भारतवर्ष का इतिहास/२८—दखिन में पठानों की चढ़ाइयां
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(सन् १२९४ ई॰ से सन् १३१२ ई॰ तक)
१—पहिले पहिल ख़िलजियों के समय में दखिन पर मुसलमानों के आक्रमण हुए। उस समय पूर्व का तिलगू देश जहां प्राचीन काल में अंध्र का राज था तिलंगाने के नाम से प्रसिद्ध था और वारंगल उसकी राजधानी थी। पश्चिमीय भाग जहां मरहठी भाषा बोली जाती है महाराष्ट्र कहलाता था और देवगिरि उसकी राजधानी थी। दक्षिणीय देश जहां कनाड़ी भाषा बोली जाती है कारनाटक कहलाता था। यहां राजपूतों के प्रसिद्ध वंश बल्लाल ने तीन सौ बरस अर्थात १००० ई॰ से १३०० ई॰ तक राज किया और द्वारसमुद्र जो मैसूर में है उसकी राजधानी था। राजपूत का एक और वंश चालुक्य कई सौ बरस पहिले हैदराबाद के दक्षिण पश्चिमीय भाग में जहां कनाड़ी मरहठी दोनों भाषायें बोली जाती हैं राज करता था। उसकी राजधानी कल्याण था जो हैदराबाद से सौ मील पश्चिम की ओर है। उड़ैसे में छ: सौ बरस से केसरी वंश के राजपूत राज करते थे; उनकी राजधानी कटक थी। दक्षिण भारत में और भी कई हिन्दू राज्य थे। [ १२६ ]२—ऊपर कह चुके हैं कि जलालुद्दीन ख़िलजी के समय में अर्थात् १२९४ ई॰ में अलाउद्दीन ने कुछ सवार लेकर देवगिरि पर चढ़ाई की थी। देवराजा को बिबस होकर उसको बहुत सा धन भेंट करना पड़ा था, जिसको लेकर अलाउद्दीन दिल्ली लौट आया। जब अलाउद्दीन आप बादशाह हुआ तो उसने दखिन जीतने का
बिचार किया और कई बार अपने सेनापति काफ़ूर को इस काम के लिये भेजा। काफ़ूर ने कुल दक्षिणीय भारत को १३२०—२१ ई॰ में रौंद डाला और वहां के हिन्दू राजा का सर्वनाश किया। कहते हैं कि यह रासकुमारी के पास रामेश्वर के मन्दिर तक पहुंचा था। अब दूसरी बार यह बात सिद्ध हुई कि उत्तर के ठंढे देशों के अफ़गान दक्षिण के गरम देशों के हिन्दुओं से अधिक बली थे। [ १२७ ] हिन्दू लड़े परन्तु सब जगह हारे। अफ़गानों ने रत्ती रत्ती मन्दिरों को लूट लिया। उनकी मूर्तियां बाहर फेकदीं और तोड़ डाली। जिन लोगों ने उनको मारने की चेष्टा की उनको मारा। हलीबैद जो मैसूर में है उस में ९० बरस से बल्लाल राजा धीरे धीरे एक अत्यन्त सुन्दर और बिशाल मन्दिर बनवा रहे थे जोकि इस देश में अद्वितीय था। मुसलमानों ने उसका बनना बन्द करा दिया। आज तक वह मन्दिर उसी भांति अधबना पड़ा है।
३—ग़ोरी और खिलजी बादशाहों के अफग़ान और पठान सैनिक अनेक जातियों और झुंडो के थे। हर एक का अलग अलग देश अफ़गानिस्तान की पहाड़ी घाटियों में था। इनके सिवा तुर्किस्तान और मध्य एशिया के मुल्कों के लोग लूट खसोट की आशा पर ग़ोरी बादशाहों की सेना के साथ भारत में आये थे। जो आदमी इस भांति कुछ दल इकट्ठा कर लेता या धनी बन बैठता था। जब अलाउद्दीन और काफ़ूर और खिलजी और तुगलक वंश के बादशाहों ने दखिन को रौंद डाला तो वह आधीन देश की रक्षा और प्रबंध के लिये ठांव ठांव अफग़ान सरदारों को छोड़ आये जिस में यह हिन्दू राजाओं से सदा कर लेते रहें और उसको बढ़ने न दें। समय के बीत जाने पर जब दिल्ली के अफ़ग़ान बादशाह दुर्बल हो गये और इन अमीरों को अपने बस करने के योग्य न रहे तो यह स्वाधीन बादशाह बन गये।