भाव-विलास/चतुर्थ विलास/नायिका वर्णन

विकिस्रोत से
भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ १०३ ] 

नायिका वर्णन
दोहा

नायक नर्म सचिव कहे, यह विधि सब कविराइ।
अब बरनत हौ नायका, लक्षण भेद सुभाइ॥
तीनि भाँति कहि नाइका, प्रथम स्वकीया होइ।
परकीया सामान्या, कहत सुकवि सब कोइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—नायक और नर्म सचिव के भेद कहे जा चुके। अब नायिकाओं का वर्णन किया जाता है। नायिकाओं के मुख्य तीन भेद हैं। स्वकीया, परकीया और सामान्या।

१–स्वकीया
दोहा

जाके तन मन वचन करि, निज नायक सों प्रीति।
बिमुख सदा पर पुरुष सों, सो स्वकिया की रीति॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—तन, मन, वचन से केवल अपने पति से प्रेम कर अन्य पुरुषों से बिमुख रहनेवाली स्वकीया कहलाती है।

उदाहरण
सवैया

कविदेव हरे बिछियानु बजाइ, लजाइ रहे पग डोलनि पै।
गुरु डीठि बचाइ लचाइ कै लोचन, सोचनि सों मुख खोलनि पै॥

[ १०४ ] 

हँसि हौंस भरे अनुकूल विलोकनि, लाल के लोल कपोलनि पै।
बलि हो बलिहारी हौं बार हजारक, बाल की कोमल बोलनि पै॥

शब्दार्थ—डीठि-दृष्टि। लचाइ कै लोचन–आँखे नीची कर के। हौस–उत्साह। लोल–सुन्दर। कपोलनि–गालो।

दोहा

मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा, स्वकिया त्रिविधि बखानु।
सिसुता मै जोबन मिलै, मुग्धा सो उर आनु॥
वयःसन्धि अरु नवबधू, नवजोबना बिचारु।
नवलअनङ्गा सलजरति, मुग्धा पाँच प्रकार॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा ये स्वकीया के तीन भेद हैं। इनमें (बाल्यावस्था बीतने पर) जिसके शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग में यौवन का आगमन दिखलायी दे अर्थात् अंकुरित यौवना नायिका मुग्धा कहलाती है। इस मुग्धा के भी पाँच भेद हैं। १—वयःसन्धि २—नववधू ३—नवयौवना ४—नवलअनङ्गा और सलज्ज रति।

१–वयः सन्धि
सवैया

औरनु के अंग भूषन देखि, सुहोंसनि भूषन वेष सकेलै।
मन्द अमन्द चलै चितवै, कविदेव हंसै बिलसै बपु बेलै॥
फून बिथोरि के बारनु छोरि कें, हारनु तोरि उतै गहि मेलै।
मूरि के भाव बिसूरि सखीनु कों, दूरितें दूरि के धूरि मैं खेले॥

[ १०५ ] 

शब्दार्थ—चितवै–देखे। बपु–शरीर। बिसूरि–भूलकर। धूरि मैं–धूल मैं।

२–नववधू
सवैया

गोकुल गांव की गोपसुता, कविदेवन केतिक कौतिक ठाने।
खेलत मोही पै नंदकुमार री, बार हि बार बड़ाई बखाने॥
मोरिये छाती छुवें छिपि के, मुख चूमि कहै कोई और न लाने।
काहे तें माई कछू दिन ते, मन मोहन को मनमोहीं सों माने॥

शब्दार्थ—कौतिक–कौतुक, खेल। बड़ाई–तारीफ़। छुवें–छुएं। लाने–उपाय। मनमोहन...माने–मनमोहन का मन मुझी से लगता है।

३–नवयौवना
सवैया

जानति ना बहु कौ बड़ भाग, बिरंच रच्यौ रसिकाई बसी है।
देव कहैं नवबेस बसन्त, लता फल जाके नवक्षत दीहै॥
मेटि वियोग समैटि सबै सुख, सो भरि भेंटि भटू जुग जीहै।
या भुख सुद्ध सुधाधर तें, अधरा रसधार सुधार से पीहै॥

शब्दार्थ—विरंचि–ब्रह्म। नवबेस–नयी उम्र। सुधाधर–चन्द्रमा।

४–नवल अनङ्गा

कालि परों लगि खेलत ही, कबहूं न कहूं यह घूंघट काढ्यो।
आजु ही भौंह मरोरि चली, तनु तोरि जनावत जोबन गाढ्यो॥

[ १०६ ] 

नैननि कोटि कटाक्ष करै, कविदेव सु बैननि को रस बाढ्यो।
नेकु जितै चितवै चितदै तित, मैन मनो दिन द्वेक को ठाढ्यो॥

शब्दार्थ—कालिपरों लगि–कल परसों तक। भौंह मरोरि–भौंह मरोड़ कर। तनुतोरि–शरीर को मरोड़ कर। जोबन–यौवन। चितवै–देखे। तित–उधर। मैन–कामदेव। मनों...ठाढ्यो–मानों दो दिन से खड़ा हो।

५–सलज्जरति
सवैया

कूजत हैं कलहंस कपोत, सुकी सुक सोरु करैं सुनिता हू।
नैक हू क्यों न लला सकुचौ, जिय जागत हैं गुरु लोग लजाहू॥
हाथ गह्यो न कह्यो न कछू, कविदेवजू भौन मैं देखो दिया हू।
हाहा रहौ हरि मोहि छुऔ जिनि, बोलत बात लजात न काहू॥

शब्दार्थ—कूजत है–बोलत है। सुकी–तूती। सुक–तोता। सकुचौ–लजाओ, लज्जा करो। जिय–मन में, हृदय में। गुरु लोग–बड़े लोग। भौन–घर। दिया–दीपक।

मुग्धा सुरत
सवैया

खाट की पाटी रहै लपिटाइ, करौंट की ओर कलेवर काँपै।
चूमत चौंकत चन्दमुखी, कविदेव सुलोल कपोलनि चाँपै॥
बालबधू बिछियान के बाजतें, लाज तें मूदि रहै अँखियाँ पै।
आँसू भरे सिसके रिसके, मिसके कर झारि झुके मुख झाँपै॥

शब्दार्थ—खाट–पलंग। करौंट–करवट। लोल–सुन्दर। सिसके–सिसकी भरे। रिसके–क्रोधकर। मुख झाँपै–मुँह छिपाती है। [ १०७ ] 

मुग्धा मान
सवैया

सौति कु मान लियो सपने कहूँ, सोति को सङ्ग कियो पिय जाइ कै।
देव कहै उठि प्यारे की सेज ते, न्यारी परी पिय प्यारी रिसाइ कै॥
नाह निसङ्क गही भरि अङ्क, सु लै परजङ्क धरी धन धाइ कै।
आँसुन पोंछि उरोज अँगौछि, लई मुख चूमि हिये सों लगाइ कै॥

शब्दार्थ—न्यारी–अलग। रिसाइ कै–क्रोधित होकर। परजङ्क–पलका। उरोज–कुच।

मध्या स्वकीया
दोहा

जाके होहि समान द्वै, इक लज्जा अरु काम।
ताको कोविद कवि सबै, बरनत मध्या नाम॥

सोरठा

रूढ़जौबना नाम, प्रादुर्भूतमनोभवा।
प्रगल्भबचना बाम, हैं विचित्रसुरता बहुरि॥

दोहा

मध्या चार प्रकार की, यह बिधि बरनत लोइ।
उदाहरण तिनको सुनौ, जाको जैसा होइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—लज्जा और काम जिसमें समान होता है वह मध्या नायिका कहलाती है। इसके चार भेद हैं। १—रूढ़यौवना २—प्रादुर्भूत मनोभवा ३—प्रगल्भवचना ४—विचित्रसुरता। [ १०८ ] 

१–रूढ़यौवना
सवैया

राधिका सी सुर सिद्ध सुता, नर नाग सुता कवि देव न भूपर।
चन्द करौं मुख देखि निछावरि, केहरि कोटि लटो कटि ऊपर॥
काम कमानहुँ को भृकुटीन पै, मीन मृगीनहूँ को दृगदू पर॥
बारों री कञ्चन कञ्ज कली, पिक बैनी के ओछे उरोजन ऊपर॥

शब्दार्थ—चन्द करौं...निछावरि–मुख पर चन्द्रमा को निछावर कर दूँ। मीन–मछली। मृगीन–हिरनियाँ। दृगदू पर–दोनों आँखों पर। कञ्चन–सोना। ओछे–छोटे। उरोज–कुच।

२–प्रादुर्भूति मनोभवा
सवैया

बाल बधू के बिचार यही, जु गुपाल की ओर चितैवोइ कीजै।
त्यो चितवै चित चातुरी सों, रुचि की रचना बचनामृत पीजै॥
भूषन भेष बनावै सबै, अरु केसर के रँग सो अँग मींजै।
आपने आगे औ पीछे तिरीछे, है देह को देखि सनेह सों भींजै॥

शब्दार्थ—चितैवोइ कीजै–देखती ही रहूँ।

३–प्रगल्भवचना
सवैया

मेरेऊ अङ्क जो आवै निसङ्क तौ, हौं उनके परजङ्कहि जैहौं।
पान खबाइ उन्हें पहिलैं तब, नाथ के हाथ के पाननि खैंहों॥

[ १०९ ] 

ऐसी न होइ जू देह की दीपति, देव को दीप समीप देखैहो।
मोहन को मुख चूमि भटू तब, हौं अपनो मुख चूमन देहौ॥

शब्दार्थ—मेरेऊ–मेरे भी। परजङ्क–पलङ्ग। पाननि–पानी को। देह की दीपति–देह की ज्योति अर्थात् सुन्दरता।

४–विचित्रसुरता
सवैया

केलि करै रसपुञ्ज भरी, बन कुञ्जन प्यारे सों प्रीति की पैनी।
झिल्लिन सों झहनाइ के किंकिनि, बोले सुकी सुक सो सुखदैनी॥
यों बिछियान बजावति बाल, मराल के बालनि ज्यों मृगनैनी।
कोमल कुंज कपोत के पोत लों, कूँकि उठे पिक लो पिकबैनी॥

शब्दार्थ—प्रीति की पैनी–प्रम करने में चतुर। कपोत–कबूतर।

मध्या सुरत
सवैया

जागत ही सब जामिनि जाइ, जगाइ महा मदनज्वर पावक।
अँजन छूटि लगै अधरान मैं, लोइन लाल रंगे जनो जावक॥
कामिनि केलि के मन्दिर मैं, कविदेव करै रतिमान तरावक।
सङ्ग ही बोलि उठे तजि, कावक लाव कपोत कपोत के सावक॥

शब्दार्थ—जामिनि–रात। मदन ज्वर–काम ज्वर। अधरान–ओठ। लोइन–आँखे। जावकमहावर। कावक–कबूतरों के बैठने की छतरी। सावक–बच्चे। [ ११० ] 

मध्या सुरतान्त
सवैया

रँग रावटी तै उतरी परभात ही, भावती प्यारे के प्रेम पगी।
अलसाति जम्हाति सुदेव सुहाति, रदच्छद मै रद पाँति लगी॥
सब सौतिन की छतियाँ छिनही मैं, सुहागिन की दुति देखि दगी।
उतराती सी बैन तराती भई इतराती बधू इतराती जगी॥

शब्दार्थ—अलसाति–अलसाती हुई। जम्हाति–जम्हाई लेती हुई। रद–दाँत। दुति–सुन्दरता। इतराती–इतराती दुई।

प्रौढ़ा
दोहा

मति गति रति पति सो रँचै, रतपति सकल कलान।
कोविद अति मोहित महा, प्रौढ़ा ताहि बखान॥
लब्धापति रतिकोविदा, क्रान्तनाइका सोइ।
सविभ्रमा यह भाँति करि, प्रौढ़ा चौविधि होइ॥

शब्दार्थ—चौविधि–चार तरह की।

भावार्थ—अपने पति से परम प्रीति करनेवाली, सब काम कलाओं में प्रवीण नायिका को कविलोग प्रौढ़ा कहते हैं। इसके भी चार भेद हैं। १–लब्धापति २–रति कोविदा ३–आक्रान्तनायका ४–सविभ्रमा।

१–लब्धापति
सवैया

स्याम के संग सदा हम डोलें, जहाँ पिक बोले अलीगन गुंजै।
छाहन माँह उछाहनि सों, छहरें जहाँ बीरी पराग को पुंजै॥

[ १११ ] 

बोलनि मैं रस केलिन कै कवि, देव करी चित की गति लुंजै।
कालिंदी कूल महा अनुकूल ते, फूलति मंजुल मंजुल कुंजै॥

शब्दार्थ—अलीगन–भौंरे। माँह–मे। छहरें–शोभायमान हो। बोलनि मैं–बात चीत में। चित...लुंजै–चित की गति को लुंज कर दिया अर्थात् चित्त लोभायमान हो गया। मंजुल–सुन्दर।

२–रतिकोविदा
सवैया

कलि मैं केतिक कौतिक कै, रस हाँस हुलास विलासनि सोहै।
कोमल नाद कथा रस बादुनि, काम कला करिके मन मोहै॥
छेदि कटाक्ष की कोरनि सों गुन, सों पति को मन मानिक पोहै।
जानति तूं रति की सिगरी गति, तोसी बधू रतिकोविद कोहै॥

शब्दार्थ—केतिक–कितने ही। कौतिक–खेल। सिगरी गति–सब कलाएँ। तोसी–तेरे समान। रति कोविद–रति-चतुर। को है–कौन है ।

३–आक्रान्तनायका
सवैया

हार बिहार में छूटि परै अरु, भूषन छूटि परे हैं समूलनि।
जोरि सबै पहिरायौ सम्हारि के, अङ्ग सम्हारि सुधारि दुकूलनि॥
सीतल सेज बिछाइ कै बालम, बालमृनालनि के दल मूलनि।
वैसीय बैनी बनाइ लला, गहि गूंधौ गुपाल गुलाब के फूलनि॥

शब्दार्थ—दुकूलनि–वस्त्र, कपड़े। गहि–पकड़ कर। [ ११२ ] 

४–सविभ्रमा
कवित्त

हँसत हँसत आई भावते के मन भाई,
देवकवि छवि छाई बर सोने से सरीर सों।
तैसी चन्द्रमुखी के वा चन्द्रमुख चन्द्रमा सो,
ह्वै है परे चाँदिनी औ चाँदिनी से चीरसों॥
सोंधे की सुबासु अङ्ग बासु वो उसास बासु,
आस पास वासी रही सुखद समीर सों।
कुंजत सी गुंजत गँभीर गीर तीर-तीर रहो,
रंग भवन भरी भौंरन की भीर सों॥

शब्दार्थ––भावते–प्यारे, पति। समीर–हवा। गँभीर–गहरा। भौंरन–भौंरे। भीर–झुंड।

प्रौढ़ा सुरत
सवैया

साजि सिंगारनि सेज चढ़ी, तबहीं तें सखी सब सुद्धि भुलानी।
कंचुकी के बँद छूटत जानें न, नीवी की डोरि न टूटत जानी॥
ऐसी बिमोहित ह्वै गई है जनु, जानति रातिक मै रतिमानी।
साजी कबै रसना रस केलि में, बाजी कबै बिछुवान की बानी॥

शब्दार्थ––सुद्धि भुलानी–सुधि बुधि भूल गई। कंचुकी–अँगिया। नीवी–फुंफुंदी (लंहगे की)। कबै–कब। बिछुवान–बिंछुए। [ ११३ ] 

प्रौढ़ा सुरतान्त
कवित्त

आगे धरि अधर पयोधर सधर जानि,
जोरावर जंघन सघन लरै लचिके।
बार बार देति बकसीस जैतिवारनि को,
बारनि को बाँधे जौ पिछार से सुबचिके॥
उरुन दुकूल दै उरोजनि को फूलमनि,
ओठनि उठाए पान खाइ खाइ पचिके।
देव कहे आजु मानो जीतो है अनङ्गरिपु,
पीके संग संग रस सुरत रङ्ग रचिके॥

शब्दार्थ—अधर–ओष्ठ। पयोधर–कुच। जोरावर–सुदृढ़। जंघन–जाँघें। जैतिवारनि–जीतनेवाले। बारनि–बाल। उरून–जंघाएं। दुकूल–वस्त्र। अनङ्ग–कामदेव। रिपु–बैरी।

मध्या प्रौढ़ा मान
दोहा

मध्या औ प्रौढ़ा दुओ, होंहि बिविध करि मानु।
धीरा अरु मध्यम कह्यो, औरु अधीरो जानु॥
वक्र युक्ति पति सो कहै, मध्या धीरा नारि।
मध्या देहि उराहनो, वचन अधीरा गारि॥

भावार्थ—मध्या और प्रौढ़ा इन दोनों के धीरा, मध्यमा और अधीरा ये तीन तीन भेद और होते हैं। व्यंग वचन कहने वाली मध्या, धीरा, उलाहना देनेवाली मध्यमा और क्रोधपूर्वक भर्त्त्सना करने वाली अधीरा होती है। [ ११४ ] 

१–मध्या धीरा
सवैया

भारेहौ भूरि भराई भरे अरु, भांति सभांतिनु के मनभाये।
भाग बड़े वही भामतो के जिहि, भामते लै रंगभौन बसाये॥
भेषु भलोई भली बिधि सो करि, भूलि परे किधौं काहू भुलाये।
लाल भले हौ भलो सुखदीनो, भली भइ आजु भले बनि आये॥

शब्दार्थ—मनभाये–अच्छे लगे। भेषु–वेष। भले–अच्छे।

२–मध्या मध्यमा
सवैया

आजु कछू अँसुवानि भरे दृग, देखिय सो न कहौ जिय जोहै।
चूक परी हमही तें कछू किधौं, जापर कोप कियो वह कोहै॥
चूक अचूक हमारी यहै कहो, को नहि जोबन को मद मोहै।
स्याम सुजान सुजाने बलाइ ल्यों, जोई करौ सु तुम्हें सब सोहै॥

शब्दार्थ—असुवानि–आँसुओ से। दृग–आँखें। चूक–भूल। जापर–जिसपर। कोप–क्रोध। बलाइ ल्यो–बलैया लूं। जोई सोहै–तुम जो करो, वही ठीक है।

३–मध्या अधीरा
सवैया

भोरही भौन मैं भावतो आवत, प्यारी चितै के इतै दृग फेरे।
बाल बिलोकि कै लाल कह्यो कहु, काहे ते लाल विलोचन तेरे॥

[ ११५ ] 

बोलि उठी सुनि के तिय बोल, सुदेव कहै अति कोप करेरे।
काहू के रंग रंगे दृग रावरे, रावरे रंग रंगे दृग मेरे॥

शब्दार्थ—भौन–घर,गृह। भावतो–पति, प्रेमी। इतै–इधर। दृग–आँखें। बाल–स्त्री। बिलोकि–देखकर। कोप–क्रोध। करेरे–बहुत। काहू के–किसी के। राबरे–आपके। दृग–आँखें।

प्रौढ़ा मान
दोहा

उदासीन अति कोप रति, पति सों प्रौढ़ाधीर।
तर्जै मध्य उदास ह्वै, ताहि न करै अधीर॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—सरल है।

१–प्रौढ़ा धीरा
सवैया

क्रोध कियो मनभावन सों सु, छिपाइ लियो इकबेनी के बोलनि।
राख्यो हिये अति ईर्षा बाँधि, खुल्यो उन घूंघट की पट खोलनि॥
ज्यो चितई इत आली की ओर, सुगांठि छुटी भरि भौंह बिलोलनि।
लोइन कोइन ह्वै उझक्यो, सु बताय दियो कवि कोप कपोलनि॥

शब्दार्थ—अति–बहुत। हिए–हृदय में। आली–सखी। लोइन–आँखें। कोइन–आँखों के कोए। कोप–क्रोध। [ ११६ ] 

२–प्रौढ़ा मध्यमा
सवैया

सूधिये बात सुनों समुझो अरु, सूधी कहो करि सूधौ सबै संग।
ऐसी न काहू के चातुरता चित, जो चितवै 'कविदेव' ददै अंग॥
वोही के लैये बलाइ ल्यो बालम, हौ तुम्हे नीको बतावति हौ ढंग।
प्यारौ लगे यह जाको सनेह, महाउर बीच महाउर को रंग॥

शब्दार्थ—सूधी–सीधी, सरल।

३–प्रौढ़ा अधीरा
सवैया

पीक भरीं पलकैं झलकैं अलकैं, जुगड़ी सुलसैं भुज खोज की।
छाइ रही छवि छैल की छाती मैं, छाप बनी कहूं ओछे उरोज की॥
ताही चितौति बड़ी अँखियान ते, तीकी चितौनि चली अति ओज की।
बालम ओर बिलोकि के बाल, दई मनों खैंचि सनाल सरोज की॥

शब्दार्थ—पीक–पान की पीक। छाप बनी–छाप लग गयी। ओछे-छोटे।

दोहा

मध्या प्रौढ़ा दोय विधि, ज्येष्ठा और कनिष्ट।
अधिक नून पिय प्यार करि, बरनत ज्ञान गरिष्ट॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—मध्या प्रौढ़ा के दो भेद होते हैं। ज्येष्ठा और कनिष्ठा। जिसको पति अधिक प्यार करे वह ज्येष्ठा और जिसे कम प्यार करे वह कनिष्ठा कहलाती है। [ ११७ ] 

सवैया

खेलत फाग खिलार खरे, अनुराग भरे बड़ भाग कन्हाई।
एक ही भौन में दोउन देखि के, देव करी इक चातुरताई॥
लाल गुलाल सो लोनी मुठी भरि, बाल के भाल की ओर चलाई।
वा दृग मूंदि उतै चितयौ, इन भेटो इतै वृषभान की जाई॥

शब्दार्थ—खिलार–खेलनेवाले। भौन–भवन, घर। चातुरताई–चालाकी। उतै–उधर। भेंटी–आलिंगन किया। वृषभान की जाई–राधा।

परकीया वर्णन
दोहा

जाकी गति उपपनि सदा, पति सों रति गति नांहि।
लो परकीया जानिये, ढकी प्रीति जग मांहि॥
ताहि परौढ़ा कन्यका, द्वै विधि कहत प्रवीन।
गुपित चेष्टा परौढ़ा, कन्या पितु आधीन॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जो स्त्री अपने पति से किसी कारण वश प्रेम न कर अन्य पुरुष से गुप्त प्रेम करती है, उसे परकीया कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं। प्रौढ़ा और कन्यका।

१–प्रौढ़ा
सवैया

मोहन मोहि न जान्यो यहाँ बलि, बाल को बोल सुनायो नजीकतें।
चौंकि परी चहुँओर चितै, गुरु लोगन देखि उठी नहिं ठीकतें॥

[ ११८ ] 

देखियो बात चलै न कहूँ, यह छूटिहैगी कुल लोक की लीकते।
घूमति है घर ही मै घनी, यह घायल लो घर घाल घरीकते॥

शब्दार्थ—नजीकतें–पास से। चहुँओर–चारों ओर।

दोहा

तामै गुप्ता विदग्धा, लक्षितारु कुलटानु।
अन्तरभूत बखानिए, अनुसयना मुदितानु॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—प्रौढ़ा परकीया के गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता, कुलटा और मुदिता ये पाँच भेद और होते हैं।

क–गुप्ता
सवैया

झँझरी के झरोखनि ह्वै के झकोरति, रावटीहू मैं न जाति सही।
'कविदेव' तहाँ कहौ कैसिक सोइये, जी की विथा सु परै न कही॥
अधरानु को कोरति, अंग मरोरति, हारनि तोरति जोर यही।
घर बाहिर जाहिर भीतर हूँ, बन बागनि बीर बयारि बही॥

शब्दार्थ—झँझरी–खिड़की। हारनि–हारो को। बयारि–हवा।

दोहा

कहत विदग्धा भाँति द्वै, सकल सुमति बर लोइ।
वाकविदग्धा बहुरि अरु, क्रियाविदग्या होइ॥

[ ११९ ] 

शब्दार्थ—लोइ–लोग।

शब्दार्थ—विदग्धा के पुनः दो भेद और होते हैं। वाक्विदग्धा और क्रिया विदग्धा।

(ख) विदग्धा (वाक)
सवैया

ब्याह की बोधि बुलाये गये सब, लोगनु लागि गये दिन दूने।
'देव' तुम्हारी सौ बैठी अकेलिये, हौं अपने उर आनति ऊने॥
क्यों तिन्हे बासर बीतत बीर, बनाये है जे विधि बन्धु बिहूने।
कौन घरी घर के घर आवे, लगैं घर घोर घरीक के सूने॥

शब्दार्थ—अकेलिये–अकेलीही। हौं–मैं। बासर–दिन। वन्धुबिहूने– बन्धुरहित। सूने–शून्य।

विदग्धा (क्रिया)
सवैया

बृसुरी सुनि देखन दौरि चली, जमुना जल के मिस बेग तवै।
'कविदेव' सखी के सकोचन सो, करि ऊठ सु औसर को बितबै॥
वृषभान कुमारि मुरारि की ओर, बिलोचन कोरनि सो चितवै।
चलिवे को घरै न करै मन नैक, घड़ै फिर फेरि भरै रितबै॥

शब्दार्थ—जमुना जल के मिस–जमुना से पानी लाने के बहाने। करि उठ–बहाना करके। बितवै–बिताती है। बिलोचन कोरनि–ऑखों की कोर। चितवै–देखती है। बड़े...रितवै–घड़े को बार बार भरती और खाली करती है। [ १२० ] 

ग–लक्षिता
सवैया

जौ लगि जोबन है जग मैं, नहि तो लगि जीव सुभाव टरैगो।
'देव' यही जिय जानिये जू, जन जो करि आयो है सोई करैगो॥
कोटि करौ काई प्रान हरे बिन, हारिल की लकड़ी न हरैगो।
भूलेहूँ भौर चलावै न चित्त, जो चम्पक चौगुने फूल फरैगो॥

शब्दार्थ—जौ लगि–जब तक। जगमै–संसार में। सुभाव...टेरैगो–स्वभाव नहीं बदल सकता। जो...करैगो–जो करता आया है वहीं करेगा। कोटि करो–चाहे करोड़ों उपाय करो। भूलेहूं...फरैगो–चाहे चम्पक चौगुना फूले परन्तु भौंरा उसपर अपना मन नहीं चलावेगा।

घ–कुलटा
सवैया

छोरि दुकुल सकोरि कें अंग, मरोरि के बारनि हारिन छूटे।
मीड़ि नितंबहि पीड़ि पयोधर, दाबत दन्त रदच्छद फूटे॥
ज्यों कररी करि केलि करै, निकरै न कहूँ कुल सों किनि टूटे।
तौ लगि जाने कहा जुवती सुख, जो न जुवा दिन जामिन जूटे॥

शब्दार्थ—जुवा–युवा। जामिन–राति।

ङ–अनुसयना
दोहा

थानि हानि तिहि हानि भय, तहँ प्रिय गम अनुमान।
अनुसयना इहि विधि त्रिविध, बरनत सकल सुजान॥

[ १२१ ] 

शब्दार्थ और भावार्थ—दोनों सरल हैं।

सवैया

सब ऊजर भौन बसे तब ते, तरुनी तन तापि रही भरिकें।
सुनि चेत अचेत सी ह्वै चित सोचति, जैहै निकुंज घने झरिके॥
ततकालहिं 'देव' गुपाल गये, बनते बनमाल नई धरिके।
जदुनाथहि जोवत ज्वाल भई, जुवती बिरहज्वर सों जरिके॥

शब्दार्थ—उजार–उजड़े हुए, सूने। भौन–घर। तरुनी–युवतियाँ। जोवत–देखते ही।

च–मुदिता
सवैया

साँझ को कारी घटा घिरि आई, महा झरसों बरसे भरि सावन।
धौरि हूँ कोरिये आइगई सु, रम्हाइ के धाइ के लोगी चुखावन॥
माइ कह्यो कोई जाइ कहै किनि, मोहू सो आज कह्यो उन आवन।
यो सुनि आनन्द ते उठि धाई, अकेलिये बाल गुपाल, बुलावन॥

शब्दार्थ—महाझरसों–मूसलाधार, जोर से। अकेलिये–अकेली।

२–कन्यका
सवैया

झूमि अटा उझकै कहूँ देव, सु दृरि तें दौरि झरोखनि झूली।
हाँस हुलास बिलास भरी मृग, खज्जनि मीन प्रकासनि तूली॥
चारिहू भोर चलै वपलै, जु मनोज की तेगै सरोज सी फूली।
राधिका की अँखियाँ लखिकै, सखियाँ सब संग की कौतिक भूली॥

[ १२२ ] 

शब्दार्थ—झरोखनि–खिड़कियाँ। मीन–मछली। मनोज–कामदेव। तेगैं–तलवारें, किरचैं।

दोहा

चित्र स्वप्न परतच्छकरि, दरसन त्रिविधि बखानु।
देस काल भङ्गीनु करि, श्रवन तीनि बिधि जानु॥

शब्दार्थ—परतच्छ–प्रत्यक्ष।

भावार्थ——सरल है।

क–दरसन
सवैया

चारु चरित्र बिचित्र बनाइ के, चित्र मैं जे निरखे अबरेखे।
चोरि लियो जिन चित्त चितौतही, त्योही बने सपने महिदेखे॥
आजु ते नन्द के मन्दिर तें, निकसे घन सुन्दर रुप बिसेखे।
होंहू अटारी भटू चढ़ी भागतें, मैं हरजू भरिजू दृगदेखे॥

शब्दार्थ—घन सुन्दररूप–बादल के समानरूपवाले। मैं...देखे–मैने हरि को मनभर के आँखों से खूब देखा।

ख–श्रवन
सवैया

ऊँचे अटा सजि सेज सजी तो, कहा हरि जो न जहाँ निसजागे।
फूलि रहे बन कुञ्ज कहा तो, बसन्त मैं जौ न लला अनुरागे॥
देव सबै गहिनें पहिरे चुनि, चाइ सो चारु बनाये हैं बागे।
सुन्दरि सुन्दर लागि है तौ, कहिहै जब सुन्दर स्याम अभागे॥

शब्दार्थ—निस–रात। चाइ सो–चाव से। [ १२३ ] 

वैस्या
दोहा

रीझ नहीं गुन रूप की, सामान्या के जीय।
जौही लों धन देइ जो, तो लौं ताकी तीय॥

शब्दार्थ—जीय–मन, हृदय। तीय–स्त्री।

भावार्थ—रूप अथवा गुण पर मोहित न होकर केवल धन पर अपने को निछावर कर देनेवाली स्त्री वेश्या कहलाती है। मनुष्य जब तक उसे धन देता रहे तब तक वह उसकी प्रेमिका बनी रहती है।

कवित्त

सोहति किनारी लाल बादला की सारी,
गोरे अङ्गनि उज्यारी कसी कंचुकी बनाइ कें।
जेवर जड़ाऊ जगमगत जवाहिर के,
जूती जोती जावक की जीती पग पाइ कें॥
भौंहनि भ्रमाइ भूरि भाइ करि नैनन सों,
सैननि सौं बैननि कहति मुसक्याइ कें।
चीकनी चितौनि चारु चेरे करि चतुरनि,
बितु लियो चाहै, चितु लियो है चुराइ के॥

शब्दार्थ—जेवर–गहने, आभूषण। जड़ाऊ–जड़े हुए, रत्नाठित जावक-महावर। चेरे-गुलाम। अधीन–वश में।

दोहा

पररतिदुःखित प्रेम अरु, रूप गर्व्विता जानु।
मानवती अरु चारि विधि, स्वीयादिकनु बखानु॥

शब्दार्थ—अरु–और। चारि विधि–चार तरह की। [ १२४ ] 

भावार्थ—स्वकीयादि नायिकाओं के चार भेद और होते हैं। (१) पररति दुःखिता (२) प्रेमगर्विता (३) रूपगर्विता और (४) मानवती या मानिनी।

(१) पर रति दुःखिता
उदाहरण
सवैया

साँझही स्याम को लैन गई, सुवसी बन मै सब जामिनि जाइ कै।
सीरी बयारि छिदें अधरा, उरझे उरझाखर झार मझाइ के॥
तेरी सौ को करिहै करतूति, हतो करिबें सो करी तैं बनाइ के।
भोरहीं आई भटू इत मो, दुखदाइनि काज इतौ दुख पाइ के॥

शब्दार्थ—जामिनि–रात, रात्रि। सीरी–ठंडी। बयारि–हवा। छिदें–छिद जाँय। उरझे–उलझे, उलझ जाय।

(२) प्रेमगर्विता
उदाहरण
सवैया

ये बिनु गारी दये गुरुलोगन, टेरेईं सैन न नैनन टेरेईं।
देव कहै दुरि द्वार लों जात, कितौ करि हारी तऊ हरि हेरेई॥
पाय यही घर बैठि रहौं, जु तौ वे मिलि खेलन आवत मेरेई।
घेरु करें घर बाहिर के अरु, ये सुफिरैं घर बाहिर घेरेई॥

शब्दार्थ—सैन=इशारा, संकेत। दुरि=छिपकर। कितौ=कितनाही। घेरू–निंदा, चबाब। [ १२५ ] 

३–रूपगर्विता
उदाहरण
सवैया

हरिजू सो हहा हटकोरी भटू, जनि बात कहे जिय सोचनि की।
कहि पंकजनैनी बुलाइ के मोहि, दई सुखमा सुख मोचनि की॥
उनहीं सो उराहनो देऊ त तौ, उमगै उररासि सकोचनि की।
बलिवारों री बीर जु बारिज कौ, जु बरावरि बीर बिलोचनि की॥

शब्दार्थ—हटको–बरजो, मना करो। पंकजनैनी–कमल जैसे नेत्र वाली। मोहि–मुझे। उराहनो–उलाहना। सकोचनि–संकोच। बारिज–कमल। बिलोचनि–आँखे।

दोहा

हैं बियोग सिंगार मै, बरन्यो मान प्रकार।
ताही के मतमानिनी कविवर करत विचार॥

शब्दार्थ—बरन्यो–वर्णन किया है।

शब्दार्थ—मान का वर्णन वियोग शृंगार में हो चुका है, अतः उसी के अनुसार मानिनी का वर्णन समझना चाहिए।

अवस्था भेद
दोहा

स्वाधीना उतकण्ठिता, बासकसज्जा बाम।
कलहन्तरिता खण्डिता, विप्रलब्धका बाम॥

[ १२६ ] 

ताते प्रोषितप्रेयसी, अभिसारिका बखान।
आठ अवस्थाभेद ये, एक एक प्रति जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

शब्दार्थ—स्वाधीना, उत्कण्ठिता, बासकसज्जा, कलहन्तरिता, खण्डिता, विप्रलब्धा, प्रोषितप्रेयसी और अभिसारिका अवस्था भेद से ये आठ प्रकार, नायिकाओं के और होते हैं।

१–स्वाधीना
दोहा

बँध्यौ रहै गुन रूप सों, जाको पति आधीन।
स्वाधीना सो नाइका, बरनत परम प्रवीन॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—रूप और गुणों के कारण जिसका पति सर्वदा उसके अधीन रहे, उस नायिका को स्वाधीनपतिका नायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

मालिनि ह्वै हरि माल गुहैं, चितवे मुख चेरी भये चित चाइनि।
पान खवाबै खवासिन ह्वै के, सवासिन ह्वै सिखवैं सब भाइनि॥
बैदी दै देव दिखाइ के दर्पन, जावक देत भये अब नाइनि।
प्रेमपगे पिय पीतपटी पर, प्यारी के पोछिय मारी से पाइनि॥

शब्दार्थ—मालिनि ह्वै–मालिनि बनकर। माल गुहैं–माला गूँथते हैं। खवासिन–पान खिलानेवाली। बैंदी दे–मस्तक पर बिंदी लगाकर। दिखाइकें दर्पन–दर्पण दिखलाकर। जावक–महावर। पाइनि–पैर। [ १२७ ] 

२–उत्कंठिता
दोहा

पति कों गृह आए बिना, सोच बढ़ै जिय जाहि।
हेतु बिचारै चित्त मैं, उतकण्ठा कहु ताहि॥

शब्दार्थ—सोच बढ़ै–चिन्ता बढ़ै। जिय–हृदय में। जाहि–जिसके।

भावार्थ—पति के घर न आने पर जिसके हृदय में चिन्ताबढ़े और जो उसके न आने का कारण सोचती रहे, उसे उत्कण्ठिता नायिका कहते हैं।

उदाहरण पहला
सवैया

पिया जा हितप्यारिह के पदपङ्कज, पूजिबे कों पकरौ पन सो।
सुबिसारि दियो तिहि मेहीं निरादरे, घोर पतिग्रह को धन सो॥
इन पायनही विष बीरी भई, अरु सीरी बयारि बरै तन सो।
कहु क्यों न अगारु सो हारु लगै, हिय मै घनसार घन्यो घन सो॥

शब्दार्थ—अंगारु सो–अंगारे के समान। हारु–हार। घनसार–कपूर। घन सो–हथौड़े की चोट के समान।

उदाहरण दूसरा
सवैया

मारग हेरति हौं कब की, कहौ काहे ते आये नहीं अबहूँ हरि।
आवत हैं किधो ऐहैं अबै, कविदेव कै राखे है कोहू कछू करि॥

[ १२८ ] 

मोह तें न्यारी कै प्यारी गुपाल के, हाथ बिचारिये री चित्त मै धरि।
जो रमनी रमनीय लगै, बसि बाके रहे सजनी रजनी भरि॥

शब्दार्थ—मारग–मार्ग, रास्ता। हेरति हौ–देख रही हूँ। किधौं–अथवा, या। ऐहै–आवेंगे। कै...करि–अथवा किसी ने उन्हें, मोहित कर अपने यहाँ रख लिया है। रमनी–रमणी, स्त्री। रमनीय लगै–अच्छी लगे। बसि रहे–बास करें, रहैं। वाके–उसके। सजनी–सखी। रजनी भर–रात भर।

३–बासकसज्जा
दोहा

जाने पिय को आइबो, निहचै चारु बिचारि।
मग देखै भूषन सजै, बासकसज्जा नारि॥

शब्दार्थ—आइबो–आना। निहचै–निश्चय। मगदेखै–बाट देखे, इन्तज़ार करे, प्रतीक्षा करे। भूषन सजै–गहने पहने।

भावार्थ—अपने पति का आना निश्चित समझकर जो नायिका गहनों आदि से सजकर, अपने पति की प्रतीक्षा करती है, उसे बासकसज्जा कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

घोरि घनी घनसारु सों केसरि, चंदन गारि कें अंग सम्हारै।
मोतिन माँग के बार गुहै, अरु हार गुहै बलि बाल संवारै॥
देव कहैं सब भेष बनाइ कें, आइ कें फूलनि सेज सुधारै।
बैठि कहा उठि देखौ भटू, हरि आवत हैं घर आजु हमारै॥

[ १२९ ] 

शब्दार्थ—चंदन गारि–चन्दन घिसकर। अंग सम्हारै–शरीर को सजाती है। फूलनि सेज सुधारै–फूलों की सेज सजाती है।

४–कलहन्तरिता
दोहा

पहिले पति अपमान करि, फिरि पीछे पछिताइ।
कलहन्तरिता नाइका, ताहि कहैं कविराइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

शब्दार्थ—पहले पति का अपमान करके फिर उसके लिये मन में पछतानेवाली नायिका को कलहन्तरिता नायिका कहते हैं।

५–खण्डिता
दोहा

जाके भवन न जाइ पति, रहै कहूँ रति मानि।
खण्डितबारि सुखण्डिता, कबिवरकहतखानि॥

भावार्थ—जिस स्त्री का पति किसी दूसरी स्त्री के साथ प्रेमकर वहीं रहे, और घर न आवे उस स्त्री को खण्डिता नायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

सेज सुधारि सँवारि सबै अँग, आँगन के मग मैं पग रोपै।
चन्द की ओर चितौति गई निसि, नाहकी चाह चढ़ी चित चोंपै॥
प्रातही प्रीतम आये कहूँ, बसि देव कहीं न परै छबि मोपै।
प्यारी के पीक भरे अधरा ते, उठी मनो कम्पत कोप की कोपैं॥

[ १३० ] 

शब्दार्थ—चन्द...निसि–चन्द्रमा की ओर देखते देखते रात बीत गयी। नाह की चाह–पति को देखने की अभिलाषा। प्रातही–प्रातःकाल ही। कहूँ बसि–(रात भर) कहीं रहकर। कम्पत–काँपती हुई। कोप की–क्रोध की।

बिप्रलब्धा
दोहा

जाकों पति की दूतिका, लै पहुचै रतिधाम।
तहँपतिमिलै न जाहि सो, बिप्रलब्धिकाबाम॥

भावार्थ—जिसके प्रेमी की दूती उसे संकेत स्थल पर ले जाय और वहाँ जाने पर प्रेमी न मिले उसे विप्रलब्धानायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

दूती लिवाइ चली तहँ बालको, जा बन बालम सों मिलि खेल्यो।
भेषु बनाइकें भूषन साजि, सुगन्धित मोर कों साजु सकेल्यो॥
आन दही तें यहाँ तैं गई तिय, देखि उहाँ रति कुंज अकेल्यो।
बीरी बिगारि सखीन सो रारि के, हार उतारि उतै गहि मेल्यो॥

शब्दार्थ—लिवाइ–लेजाकर। बालम–पति। बिगारि–बिगाड़ कर। सखीन सों–सखियों से। रारिकै–झगड़ा करके। हार उतारि–हार को उतार कर। [ १३१ ] 

७—प्रोषितप्रेयसी
दोहा

सो तिय प्रोषितप्रेयसी, जोकौ पति परदेस।
काहू कारन ते गयो, दै कें अवधि प्रबेस॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जिसका पति आने की अवधि निश्चित करके परदेश चला गया हो उसे प्रोषितप्रेयसी नायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

होरी हरें हरे आइ गई, हरि आए न हेरि हिये हहरैगी।
बानि बनी बनबागनि की, कविदेव बिलोकि वियोग बरैगी॥
नाउँ न लेऊ बसन्त कौ री, सुनि हाय कहूँ पछिताय मरैगी।
कैसे कि जीहै किसोरी जो केसरि, नीर सों बीर अबीर भरैगी॥

शब्दार्थ—हेरि—देखकर। हहरैगी—दुःखी होगी। बियोग बरैगी—बिरह की अग्नि में जलेगी—अर्थात् विरह से दुःखी होगी। नाउँन लेउ—नाम मत लो।

८—अभिसारिका
दोहा

जो घेरी मद मदन करि, आपहि पति पर जाई।
वेष अङ्ग अभिसारिका, सजै समान बनाइ॥

[ १३२ ]

शब्दार्थ—घेरी—सताई जाकर। मदन करि—कामदेव से।

भावार्थ—जो स्त्री काम वश होकर, स्वंय भूषण वस्त्रादि से सजकर पति के पास जाती है, वह अभिसारिका नायिका कहलाती है।

उदाहरण
कवित्त

घटा घहराति बिज्जुछटा छहराति आधी,
राति हहराति कोटि कीट रबि रुञ्ज लों।
हूकत उलूक बन कूकत फिरत फेरु,
भूकत जु भैरो भूत गावे अलिगुंज लों॥
झिल्ली मुख मूंदि तहाँ बीछीगन गूंदि विष,
व्यालनि कों रूदि के मृनालनि के पुञ्ज लों।
जाई वृषभान की कन्हाई के सनेहबस।
आई उठि ऐसे मैं अकेली केलिकुञ्ज लों॥

शब्दार्थ—घटाघहराति—बादल गरजते हैं। बिजुछटा छहराति—बिजली चमकती है। उलूक—उल्लू। अलिगुज्ज—भौरोकीगूंज। भिल्ली—कीड़ा विशेष। ब्यालनि—साँप। जाईवृषभान की वृषमान की पुत्री, राधा। कन्हाई—श्रीकृष्ण।

आठ अवस्थाएं
दोहा

स्वीया तेरह भेद करि, द्वै जु भेद परनारि।
एक जु बेस्या ये सबै, सोरह कहो विचारि॥

[ १३३ ]

एक एक प्रति सोरहीं, आठ अवस्था जानु।
जोरि सबै ये एक सौ, अट्ठाईस बखानु॥
उत्तम, मध्यम, अधम करि, ये सब त्रबिधि बिचार।
चोरासी अरु तीनि सै, जोरें सब बिस्तार॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—स्वकीया के तेरह, परकीया के दो और एक गणिका, इस तरह कुल १६ तथा सोलहों के आठ आठ भेद मिला देने पर १२८ भेद हुए। फिर इन १२८ भेदों की उत्तम, मध्यम और अधम ये तीन-तीन अवस्थाएँ और होती हैं। इस तरह सब मिलाकर ३८४ भेद नायिकाओं के हुए।

उत्तमा
दोहा

सापराध पति देखि कै, करै जु मन मैं मानु।
दोष जनावै सहजहीं, सो उत्तमा बखानु॥

शब्दार्थ—सापराध—अपराधी।

भावार्थ—पति को अपराधी पाकर जो नायिका उसके दोषों को प्रकट कर मान करती है, उसे उत्तमा कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

केसरि सों उबटो सब अंग, बड़े मुक्तानि सों माँग सम्हारी।
चारु सुचम्पकहार हिये उर, ओछे उरोजन की छवि न्यारी॥

[ १३४ ] 

हाथ सों हाथ गहें कविदेव, सुसाथ तिहारेई नाथ निहारी।
हाहा हमारी सौं साँची कहौं, वह थी छोहरी छीवरबारी॥

शब्दार्थ—मुक्तानि—मोती। छोहरी—बालिका।

मध्यमा
दोहा

जाहि जानि जिय मानिनी, कन्त करै मनुहारि।
पाइ परें कोपहि तजै, कहौ मध्यमा नारि॥

शब्दार्थ—कन्त—पति। मनुहारि—खुशामद, विनती।

भावार्थ—जिस स्त्री को रूठा हुआ (मानिनी) समझ कर, उसका पति उसकी खुशामद करे और पति के खुशामद करने पर अपना मान त्याग दे उसे मध्यमा कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

नेह सों नीचे निहारि निहोरत, नाहीं कै नाह की ओर चितैवो।
पीठि दै मोरि मरोरि कैं डीठि, सकोरि कै सौंह सौ भौंह चदैवो॥
प्रीतम सों कविदेव रिसाइ के, पाइ लगाइ हिये सों लगैवो।
तेरौ री मोहि महासुख देत, सुधारसहू तैं रसीलौ रिसैवो॥

शब्दार्थ—नेह—प्रेम। निहोरत—खुशामद करते। मरोरिकैं डीठि—दृष्टि फेर कर। भौंह चढ़ैवो—भौहों का चढ़ाना—टेढ़ा करना। रिसाइके—क्रोधित होकर। सुधारस......रिसैवो—तेरा रूठना अमृत से भी बढ़कर अच्छा लगता है। [ १३५ ] 

अधमा
दोहा

बिनु दोषहि रूठै तजै, बिना मनाये मानु।
जाको रिस रस हेतु बिन, अधमा ताहि बखानु॥

शब्दार्थ—रूठै—क्रोधित हो।

भावार्थ—जो नायिका बिना किसी दोष के अपने पति से रूठे और बिना किसी कारण के क्रोध करे उसे अधमा नायिका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

आजु रिसोंही न सोहीं चितौति, कितौ न सखी प्रति प्रीति बढ़ावै।
पीठि दै बैठी अमैठी सी ठोठि कै, कोइन कोप की ओप कढ़ावै॥
नाह सो नेह कौ तातौ न नैक, ज ऊपर पाइ प्रतीति बढ़ावै।
तीर से तानि तिरीछी कटाच्छ, कमान सी भामिन भौहै चढ़ावै॥

शब्दार्थ—सोही—सामने। कोइन—आँख के कोए। ओप—आभा। तीर से—बाणों के सदृश। कमानसी—धनुष के समान।

सखी-भेद
दोहा

बहु विनोद भूषन रचै, करै जु चित्त प्रसन्न।
प्रियहि मिलावै उपदिसै, रहै सदा आसन्न॥
पति कों देइ उराहनो, करै बिरह अस्वास।
ऐसी सखी बखानिये, जाके जी बिस्वास॥