुजरात और राजपूताने के बड़े बड़े गढ़ छीन चुका तो दखिन के विजय को चला।

५—अलाउद्दीन का सब से बड़ा सर्दार मलिक काफ़ूर था। यह असल में हिन्दू था पर पीछे मुसलमान हो गया था। अलाउद्दीन नहीं चाहता था कि आप उत्तरीय भारत छोड़ कर दखिन के विजय को जाय क्योंकि उसे डर था कि ऐसा न हो मुग़ल फिर चढ़ आयें अथवा कोई सर्दार बिगड़ बैठे और उसका राज छीन ले। इस कारण उसने एक बड़ी भारी सेना के साथ मलिक काफ़ूर को दखिन की ओर भेजा। मलिक काफ़ूर ने हर एक चढ़ाई में एक नया देश छीना और बहुत सा माल लूट कर दिल्ली को लौट आया।

६—१३०९ ई॰ में काफ़ूर गोदावरी नदी के दक्षिण वारङ्गल जो तिलङ्गाना राज्य की राजधानी थी पहुंचा; फिर देवगिरि की ओर चला। देवगिरि का राज्य जलालुद्दीन के समय में अलाउद्दीन ने जीत लिया था परन्तु थोड़े दिनों से अलाउद्दीन को कर नहीं मिला था। अलाउद्दीन की हिन्दू रानी कमलादेवी ने मलिक काफ़ूर से कह रक्खा था कि मेरी छोटी लड़की देवल [ ११४ ] देवी को जो गुजरात के जीते जाने के समय मेरे पहिले पति अर्थात् गुजरात के राजा के साथ दखिन चली गई थी ला दो। मलिक काफ़ूर ने उसके खोज में एक सेना भेजी। शङ्करदेव के साथ, जो देवगिरि के राजा रामदेव का पुत्र था, उस कन्या का विवाह होने ही वाला था कि इतने में मलिक काफ़ूर की सेना ने उनको जा घेरा। मलिक काफ़ूर उस लड़की को दिल्ली लाया और यहां बादशाह के पुत्र खिज्रखां के साथ उसका निकाह हो गया। मलिक काफ़ूर रामदेव से लड़ा और उसको क़ैद करके दिल्ली ले आया। यहां अलाउद्दीन ने उसके साथ ऐसा अच्छा बर्ताव किया कि वह जन्म भर बादशाह का शुभचिन्तक बना रहा।

७—रामदेव का पुत्र शङ्करदेव अलाउद्दीन से जलता था। कारण यह था कि उसने उसकी स्त्री छीन ली थी। बाप की मृत्यु के पीछे शङ्करदेव बाग़ी हो गया और मलिक काफ़ूर सेना लेकर उसको दण्ड देने के लिये भेजा गया। शङ्करदेव लड़ाई में मारा गया और काफ़ूर ने सारा मरहठा देश उजाड़ दिया। १३१० ई॰ में काफ़ूर करनाटक देश के मैसूर के इलाके में होता हुआ धुर द्वारसमुद्र में जा पहुंचा जहां बल्लाल राजा की राजधानी थी। उसको पराजित करके काफ़ूर और भी दक्षिण की ओर बढ़ा और रासकुमारी तक पहुंच गया। यहां से बहुत सा धन लेकर दिल्ली लौट आया। इसकी ग़ैर हाज़िरी में पन्द्रह हज़ार मुग़ल जो अलाउद्दीन के दर्बार में नौकर थे बाग़ी हो गये थे। वह सब मार डाले गये और उनकी स्त्रियां और बच्चे दास बनाकर बेंच दिये गये।

८—अलाउद्दीन के राज में अफ़गान अमीरों को यह अधिकार न था कि जो कुछ जिसके जी में आयें करे। बादशाह की आज्ञा के बिना न वह किसी को भोज दे सकते थे न [ ११५ ] ब्याह कर सकते थे। उसने कभी किसी बड़े अमीर को किसी दूसरे शक्तिमान अमीर की बेटी से ब्याह करने की आज्ञा नहीं दी। कारण यह कि वह डरता था कि दोनों मिलकर बहुत शक्तिमान न हो जायं। इन बातों का बादशाह स्वयं फैसला करता था कि किसान कितने खेत जोते, कितने नौकर चाकर रक्खे, और कितनी भेड़ बकरियां और गाय बैल पाले। कोई मनुष्य जो बहुत सा धन बटोरता तो बादशाह उसका धन छीन लेता था क्योंकि उसको यह खटका था कि लोग धनी और शक्तिमान हो जायंगे तो कदाचित बिद्रोही भी हो जायं। हर वस्तु का मोल भाव बादशाह ठीक करता था। दूकानों के खुलने और बन्द होने के समय भी वह ही नियत करता था। अन्तिम अवस्था में उसके राज का प्रबंध बिलकुल ही बिगड़ गया था। वह शराब पीने लगा था और राजकार्य और सारे अधिकार मलिक काफ़ूर के हाथ दे बैठा था।

९—मलिक काफूर चाहता था कि आप बादशाह बन जायं। इस कारण दिल्ली से हिलता न था। बादशाह बूढ़ा था उसकी बुद्धि भी ठिकाने न थी। मलिक काफूर ने उसी के हाथों से उसके बेटों को कैद करा दिया। जब चित्तौड़ और गवालियर के राजपूतों और दखिन के मरहठों ने देखा कि अलाउद्दीन के ज़बर्दस्त हाथों से राज निकल गया तो खुल्लम खुल्ला बिद्रोही होकर स्वतंत्र हो गये। अन्त में यह हाल हुआ कि काफ़ूर ने बादशाह को विष दे दिया और उसके दोनों बेटों की आंखें निकलवा डालीं और सिंहासन पर भी हाथ मारा। परन्तु बादशाह के निज सिपाहियों ने, जो अफ़ग़ान थे, काफ़ूर को मार डाला और अलाउद्दीन के तीसरे पुत्र मुबारक को गद्दी पर बिठा दिया। [ ११६ ]१०—मुबारक का नाम तो मुबारक था किन्तु कर्मों के बिचार से वह ख़िलजी वंश के सब से मनहूस बादशाहों में हुआ। उसने अपने छोटे भाई की जो एक नन्हा सा बच्चा था आंखें निकलवा डालीं। जिन लोगों की सहायता से उसे राज मिला था उनको भी मरवा दिया और एक नीच जाति के हिन्दू दास को जो मुसलमान हो गया था खुसरो खां की पदवी देकर अपना मन्त्री बनाया। मुबारक दो बरस राज करने के पीछे उसी मंत्री के हाथ से मारा गया। खुसरो खां बादशाह बना और अपना नाम नासिरुद्दीन रक्खा। उसने ख़िलजियों के वंश के बच्चे बच्चे तक को मरवा डाला परन्तु आप भी बहुत दिनों राज न कर सका। ग़यासुद्दीन तुग़लक जो एक शक्तिमान सर्दार और पञ्जाब का हाकिम था दिल्ली पर चढ़ आया; नासिरुद्दीन को मार डाला और इस कारण से कि खिलजी वंश का कोई नाम लेवा न बचा था आप बादशाह बनकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया।