भाव-विलास/तृतीय विलास/रस

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भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ ६५ ] 

रस
दोहा

जो विभाव अनुभाव अरु, विभचारिनु करि होइ।
थिति की पूरन बासना, सुकवि कहत रस सोइ॥
जोहि प्रथम अनुराग मैं, नहिं पूरब अनुभाव।
तौ कहिये दम्पतिनु के, जन्मान्तर के भाव॥
ताहि विभावादिकन ते, थिति सम्पूरन जानि।
लौकिक और अलौकिक हि, द्वै बिधि कहत बखानि॥
नयनादिक इन्द्रियनु के, जोगहि लौकिक जानु।
आतम मन संजोग तै, होय अलौकिक ज्ञानु॥
कहत अलौकिक तीनबिधि, प्रथम स्वापनिक मानु।
मानोरथ कविदेव अरु, औपनायक बखानु॥

भावार्थ—विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों द्वारा जो स्थायी भाव व्यक्त किये जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं। ये रस लौकिक और अलौकिक दो प्रकार के होते हैं। नयनादि इंद्रियों से संबंध रखनेवाले लौकिक और आत्मा तथा मन से संबंध रखने वाले अलौकिक कहलाते हैं। अलौकिक के भी तीन भेद है। १—स्वापनिक २—मानोरथिक ३—औपनायक। [ ६६ ] 

अलौकिक रस
उदाहरण पहला—(स्वापनिक)
सवैया

सोइ गई अभिलाषभरी तिय, सापने में निरखे नंदनन्दन।
देव कछू हँसि बात कही, पुलके सु हिये झलके जल के कन॥
जागि परी नवनूढ़ वधू ढिंग, दूढ़ति गूढ़ सनेहसनी घन।
सोच सकोच अगोचर तीय, त्रसे, बिलसै, बिहसै, मनही मन॥

शब्दार्थ—अभिलाष भरी—इच्छाओं को लिये हुए। निरखे—देखे। पुलके सुहिये—हृदय पुलकायमान होगया। झलके.....कन—पसीने की बूंदें दिखलायी पड़ने लगी। नवनूढ़—नवविवाहिता। ढिगढूढ़त—पास में ढूंढ़ती है। गूढ़ सनेह सनी—प्रेम में सराबोर। सकोच—संकोच। अगोचर—जो दिखलायी न पड़े। त्रसे—डरे।

उदाहरण दूसरा—(मानोरथिक)
सवैया

कालिदी कूल भयो अनुकूल, कहूं घरबार घिरो नहिं घेरौ।
मंजुल बंजुल साल रसाल, तमालनि के बन लेत बसेरौ॥
केलि करे री कदम्बनि बीच, जु कानन कुञ्ज कुटीन में टेरौ।
मोहनलाल की मूरति के सँग, डोलत माई मनोरथ मेरौ॥

शब्दार्थ—कालिदी—यमुना। डोलत—घूमता फिरता है। मनोरथ—अभिलाषा। [ ६७ ] 

उदाहरण तीसरा—(औपनायक)
सवैया

झूमक रैन जसोमति के, जुबतीन कौ आज समाज सिधायो।
स्याम कौ सुन्दर भेष बनाइ कै, आइ बधू इक बैन बजायो॥
हास में रास रच्यो कविदेव, विलास के ही में हुलास बढ़ायो।
नाचत वाहि सखी सबही के, हिए सुखसिन्धु-कौ पार न पायो॥

शब्दार्थ—झूमक—एक तरह का नृत्य और गान। जुवतीन कौ—युवतियों का। हुलास—आनन्द। हिए... ...पार न पायो—हृदय में सुख का अपार समुद्र उमड़ आया।

लौकिक रस
दोहा

कहत सु लौकिक त्रिबिधि बिधि, यह बिधि बुधि बलसार।
अब बरनत कविदेव कहि, लौकिक नव सुप्रकार॥

शब्दार्थ—त्रिबिधि—तीन तरह के।

भावार्थ—इस प्रकार विद्वानों ने अलौकिक रस के तीन भेद बतलाये हैं। अब लौकिक रसों का वर्णन किया जाता है। ये कवियों ने नौ प्रकार के माने हैं।

छप्पय

प्रथम होइ सिंगार, दूसरौ हास्य सु जानौ।
तीजौ करुना कहौ, चतुरथौ रौद्र-सु मानौ।
वीर पाँचवो जानि, भयानक छठो बखानो।
सतयों कहि बीभत्सु, आठओं अद्भुत आनो॥

[ ६८ ]

यहि भांति आठ बिधि कहत कवि, नाटक मत भरतादिसब।
अरु सांत यतन मत काव्य के, लौकिक रस के भेद नव॥

शब्दार्थ—चतुरथौ—चौथा। सातयो—सातवाँ।

भावार्थ—पहला शृंगार, दूसरा हास्य, तीसरा करुण, चौथा रौद्र, पांचवाँ वीर, छठा भयानक, सातवाँ वीभत्स और आठवाँ अद्भुत ये आठ भरतादि आचार्यों ने नाटकों के रस माने हैं। काव्य में इन आठों के अतिरिक्त एक रस शान्त ओर होता है।

दोहा

द्वै प्रकार सिंगार रस, है संभोग बियोग।
सोप्रच्छन्न प्रकाश करि, कहत चारि बिधि लोग॥
देव कहै प्रच्छन्न सो, जाकौ दुरौ विलास।
जानहिं जाको सकल जन, बरनैं ताहि प्रकास॥

शब्दार्थ—द्वै—दो। सिंगार—शृंगार। प्रच्छन्न—छिपा हुआ।

भावार्थ—शृंगाररस दो तरह का होता है, एक संयोग और दूसरा वियोग। इन दोनों के भी दो-दो भेद और होते हैं; प्रच्छन्न और प्रकाश। जो अप्रकट रहे वह प्रच्छन्न कहलाता है और जो प्रकट रहे वह प्रकाश।

उदाहरण पहला—(प्रच्छन्न संयोग)
सवैया

बाजि रही रसना रसकेलि मैं, कोमल के बिछियानु की बानी।
प्यारी रही परजङ्क निसंक पै, प्यारे के अंक महासुख सानी॥
भौं पर चापि चढ़ी उतरी, रंग रावटी आवत जात न जानी।
छोल छिपाइ न खोलि हियो, कविदेव दुहूँ दुरि के रति मानी॥

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शब्दार्थ—रसकेलि मैं—क्रीड़ा के समय। परजङ्क—पलंग। निसंक—निडर। अंक—गोदी। महासुखसानी—बड़े आनन्द से। दुहूँ—दोनों ने। दुरिके—छिपकर।

उदाहरण दूसरा—(प्रकाश संयोग)
कवित्त

सोधे की सुबास आस-पास भरिभवन रह्यौ,
भरन उसांस बास बासन बसात है।
कंकन झनित अगनित रब किंकनी के,
नूपुर रनित मिले मनित सुहात है॥
कुण्डल हिलत मुखमण्डल झलमलात,
हिलत दुकूल भुजमूल भहरात है।
करत बिहार 'कविदेव' बार बार बार,
छूटि छूटि जात हार टूटि टूटि जात है॥

शब्दार्थ—सोंधे—सुगंधित द्रव्य विशेष। कंकन झनित—कंकनो की आवाज़ होती है। रब—शोर। किकनी—करधनी, मेखला। नूपुर—बिछिया। मनित—मणि। दुकूल—वस्त्र। बार—अनेक बार, बारम्बार। बार—बाल। हार—गले का आभूषण।