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भारतवर्ष का इतिहास/२५—तुग़लक वंश

विकिस्रोत से
भारतवर्ष का इतिहास
ई॰ मार्सडेन

कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लंदन: मैकमिलन एंड कंपनी लिमिटेड, पृष्ठ ११६ से – ११९ तक

 

२५—तुग़लक वंश।
(१३२० ई॰ से १४१४ ई॰ तक।)

१—इस वंश से आठ बादशाह हुए। इन में से दोही प्रसिद्ध हैं; एक अपने दुष्टपने के कारण और दूसरा अपनी भलाई और सुप्रबंध के निमित्त। बदनामी का टीका महम्मद तुग़लक के माथे पर है जो इस वंश का दूसरा बादशाह था; और नेकनामी का छत्र फीरोज़ तुग़लक के सिर पर है जो इसके पीछे तीसरा बादशाह हुआ।

२—इस वंश का पहिला बादशाह ग़यासुद्दीन था। यह बलबन के तुर्की गुलाम का एक बेटा था, जिसने एक हिन्दू स्त्री के साथ विवाह कर लिया था। उसने पांच बरस राज किया। इसके पीछे उसका पुत्र जूनाखां गद्दी पर बैठा जो महम्मद तुग़लक के नाम से प्रसिद्ध है। इस ने २७ बरस राज किया। इसका समय देश के लिये राजरोग था। प्रजा उसको हत्यारा सुलतान कहा करती थी। इसने ऐसी ऐसी बिचित्र बातें और दुराचार किये कि बहुत से हिन्दू इसे पागल कहा करते थे। इसके समय में जब मुग़लोंने बड़ी सेना लेकर चढ़ाई की तो यह उन से लड़ा तो नहीं पर अपने ख़जाने का सारा धन देकर उनको लौटा दिया।

३—ख़जाना ख़ाली हो गया; तो इसने तांबे का सिक्का चलाया और प्रजा को आज्ञा दी कि चांदी के रुपये की जगह तांबे का सिक्का ले। प्रजा ने यह न माना। इसने कर बढ़ाना आरम्भ किया; और बढ़ाते बढ़ाते पहिले से दूना कर दिया। प्रजा से जब कर न दिया गया तो खेती बारी से मुंह मोड़ कर खेतों को बे बोये जोते छोड़ कर भाग गई। अब बादशाह ने प्रजा के मारने के लिये सेना भेजी। सैनिकों ने जंगलों में जाकर प्रजा को घेर लिया और इस तरह मारडाला जैसे शिकारी शिकार में जंगली जन्तुओं को मारते हैं।

४—महम्मद तुगलक ने दो बार दिल्ली के रहने वालों को आज्ञा दी कि देवगिरि चले जाओ जो दखिन में दिल्ली से ८०० मील है। इस ने देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद रक्खा मानो यह नाम रखते ही वह दौलत का घर हो जायगा। देवगिरि से दिल्ली तक कोई सड़क न थी। विन्ध्याचल पर्वत और बनों के बीच में होकर जाना पड़ता था। रास्ते में कोई खाने पीने का सुभीता भी न था। बहुत से लोग राह में मर गये और जो बचे खुचे देवगिरि पहुंचे उनके लिये रहने को वहां घर न थे। निदान बादशाह ने आज्ञा दी कि तुम लोग फिर दिल्ली लौट जाओ।

५—महम्मद तुग़लक हिन्दुओं से बहुत जलता था; जंगी और मुल्की ओहदे अफगानों को देता था, जो न हिन्दुओं को बोली जानते थे न उन पर दया करते थे। अपने देश के बाग़ियों को वह दबा नहीं सकता था; फिर भी एक लाख सिपाही उसने चीन को भेज दिये कि जाओ चीन को जीत लो। यह सेना योहीं नष्ट हुई। बहुत सी तो हिमालय पर्वत में ठिठुर कर मर गई, और रही सही जो लौट कर आई उसे बादशाह ने मरवाडाला।

६—सूबेदारों और ऊंचे पद के लोगों ने जब यह कुप्रबंध देखा तो विद्रोही होकर स्वाधीन बन बैठे। बंगाले और गुजरात में पठानों ने अपना राज स्वतंत्र बना लिया। तिलंगाने और करनाटक के हिन्दुराजा जो अलाउद्दीन खिलजी के समय में आधीन किये गये थे अब फिर स्वाधीन बन गये। सन १३३६ ई॰ में एक हिन्दू राजा हरिहर ने तुंग नदी पर बिजयनगर में अपना राज्य स्थापित किया। सन् १३४७ ई॰ में एक अफगान सरदार ने जिसका नाम हसन था दखिन में बादशाही की नीव डाली।

७—महम्मद तुग़लक के पीछे उसका भतीजा फीरोज़ तुग़लक गद्दी पर बैठा। यह पठान बादशाहों में सब से अच्छा था। इस ने ४० बरस तक राज किया, और देश की भलाई और प्रजा के सुख के लिये बहुत से उपाय किये; सड़कैं बनवाईं, नहरैं निकालीं, यात्रियों के लिये सरायें बनवाईं और फ़ारसी अरबी के मदरसे खुलवाये। इसने और पठान बादशाहों की अपेक्षा प्रजा के साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया। परन्तु धर्म के विषय में यह भी बड़ा कट्टर था; जो हिन्दू अपना धर्म नहीं छोड़ते थे उन पर बहुधा बड़ी निठुराई करता था; हिन्दुओं के मंदिर गिराकर उनके इंट मसाले से मसजिदें बनाना अपना मुख्यधर्म समझता था। इसने अपने जीवनचरित में जो उसने अपने हाथों लिखा था आपही इन सब बातों को स्वीकार किया है।

८—फ़ीरोज़ तुग़लक के पीछे चार बादशाह हुए जिन्हों ने कुछ थोड़े दिनों तक राज किया। इनके समय में सूबे पर सूबा बिद्रोही होता गया कुछ सूबे तो राजपूत दबा बैठे, और कुछ पठानों ने ले लिये। तुग़लक़ कुटुम्ब के अन्तिम दिल्ली के बादशाह का नाम महमूद था। दिल्ली और उसके आस पास सूबों ही पर यह बादशाहत करता था। इसके समय में तातारी मुग़लों ने अमीर तैमूर की सरदारी में हिन्दुस्थान पर फिर चढ़ाई की।