भाव-विलास/तृतीय विलास/हाव

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भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ ७० ] 

हाव
दोहा

नारिन के संभोग ते, होत बिबिध बिधि भाव।
तिनमें भरतादिक सुकवि, बरनत है दस हाव॥

शब्दार्थ—बिबिध बिधि—अनेक तरह के।

भावार्थ—स्त्रियों में संयोगवश जो अनेक प्रकार के भाव पैदा होते हैं, उनमें से भरतादि आचार्यों ने दस का वर्णन किया है। ये दस हाव कहलाते हैं।

छप्पय

पहिलै लीला हाव, बहुरि सुबिलास बरनिये।
ताते कउ बिछित्ति, बहुरि विभ्रम कहि गनिये॥
किलकिंचित तब कह्यौ, तबै मौटाइतु मानहु।
तातें कहु कुटमित्त, बहुरि बिब्बोकहु जानहु॥
कविदेव कहे फिर ललित कहु, ताते बिहित कहे सरस।
इहि भाँति बिबिध बिधि बिबुधवर, बरनत कबिवर हाव दस॥

भावार्थ—लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित और विहित इन दस हावों का कवियों ने वर्णन किया है।

१—लीला
दोहा

कौतुक तें पिय की करै, भूषन भेष उन्हार।
प्रीतम सों परिहास जँह, लीला लेउ विचारि॥

[ ७१ ]

शब्दार्थ—उन्हारि—नक्ल, अनुकरण।

भावार्थ—जहाँ कौतुकवश प्रिया अपने पति का भेष धारण कर उससे परिहास करे वहाँ लीला हाव कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

कालि भटू बनसीबट के तट, खेल बड़ो इक राधिका कीन्हो।
सांझनि कुजनि मांझ बजायो, जु श्याम को बेनु चुराइ कै लीन्हो॥
दूरि तें दौरत 'देव' गए, सुनि के धुनि रोसु महाचित चीन्हो।
सग की औरै उठी हँसि के तब, हेरि हरे हरि जू हँसि दींन्हो॥

शब्दार्थ—बेनु—वंशी। चुराइकै लीन्हो—चुरा लिया। रोसु—क्रोध। संग....औरैं—साथ की अन्य सखियाँ।

२—विलास
दोहा

प्रिय दरसनु सुमिरनु श्रवनु, जहँ अभिलाख प्रकाश।
बदन मगन नयनादिकौ, जो विशेष सुविलास॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अपने पति अथवा प्रेमी के दर्शन, स्मरण अथवा उसका समाचार मिलने पर, हृदयगत आनन्द के कारण जो मुँह, नयनादि से प्रसन्नता सूचक जो चेष्टाएँ प्रकट होती है उन्हें विलास कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

आजु अटा चढ़ि आई घटानु मैं, बिज्जु छटासी बधू बनि कोऊ।
देव त्रिया कविदेवन केतिये, एतौ हुलास विलास न वोऊ॥

[ ७२ ]

पूरन पूरब पुन्यन ते बड़भाग, विरंचि रच्यौ जन सोऊ।
जाहि लखैं लघु अंजन दै, दुखभंजन ये दृगखंजन दोऊ॥

शब्दार्थ—घटानु .....छटासी—बादलों के बीच बिजली के सदृश। पूरन—पूर्ण। पूरब पुन्यन तें—पूर्व जन्म कृत पुण्यो से। दुःख भंजन—दुःख को नाश करनेवाले। दृगखंजन—खञ्जन पक्षी जैसे नेत्र।

३—विच्छित्ति
दोहा

सुहाग रिस रस रूप तै, बढ़ै गर्व्व अभिमान।
थोरेई भूषन जहाँ, सो विच्छित्ति बखान॥

शब्दार्थ—थोरेई—थोड़े से।

भावार्थ—अपने भाग्य, रुपादि तथा अपने अपार सौन्दर्य के कारण थोड़े ही शृंगार से अधिक शोभा प्राप्त करने के कारण गर्व होना विच्छित्ति हाव कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

भाग सुहाग को गर्व बढ़ौ, सु रहै अभिमान भरी अलबेली।
वेसरि बंदिन केसरि खौरि, बनावै न सेदुर रंक सुहेली॥
भूलेहूँ भूषन बेषु न और, करै कहि देव विलास की बेली।
मोहनलाल के मोहन कौ यह, पेंधति मोहनमाल अकेली॥

शब्दार्थ—वेसरि—नाक का आभूषण विशेष। केसरि खौरि—केसर का तिलक। मोहनलाल....अकेली—श्रीकृष्ण को रिझाने के लिए केवल मोहनमाला ही पहनती है। [ ७३ ] 

४—विभ्रम
दोहा

उलटे जहँ भूषन वचन, वेष हँसै जन जाहि।
भाग रूप अनुरागमद, विभ्रम वरनै ताहि॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—आतुरता वश भूषण तथा पहनावे का स्थानान्तर पर धारण करना विभ्रम कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

स्याम सों केलि करी सिगरी निसि, सोत तें प्रात उठी थहराइकैं।
आपने चीर के धोखे बधू, पहिरथौ पटुपीत भटू भहराइकैं।
बाँधि लई कटि सों बनमाल, न किंकिनि बाल लई ठहराइकैं।
राधिका की रस रंग की दीपति, सँग की हेरि हँसी हहराइकै॥

शब्दार्थ—सिगरीनिसि—सारी रात। सोत... थहराइकै—सवेरे हड़बड़ाकर उठी। आपने.....धोखे—अपने वस्र के बदले। पटुपीत—पीताम्बर (श्रीकृष्ण का)। बाँधि बनमाल—बनमाला कमर से बाँध ली। संग की.....हहराइ कैं—साथ की सहेलियाँ यह देख ठठाकर हँस पड़ी।

५—किलकिंचित
दोहा

किलकिंचित मैं चपलता, नहिं कारज निरधार।
सम, दम, भय, अभिलाष, रुख, सुमित गर्व्व इकबार॥

[ ७४ ]

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—एक बार ही भय, हास, रस, सम, दम, अभिलाष, मान, गर्व आदि के उत्पन्न होने को किलकिचित हाव कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

पाइँ परै पलिका पै परी, जिय सकति सोतिन होति न सौहीं।
ऐंचि कसी फुँफुदी की फुंदी, भुज दाबी दुहूँ छतियाँ हुलसौंहीं॥
काँपि कपोलनि चाँपि हथेरिन, झाँपि रही मुख डीठि लसौंहीं।
त्यो सकुचोंहीं, उचोहीं, रुचोहीं, ससोहीं, हँसोहीं, रिसोहीं रसोहीं।

शब्दार्थ—जिय संकति—हृदय में डरती है। डीठि—दृष्टि। ऐचि कसी—खींचकर कस ली। सकुचोंहीं—लज्जायुक्त। उचोंहीं—ऊँची। (कुछ क्रोधयुक्त)। हँसोहीं—हास्य युक्त। रिसोहीं—क्रोध युक्त। रसोहीं—प्रसन्नतायुक्त।

६—मोट्टाइत
दोहा

सौति त्रास कुल लाज तें, कपट प्रेम मन होइ।
सुमुख होइ चित विमुख हू, कहौ मोटायितु सोइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—सौत के भय अथवा कुल की लज्जावश अपने हार्दिक अनुराग को प्रकट न कर सकना मोट्टाइत कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

राधिका रूठी कछू दिन तें, कविदेव बधू न सुने कछू बोले।
नैकु चितौति नहीं चितु दै, रस हाल किये हूँ हियेहू न खोले॥

[ ७५ ]

आवति लोक की लाज के काज, यही मिस सौतिन कौ सुख छोले।
श्याम के अंग सौं अंग लगावै न, रंग में संग सखीन के डोले॥

शब्दार्थ—चितौती—देखती है। चितुदै—मनलगाकर। छोले—नष्ट करती है।

७—कुट्टमित
दोहा

कुच ग्राहन रददान ते, उतकण्ठा अनुराग।
दुखहू मैं सुख होइ जहँ, कुटमित कहैं सभाग॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—कुच ग्रहण अथवा रदच्छद आदि के कारण उतकंठित हो कर मनही मन सुखी होने पर भी ऊपर से मिथ्या दुःख प्रकट करने को कुट्टमित हाव कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

नाह सो नाहीं ककै सुख सो सुख, सो रति केलि करै रतिया मैं।
देत रदच्छद सी सी करै, कर ना पकरै पै बकै बतिया मैं॥
देव किते रति कूजित के तन, कम्प सजे न भजे छतिया मैं।
जानु भूजानहू कों भहरावति, आवते छैल लगी छतिया मैं॥

शब्दार्थ—नाह-पति। रतिकेलि—कामक्रीड़ा। रतिया मैं—रातमें। [ ७६ ] 

८—बिब्बोकु
दोहा

प्रिय अपराध धनादि मद, उपजै गर्व्व कि बारु।
कुटिल डीठि अवयव चलन, सो बिब्बोकु बिचारु॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—प्रेमी के अपराध पर अथवा धनादि के मद से हृदय में अभिमान उत्पन्न होकर टेढ़ीनिगाह से देखना और भौंह आदि नचाकर मान दिखलाना बिब्बोकु हाव कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

स्थामले सौति के संग बसे निसि, आँगनि वाहि के रंग रचाइकै।
आए इतै परभात लजात से, बोलत लोचन लोल लचाइ कै॥
देव कों देखि कै दोष भरे तिय, पीठि दई उत दीठि बचाइ कै।
ज्यो चितई अरसोहें रिसोहैं, सुसोहे सखीन के भौहें नचाइ कै॥

शब्दार्थ—स्यामले—श्रीकृष्ण। वाहिं रंगरचाइकै—उसीके रंगमें रंगे हुए। इतै—यहां। परभात—प्रातःकाल, शुबह। बोलते...लचाइकै—लज्जा के मारे आँखे नीची करके बोलते हैं। पीठ दुई—पीठ फेर के बैठगयी।

९—ललित
दोहा

मन प्रसाद पति बस करन, चमत्कार चित होइ।
सकल अंग रचना ललित, ललित बखानै सौइ॥

[ ७७ ]

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—पति को वश में करने के लिए शृंगार युक्त सब अंगों को सुकुमारता से रखने को ललित हाव कहते है।

उदाहरण
सवेया

पूरि रहै पहिले पुर कानन, पान के गौन सुगन्ध समाजनि।
गान सों गुंज निकुज उठे, कविदेव सुभौरनि की भई भाजनि॥
दूरि ते देखी मसाल सी, बाल मिली मुख भूषन बेष बिराजनि।
जानि परि वृषभान सुता जब कान परी बिछियान की बाजनि॥

शब्दार्थ—दूरि तें—दूर से। मसाल सी बाल—सुन्दर युवती। बिछियान की बाजनि—बिछियों का बजना।

१०—विहित
दोहा

ब्याज लाज तें चेष्टा, औरे और बिचारु।
पूरे पिय अभिलाष तिय, ताही बिहित बिचारु॥

भावार्थ—लज्जावश अपने मनोरथ को प्रकट न कर किसी मिस से प्रेमी की इच्छा पूर्ति करने को विहित हाव कहते हैं। यह दो तरह का होता है—व्याज और लाज।

उदाहरण पहला (व्याज)
सवैया

वृषभान की जाई कन्हाई के कौतुक, आई सिंगार सबै सजि कैं।
रस हास हुलास बिलासनि सों, कविदेव जू दोऊ रहे रजि कैं॥

[ ७८ ]

हरि जू हँसि रंग मैं अंग छुयो, तिय संग सखीनहू कौ तजि कैं।
उठि धाई भटू भय के मिसि भामती, भीतरे भौन गई भजि कै।

शब्दार्थ—वृषभान की जाई—राधा। आई......सजिकैं—सब शृंगार करके आयी।

उदाहरण दूसरा (लाज)
सवैया

भेट भई हरि भावते सो इक, ऐसे मैं आली कह्यो बिहँसाइ कै।
कीजे लला रस केली अकेली ए, केली के भौन नवेली को पाइ कै॥
भौंहें भ्रमाइ कछू इतराइ, कछूक रिसाइ, कछू मुसक्याइ कै।
खैचि खरी दई दौरि सखी के उरोजनि बीच सरोज फिराइ कैं॥

शब्दार्थ—भावते सों—प्रीतम से, प्यारे से। आली—सखी। बिहंसाइकै—हँसकर। केली के भौन—क्रीड़ागृह। नवेली—सुंदरी। कछूक......मुसक्याइ कैं—कुछ क्रोधित होकर और कुछ मुस्कराकर।

वियोग शृंगार
दोहा

सुहृद श्रवन दरसन परस, जहां परस्परनाहिं।
सो वियोग शृंगार जहँ, मिलन आस मनमांहि॥
कहुँ पूरब अनुराग अरु, मान प्रवास बखान।
करुनातम इह भांति करि, वियोग चौविधि जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—जहाँ अपने प्यारे से परस्पर दर्शन अथवा मिलन न हो और हर समय मिलने की आशा लगी रहे वहाँ वियोग शृंगार होता है। [ ७९ ]यह वियोग चार तरह का होता है। १—पूर्वानुराग २—मान ३—प्रवास ४—करुणात्मक।

(क) पूर्वानुराग—(दर्शन)
दोहा

दंपतीन के देखि सुनि, बढ़े परस्पर प्रेम।
सो पूरब अनुराग अँह, मन मिलिवे को नेम॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावाथ—एक दूसरे को देख अथवा सुनकर दोनों के मन में प्रेम की वृद्धि होकर, जो मिलने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, उसे पूर्वानुराग कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

देवजू दोऊ मिले पहिले दुति, देखत ही तें लगे द्दग गाढ़े।
आगे ही तें गुन रूप सुने, तबही तें हिये अभिलाषहि बाढ़े॥
ता दिन तें इत राधे उतै, हरि आधे भये जू वियोग के बाढ़े।
आपने आपने ऊँचे अटा चढ़ि, द्वारनि दोऊ निहारत ठाढ़े॥

शब्दार्थ—दुति—शोभा। लगे गाढ़े—भलीभांति आँखें लग गयी। आगे हीते—पहले ही से। इत—इधर। उतै—उधर। आधे......बाढ़े-वियोग दुःख के कारण आधे रह गये। द्वारनि—दरवाज़ो पर। निहारत ठाढ़े खड़ें देखते हैं। [ ८० ] 

(ख) पूर्वानुराग—(श्रवण)
उदाहरण
सवैया

सुन्दरता सुनि देव ढुँहू के, रहे गुन सो गुहि के मनमोती।
लागे हैं देखिबे कों दिन रात, गिने गुरुहू नहिं सौ किन गोती॥
देव दुहूँ की दहै विनु देखे सु, देखें दसा निसि सोवत कोती।
होती कहा हरि राधिका सो, कहूँ नैकौ दई पहिचान जो होती॥

शब्दार्थ—सौकिन—गोती—सगे संबंधी।होती......पहिचान जो होती—यदि कही राधिका और श्रीकृष्ण में पहलेसे जान पहचान होती तो न जानें क्या होता।

(ग) पूर्वानुराग—(श्रीकृष्ण)

उदाहरण

सवैया

बाल लतान मैं बाल कौ बोल, सुन्यों कहुँ संग सखीन के टेरत।
काहू कही हरि राधा यही, दुरि देवजू देखी इतै मुख फेरत॥
है तब तें पल एक नहीं कल, लाखनि लों अभिलाखनि घेरत।
पाही निकुंजहि नन्दकुमार, घरीक मैं बार हजारक हेरत॥

शब्दार्थ—दुरि छिपकर। है......कल—तब से एक घड़ी के लिए भी चैन नहीं। लाखनि....घेरत—लाखों अभिलाषाएँ मन में आती हैं। घरीक मैं.....हजारक हेरत—एक घड़ी में हजार बार देखते हैं। [ ८१ ] 

(घ) पूर्वानुराग—(राधा)
उदारण
सवैया

सांसनि ही सो समीरु गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयोढरि।
तेज गयो गुन लै अपनों, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
देव जियै मिलिवे ही की आस, कि आसहू पास अकास रह्यो भरि।
जादिन तें मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जू लियो हरि जू हरि॥

शब्दार्थ—सांसनि—श्वासों से।

वियोग की दस अवस्थाएँ
छप्पय

प्रथम कहो अभिलाष, बहुरि चिन्ता सुमिरन कहु।
तातें है गुन कथन, बहुरि उद्वेगहि बरनहु॥
फिर प्रलाप उन्माद, व्याधि अरु जड़ता जानौ।
बहुरि मरन यहि भाँति, अवस्था दस उर आनौ॥
ए होंइ पूर्वअनुराग मैं, दोउन के कविदेव कहि।
अरु एक मरन बरनत न कवि, जो बरनै तो रसहिगहि॥

दोहा

चिन्ता जड़ता, व्याधि अरु, सुमिरन मरनुन्माद।
संचारिन मैं है कहे, दम्पति विरह विषाद॥

[ ८२ ]

भावार्थ—अभिलाष, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद व्याधि, जड़ता और मरण ये पूर्वानुराग की दस अवस्थाएँ होती है। मरण का वर्णन कवि लोग पहले तो करते ही नहीं और यदि करते हैं तो इस प्रकार जिससे उसकी सरसता नष्ट न हो। चिन्ता, जड़ता, व्याधि, स्मरण, और उन्माद का वर्णन संचारी भावों में हो चुका है।

१—अभिलाष
दोहा

प्रीतम जन के मिलन की, इच्छा मन में होय।
आकुलता सङ्कल्प बहु, कहु अभिलाष जुसोय॥

शब्दार्थ—आकुलता—घबड़ाहट।

भावार्थ—प्रेमी और प्रेमिका के परस्पर मिलने की उत्सुकता को अभिलाष कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

पहिले सतराइ रिसाइ सखी, जदुराइ पै पाइ गहाइये तौ।
फिरि भेंटि भटू भरि अंक निसङ्क, बड़े खन लों उर लाइयेतौ॥
अपनो दुख औरनि कौं उपहासु, सबै कविदेव बताइयेतौ।
घनश्यामहिं नैकहु एक घरी कौ, इहाँ लगि जोकरि पाइयेतौ॥

शब्दार्थ—सतराइ—ऐंठकर। रिसाइ—क्रोधित होकर। पाइ गहाइये—पैर पकड़वावें। बड़े खनलो उर लाइये—बहुत देर तक छाती से लगाये रहे। अपनो...बताइयेतौ—वियोगावस्था में जो दुःख पाया है वह और दूसरे जो हँसी उड़ाते रहे हैं वह सब उन्हें सुनावें घनश्यागहि....तौ—यदि घनश्याम को एक घड़ी के लिए भी पा जाँय। [ ८३ ] 

२—गुण कथन
दोहा

प्रिय के सुन्दरतादि गुन, बरने प्रेम सुभाइ।
साभिलाष जो गुन कथन, बरनते कोविदाइ॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अपने प्रतिम के गुणादि के साभिलाष वर्णन को गुणकथन कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

दामिन ह्वै रहिये मन आवत, मोहन को घन सौ तन घेरे।
वाहो कौ देखिये री दिन रातिहू, कोई करौ किन कोटि करेरे॥
श्याम की सुन्दरताई कहौं कछु, होहिं जो जोभ हजारन मेरे।
केवल वा मुख की सुखमा पर, कोरि ससी गहि वारि के फेरे॥

शब्दार्थ—दामिन—बिजली। मोहन......घेरे—श्रीकृष्ण के बादलों जैसे शरीर को घेर कर। वाही कौं—उसी को। कोई करो......कोटि—करेरे चाहे कोई कुछ भी करे। होइ जो......मेरे...यदि मेरे हजार जीभ हों। केवल...फेरे—केवल उस मुख की सुन्दरताई पर करोड़ों चन्द्रमा निछावर कर दिए।

३—प्रलाप
दोहा

अति उत्कण्ठा मन भ्रमन, पिय जनही कोलाप।
देव कहै कोविद सबै, बरनत ताहि प्रलाप॥

[ ८४ ]

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अपने प्रिय के उपस्थित न रहते हुये भी अत्यंत उत्सुकता से-उसी की याद कर चर्चा करते रहना प्रलाप कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

पुकारि कही मैं दही कोइ लेउ, यही सुनि आइ गयो उत धाई।
चितै कविदेव चलेई चले, मनमोहनी मोहनी तान सी गाई॥
न जानति और कछू तबतें, मनमाहि वही पै रही छबिछाई।
गई तौ हती दधि बेचन वीर, गयो हियरा हरि हाथ बिकाई॥

शब्दार्थ—उतधाई—उधर दौड़कर। मनमाँहि—मन में। गई......बिकाई—हे सखी! मैं बेचने तो दही गयी थी परन्तु उनके हाथ अपने हृदय को बेच आयी।

४—उद्वेग
दोहा

जहँ प्रिय जन के अनमिले, होइ अनादर प्रान।
भली वस्तु नागा लगे, सो उद्वेग बखान॥

शब्दार्थ—नागा—बुरी।

भावार्थ—अपने प्यारे के वियोग में कुछ भी अच्छा न लगने को उद्वेग कहते हैं। ऐसी अवस्था मे भली वस्तुएँ भी बुरी प्रतीत होती हैं।

कवित

बिरह के घाम ताई बाम तजि धाम धाई,
पाई प्रतिकूल कूल कालिदी की लहरी।

[ ८५ ]

यातें न अन्हाई जरै जोतन जुन्हाई तातें,
चितै चहुँ ओर-देव कहै यह हहरी॥
बारिज बरत बिन वारें बारि बारु बीच,
बीच बीच बिचिका मरीचिका सी छहरी।
चरण मारतण्ड कै अखण्ड बृजमण्डल है,
कातिक की राति किधों जेठ की दुपहरी॥

शब्दार्थ—बिरह के घाम ताई—बिरह रूपी घाम से तपी हुई। पाई प्रतिकूल—उलटा पाया। कालिदी की लहरी—यमुना की लहरों को। चहुं ओर—चारो ओर। बारिज—कमल। बार—बालू। मरीचिका—मृगतृष्णा। किधौं—या, अथवा।

मान वर्णन
दोहा

पति परपतिनी रति करत, पतिनी करति जु मान।
गुरु मध्यम लघु भेद करि, ताहू त्रिविध बखान॥
पति पर परतिय चिह्न लखि, करति त्रिया गुरु मान।
मध्यम ताको नाम सुनि, ता दरसन लघु जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अपने पति को दूसरे की स्त्री से प्रेम करते देखकर जो क्रोध करती है उसे मान कहते हैं। यह तीन तरह का होता है—गुरु, मध्यम और—लघु। दूसरे की स्त्री से रति करने के चिह्न देखकर जो मान स्त्री करती है वह गुरु, उसकी प्रशंसा सुनकर जो मान करती है वह मध्यम और उसे देखते हुए देखकर जो मान करती है वह लघु मान कहलाता है। [ ८६ ] 

१—गुरु मानमोचन
उदाहरण
सवैया

सौति की माल गुपाल गरे लखि, बाल कियो मुख रोष उज्यारो।
भौहैं भ्रमी करिकै अधरा, निकरयो रँग नैननि के मग न्यारो॥
त्यो 'कविदेव' निहारि निहोरि, दोऊ कर जोरि परथो पग प्यारो।
पी कों उठाइ कै प्यारी कह्यो, तुमसे कपटीन कौ काहि पत्यारो॥

शब्दार्थ—गरे—गले में। रोष—क्रोध। अधरा—ओष्ठ। नैननि के मग—आँखों की राह। निहारि—देखकर। निहोरि—खुशामद करके। परयो पग—पैरों पर गिर पड़ा। तुमसे......पत्यारो—तुमसे कपटी लोगों का क्या विश्वास?

२—मध्यम मानमोचन
उदाहरण
सवैया

बाल के सङ्ग गुपाल कहूँ, मिस सोत मैं सौति को नाम उठे पढ़ि।
यों सुनिकैं पटु तानि परी तिय, देव कहें इमि मान गयो बढ़ि॥
जागि परी हरि जानी रिसानी सी, सोंहैं प्रतीति करी चित में चढ़ि।
आँसुन सों संताप बुझयो, अरु साँसन सों सब कोप गयो कढ़ि॥

शब्दार्थ—निस—रात। सोत मैं—सोते हुए। पटु तानि परी—वस्त्र ओढ़ के सो गयी। रिसानी क्रोधित। सोहैं करी—शपथ खाने लगे। कोप गयो कढ़ि—क्रोध दूर हो गया। [ ८७ ] 

३—लघु मानमोचन
उदाहरण
सवैया

बैठें हुते रँगरावटी मैं, जिनके अनुराग रँगी बृज भून्यो।
किंकिनि काहू कहूँ झनकाइ, सुझाकन काहू झरोखे है झूम्यो॥
देव परत्रिय देखत देखि के, राधिका कौ मनु मान सौ घूम्यो।
बातें बनाइ मनाइ के लाल, हँसाइ के बाल हरे मुख चूम्यो॥

शब्दार्थ—बैठें हुते बैठें थे। अनुराग—प्रेम। किंकिनि—करधनी। परत्रिय—परस्त्री। बातें बनाइ—बातें बनाकर।

मानमोचन

साम दाम अरु भेद करि, प्रनति उपेछा भाइ।
श्ररु प्रसंग बिभ्रंस ये, मोचन मान उपाइ॥
साम क्षमापन को कहै, इष्ट दान को दान।
भेद सखी संमत मिलै, प्रनति नम्रता जान॥
वचन अन्यथा अर्थ जहँ, सुनुपेक्षा की रीति।
सो प्रसंग बिभ्रंस जहँ, अकस्मात सुख भीति॥

भावार्थ—साम, दाम, भेद, प्रनति, उपेक्षा, प्रसंग, और बिभ्रंस ये मान को दूर करने के उपाय हैं। क्षमा करना साम, इच्छित वस्तु प्रदान करना दाम, नम्रतापूर्वक व्यवहार प्रनति, सखी द्वारा अभिप्राय सिद्ध करना भेद, कहे हुए वचनों को ध्यान में लाना उपेक्षा, अकस्मात भयभीत कर सुख देना बिभ्रंस कहलाता है। [ ८८ ] 

उदाहरण
सवैया

आपनोई अपमान कियो, पहिराइवे को मनिमाल मंगाई।
लै मिलई मिस सों कुसखी, करि, पाय परेऊ न प्रीति जगाई॥
केतिक कौतिक बाते कहीं, कविदेव तउ तिय तोरी सगाई।
आजु अचानक आइ लला, डरवाइ कें राधिका कण्ठ लगाई॥

शब्दार्थ—मनिमाला—मणिमाला। केतिक—कितनीही। अचानक—अकस्मात।

दोहा

या बिधि छऊ उपाय हैं, न्यारे न्यारे जान।
लाघव तें एकत्र ही, सबको कियो बखान॥
देसकाल सबिशेष लखि, देखि नृत्य सुनि गान।
जातु मनाये हूं बिना, मानितीनु कौ मान॥

शब्दार्थ—लाघव तें—संक्षेप में।

भावार्थ—इस तरह मनमोचन के अलग अलग छः उपाय हैं जो संक्षेप में एक जगह वर्णन कर दिए गये हैं। देस काल आदि को देखकर अथवा नृत्य गीतादि को देख-सुनकर बिना मनाये भी, मानिनियों का मान चला जाता है।

सवैया

रूठिरही दिन द्वैक तें भामिनि, मानी नहीं हरि हारे मनाइकै।
एक दिना कहूँ कारी अंधारी, घटा घिरि आई घनी घहराइकै॥

[ ८९ ]

ओर चहूँ पिक चातक मोर के, सोर सुने सु उठी अकुलाइकै।
भेटी भटू उठि भामते कों, घन धोखे हीं धाम अंधेरे में धाइकै॥

शब्दार्थ—दिनद्वैकते—दो एक दिन से। भामते कों—प्यारेको।

प्रवास वियोग
दोहा

प्रीतम काहू काज दै, अवधि गयो परदेस।
सो प्रवास जहँ दुहुन कौ, कष्टक हैं बिबुधेस॥

शब्दार्थ—प्रवास—विदेश गमन।

भावार्थ—पति के किसी कार्यवश परदेश चले जाने से जब दोनों को वियोग का कष्ट होता है तब उसे प्रवास वियोग कहते हैं।

उदाहरण पहला
सवैया

लाल बिदेस सु बालबधू, बहु भांति बरी बिरहानल ही मैं।
लाज भरी गृहकाज करै, कहि देव परे न कहूँ कलही मैं॥
नाथ के हाथ के हेरि हरा हिय, लागि गई हिलकी गलही मैं।
आँखिन के अँसुवा लखि लोगन, लीलि लजोली लिये पलही मैं॥

शब्दार्थ—बहु भांति..बिरहानलही मैं—अनेक तरह से विरह-रूपी अग्नि में जलने लगी। ग्रहकाज—घर के काम। परे न...कलही में—कभी चैन नही मिलता। हेरि—देखकर। हिय...गलही मैं—गले में हिलकी बँधगयी अर्थात् जोर जोर से रोने लगी। आँखिन......पलही में—आँखों के आँसुओं को लोगों को निहारते देख, चट लील लिया अर्थात् आँखों के आँखों में रोक दिये। [ ९० ] 

उदाहरण दूसरा
सवैया

देव कहै बिन कन्त बसन्त न, जांउ कहूँ घर बैठि रहौरी।
हूक हिये पिक कूक सुने विष, पुज निकुजनी गुजति भौंरी॥
नूतन नूतन के बन बेषन, देखन जाती तौ हौं दुरि दोरी।
बीर बुरौमति मानो बलाइ ल्यों, होहुगी बौर निहारत बौरी॥

शब्दार्थ—बिन कन्त—पति के बिना। हूक...कूकसुने—कोपल की बोली सुनतेही हृदय में हूक उठती है। विषपुँज भौंरी—कुंजों में यह विषैली भ्रमरी गूंजती फिरती है। वीर...ल्यों—हे सखी तुम्हारी बलैयां लूं तुम मेरे बाहर न जाने का बुरा मत मानो। होहुगी...बौरी—क्योकि बौर देखते ही मैं पागल सी हो जाँऊगी।

उदाहरण तीसरा
कवित्त

जागी न जुन्हैया यह आगी मदनज्वर की,
लागी लोक तीनों हियो हेरें हहरतु है।
पारि पर जारि जल-जन्तु जारि बारि बारि
बारिधि ह्वै बाडब पताल पसरतु है॥
धरती तें धाइ झर फूटी नभ जाइ,
कहै देव जाइ जोवत जगत ज्योंजरतु है।
तारे चिनगारे ऐसे चमकत चारौं ओर,
बैरी बिधुमण्डल वभूकौ सो बरतु है।

[ ९१ ] 

शब्दार्थ—जुन्हैया–चाँदनी। यह आगी मदन ज्वर की–यह काम ज्वर की तपनि है। हहरतु है–घबड़ाता है। बारिधि–समुद्र। झर–लपट। नभ–आकाश। जाहि–जिसे। जोवत–देखने पर। जगत-संसार। तारे-नक्षत्र। चिनगारे ऐसे–चिनगारियों की तरह। बभूकौ–अग्नि की ज्वाला। बरतु है–जलता है।

उदाहरण तीसरा
सवैया

ब्याकुल ही बिरहाज्वर सो, सुभ पावनि जानि जनीनु जगाई।
घोरि घनारंग केसरि कौ, गहि बोरि गुलाल के रंग रँगाई॥
त्यों तिय सांस लई गहरी, कहिरी उनसों अब कौन सगाई।
ऐसे भये निरमोही महा, हरि हाय हमें बिनु होरी लगाई॥

शब्दार्थ—व्याकुल ही–घबड़ाई हुई थी। घोरि–घोलकर। सांस...गहरी–दीर्घ निःश्वांस छोड़ी। सगाई–संबंध।

नायक वियोग
उदाहरण
सवैया

सुधाधर से मुख बानि सुधा, मुसक्यानि सुधा बरसै रद पाँति।
प्रबाल से पानि मृनाल भुजा, कहि देव लतान की कोमल काँति॥
नदी त्रिबली कदली जुग जानु, सरोज से नैन रहे रस माँति।
छिनो भरि ऐसी तिया बिछुरे, छतियां सियराइ कहों किहि भाँति॥

शब्दार्थ—सुधाधर–चन्द्रमा। बानि सुधा–अमृतमय वचन। रदपांति–दंतपंक्ति। प्रबाल–मूंगा। कदली–केला। सरोज से नैन–कमल के समान नेत्र। छतियां...किहि भांति–छाती कैसे ठंडी रहे। [ ९२ ] 

करुनात्मक वियोग
दोहा

दम्पतीन मैं एक के, विषम मूरछा होइ।
जहँ अति आकुल दूसरौ, करुनातम कहि सोइ॥

शब्दार्थ—आकुल—व्यग्र।

भावार्थ—जहाँ दम्पति (पति-पत्नी) में एक को विरह के मारे मूर्छा आजाय और दूसरा अति व्याकुल हो जाय वहाँ करुनात्मक वियोग होता है।

उदाहरण पहला—(लघु)
कवित्त

कन्त की बियोगिन बसन्त की सुनत बात,
व्याकुल ह्वै जाति बिरहज्वर सों जरिकैं।
देव जू दुरन्त दुखदाई देखो आवतु सो,
तामैं तुम्हे न्यारी भई प्यारी जैहे मरिकैं॥
एती सुनि प्यारे कह्यो हाय हाय ऐसी भयें,
होय अपराधी कौन कहौ सो सुधरिकैं।
हरि जू तौ हेरि जौं लो फेरि कहैं दूती कछु,
टेरि उठी तूती तौलौं तुही तुही करिकैं॥

शब्दार्थ—कन्त की वियोगिन—पति से विछुड़ी हुई। दुरन्त दुखदाई—अत्यन्त कष्ट देनेवाला। तामैं—उसमें (बसन्त में)। तुम्हें न्यारी भई—तुमसे विछुड़ी हुई। टेरि उठी—पुकार उठी। तूती—मादा तोता। [ ९३ ] 

उदाहरण दूसरा—(मध्यम)
सवैया

गोकुल गाँव तें गौन गुपाल को, बाल कहूँ सुनि आई अलीपर।
व्याकुल ह्वै बिरहानल सो, तजि घूमि गिरी गुन गौरि गलीपर॥
हाइ पुफारत धाइ गये, न सम्हारत वे थिरु नाँहि थलीपर।
जानि न काहू की कानि करी, हरि आनि गिरे वृषभानललीपर।

शब्दार्थ—गौन—जाना, गमन। थिरु—स्थिर। थली—स्थान। कानि—लज्जा। वृषभानलली—राधा।

उदाहरण तीसरा—(दीर्घ)
सवैया

कालिय कालि महाविष व्याल, जहाँ जल ज्वाल जरै रजनीदिनु।
ऊरध के अधके उबरें नहिं, जाकी वयारि बरै तरु ज्यों तिनु॥
ता फनि की फन-फाँसिनु पै, फँदि जाइ फँसै उकसै न कहू छिनु।
हा वृजनाथ सनाथ करो, हम होती अनाथ पै नाथ तुम्हे बिनु॥

शब्दार्थ—रजनीदिनु—रात दिन। बयारि—हवा। बरै—जले। उकसै—निकल सके।

दोहा

जहाँ आस जिय जियन की, सो करुनातम जानु।
जामे निहचै मरन को, करुना ताहि बखानु॥
करुनातम सिंगार जहँ, रति और शोक निदानु।
केवल सोक जहाँ, तहाँ भिन्न करुन रस जानु॥

[ ९४ ]

या विधि बरनत चारि बिधि, रस वियोग शृङ्गारु।
यातें कहे न और रस, बाढ़े बहु विस्तारु॥
रस संभोग वियोग को, यह बिधि करउँ बखानु।
या रस बिनु सबरस बिरस, कवि सब नीरस जानु॥

शब्दार्थ—निहचै—निश्चय। या......बिरस-इस रस के बिना सब रस फीके जान पड़ते हैं।

भावार्थ—सरल है।

 

तृतीय विलास

 

समाप्त