भाव-विलास/द्वितीय विलास/संचारी भाव

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भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

[ २८ ]

आंतर सञ्चारी भाव
दोहा

सात्विक होत शरीर ते, ताही तें सारीर।
अन्तर उपजै आंतरिक, ते तेंतिस कहि धीर॥

शब्दार्थ—उपजै—उत्पन्न होते हैं।

भावार्थ—सात्तविक भाव शरीर से उत्पन्न होते हैं, इसलिए शारीरिक कहलाते हैं और आन्तर मन से पैदा होते हैं अतः आंतरिक कहे जाते हैं; ये तेंतीस तरह के होते हैं।

छप्पय

प्रथम होय निर्वेद ग्लानि संका सुयाकउ।
मद अरु श्रम आलस्य, दीनता चिंता बरनउ॥

[ २९ ] 

मोह सुमृर्त धृति लाज, चपलता हर्ष बखानउ।
जड़ता दुख आवेग, गर्व उत्कण्ठा जानउ॥
अरु नींद अवस्मृति सुप्रति अब, बोध क्रोध अबहित्थ मति।
उग्रत्व व्याधि उन्मादअरु, मरन त्रास अरु तर्कतति॥

शब्दार्थ—सूया—असूया।

भावार्थ—निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, लाज, चपलता, हर्ष, जड़ता, दुख, आवेग, गर्व, उत्कण्ठा, नींद, अपस्मार, अवबोध, क्रोध, अवहित्थ, मति, उपालम्भ, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास, औरतर्क ये ३३ आतरिक संचारी भाव हैं।

१—निर्वेद

चिंता अश्रु प्रकाश करि, अपनोई अपमानु।
उपजहि तत्व ज्ञान जहँ, सो निर्वेद बखानु॥

शब्दार्थ—अश्रु—आँसू।

भावार्थ—अपने को धिक्कारने तथा संसार के प्रति विरक्ति होकर तत्वज्ञान उत्पन्न होने को निर्वेद कहते हैं। इसमें चिंता, आँसू आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

उदाहरण
सवैया

मोह मढ़यो चतुराई चढ़यो, चित गर्व बढ़यो करि मान सों नातौ।
भूलि परौ तब तौ मद मन्दिर, सुन्दरता गुन जोबन मातौ॥
सूझि परी कविदेव सबै अब, जानि परौ सिगरौ जग जातौ।
नैसुक मो में जो होतो सयान तौ, हो तो कहा हरि सो हित हातौ॥

[ ३० ] 

शब्दार्थ—मढ़यो—मढ़ा हुआ, सना हुआ। मातौ—उन्मत्त। सिगरो—सब। नैसुक—थोड़ा भी।

२—ग्लानि
दोहा

भूख प्यास अरु सुरत सम, निरबल होय शरीर।
सिथिल होय अवयव सबै, ग्लानि कहत सो धीर॥

शब्दार्थ—सिथिल—शिथिल।

भावार्थ—भूख, प्यास आदि के कारण जब शरीर के समस्त अवयव शिथिल होकर निर्बल पड़ जाते हैं तब उसे ग्लानि कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

रंग भरे रति मानत दम्पति, बीत गई रतिआ छिन ही छिन।
प्रीतम प्रात उठें अलसात, चितै चित चाहत धाय गह्यो धन॥
गोरी के गात सबै अँगिरात, जु बात कही न परी सु रही मन।
भौहैं नचाय लचाय के लोचन, चाय रही ललचाय लला मन॥

शब्दार्थ—दम्पति—पति-पत्नी। रतिआ—रात। अलसाय—अलसाते हुए। अंगिरात—अँगड़ाते हैं। चाय रही—देखती रह गयी।

३—संका
दोहा

अपराधादि अनीति करि, कंपै करै छिपाय।
ताही को संका कहैं, सबै कविन के राय॥

[ ३१ ]

शब्दार्थ—करै छिपाय—छिपाती है।

भावार्थ—अपराध अथवा किसी प्रकार की अनीति कर उसे छिपाने के भाव को शंका कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

या डर हौं घर ही मैं रहौं, कविदेव दुरो नहिं दूतनि को दुख।
काहू की बात कही न सुनी मन, मांहि बिसारि दियो सिगरो सुख॥
भीर मैं भूले भये सखि मैं, जब ते जदुराई की ओर कियो रुख।
मोहि भटू तब ते निस द्यौस, चितौत ही जात चवाइन कौ मुख॥

शब्दार्थ—दुरो—छिपा। सिगरो—सब। निस—रात। द्योस—दिन। चितौत.....मुख—चवाव करनेवालों के मुख को देखते बीतता है। चवाइन—निंदा करनेवाले

४—असूया
दोहा

क्रोध कुबोध बिरोध ते, सहै न यह अधिकारु।
उपजै जहँ जिय दुष्टता, सु असूया अवधारु॥

शब्दार्थ—जिय—हृदय में। अवधार—समझो, जानो।

भावार्थ—दूसरे के सुख को सहन न कर न मन में क्रोध, विरोधादि से दुःख पहुँचाने के भाव को असूया कहते हैं। [ ३२ ] 

उदाहरण
सवैया

गोकुल गाँव की गोपबधू बनि, कै निकसीं उर दै दै बुलायो।
सोरही साज सिंगार सबै, बन देखन को बहु भेप बनायो॥
राधिका के हिय हेरि हरा, हरि के हिय कौ पिय को पहिरायो।
सती तहाँ तियती तिन भौतिन, मोतिन सों तिनको वन तायो॥

शब्दार्थ—सिंगार—शृंगार। हेरि—देखकर।

५—मद
दोहा

सो मद जहँ आसव पिये, हर्ष होत हिय बीच।
नीद हास रोदन करैं, उत्तम, मध्यम, नीच॥

शब्दार्थ—आसव—मदिरा। हिय बीच—हृदय में। हास—हँसी। रोदन—रोना।

भावार्थ—मद्यपान करने के कारण, हर्षित होने, सोने, हँसने तथा रोने आदि की वृत्तियों को मद कहते है।

उदाहरण
सवैया

आसव सेइ सिखाये सखीन के, सुन्दरि मन्दिर मैं सुख सोवै।
सापने मैं बिछुरै हरि हेरि, हरैंइ हरैं हरनी द्दग रोवै॥
देव कहै उठि के बिरहानल, आनंद के अंसुवान समोवै।
आजुही भाजि गई सब लाज, हँसै अरु मोहन को मुख जोवे॥

[ ३३ ]

शब्दार्थ—आसव—मदिरा। हरिनीदृग—हरिनी जैसे नेत्रवाली। बिरहानल—वियोग की आग। जोवै—देखती है।

६—श्रम
दोहा

अति रति अति गति ते जहाँ, उपजै अति तन खेद।
सो श्रम जामें जानिये, निरसहता अरु स्वेद॥

शब्दार्थ—खेद—दुख।

भावार्थ—अति रति अथवा किसी अन्य कार्य के अधिक करने से शरीर में जो थकावट आती है उसे श्रम कहते हैं। इसमें पसीना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

उदाहरण
कवित्त

खरी दुपहरी बीच तरुन तरु नगीच,
सही परै तरनि के करनि की जोति है।
तामें तजि धाम चली श्याम पै विकल बाम,
काम सरदाम बपु रूपहि बिलोति है॥
बड़े बड़े बारनि तैं हारिन के भारनि तैं,
थाकी सुकुमारि अंग स्वेद रङ्ग धोति है।
संग न सहेली सु अकेली केली कुञ्जन मैं,
बैठति, उठति, ठाढ़ी होति, चलि होति है।

शब्दार्थ—खरी दुपहरी—कड़ी धूप। नगीच—पास, निकट। तरनि—सूर्य। करनि—किरणें। विकल—व्याकुल। बारनि तैं—बालों से। हारनि के— [ ३४ ]  भारनि तें—हारों के बोझ से। स्वेद—पसीना। ठढ़ी होति—खड़ी होती है। चलि होति है—चल देती है।

७—आलस्य
दोहा

बहु भूषादिक भाव ते, कारजु कहौ न जाय।
सो आलस्य जहां रहै, तन अक्षमता छाय॥

शब्दार्थ—बहु—बहुत। कारजु—कार्य। अक्षमता—असमर्थता।

भावार्थ—बहुत भूषणादि के कारण शरीर असमर्थ हो जाने और अपना कार्य न कर सकने को आलस्य कहते हैं।

उदाहरण
कवित्त

ऊधौ आये ऊधौ आये, हरि कौ संदेसौ लाये,
सुनि, गोपी गोप धाये, धीर न धरत हैं।
बोरी लगि दौरीं उठीं भोरी लौं भ्रमति मति,
गनति न जनो गुरु लोगन दुरत हैं॥
ह्वै गईं बिकल बाल बालम वियोग भरी,
जोग को सुनत बात गात त्यों जरत हैं।
भारे भये भूषन सम्हारे न परत अङ्ग,
आगे को धरत पग पाछे को परत हैं॥

शब्दार्थ—संदेसौ—संदेशा, हाल, समाचार। दौरी—दौड़ी। गात—शरीर। भारे भये—भारी हो गये। सम्हारे न परत—सम्हाले नहीं जाते। पग—पैर। पाछे—पीछे। [ ३५ ] 

८—दीनता
दोहा

दुरगति बहु बिरहादि तै, उपजै दुःख अनन्त।
दीन बचन मुख ते कढ़े, कहैं दीनता सन्त॥

शब्दार्थ—दुरगति (दुर्गति)—बुरी दशा।

भावार्थ—वियोग के कारण अत्यन्त दुःख पाने पर जब मुख से दीन वचन निकल पड़ते हैं तब उसे दीनता कहते हैं।

उदाहरण
कवित्त

रैन दिन नैन दोऊ मास ऋतु पावस के,
बरसत बड़े बड़े बूंदनि सों झरिये।
मैन सर जोर मारे पवन झकोरनि सो,
आई है उमंगि छिनि छाती नीर भरिये॥
टूटो नेह नांव छूटौ श्यामसों सुहानुगुन,
ताते कविदेव कहैं कैसे धीर धरिये।
बिरह नदी अपार बूड़त ही मँझधार,
ऊधौ अब एक बार खेइ पार करिये॥

शब्दार्थ—मैन सर—कामदेव रूपी तालाब। कैसे......धरिये—धैर्य कैसे रखा जाय। मंझवार—बीच धार में। खेइ—खेकर। [ ३६ ]

९—चित्त
दोहा


इष्ट वस्तु पायें बिना, एक आस चितु होइ।
स्वांस, ताप, वैवरण जँह, चिन्ता कहियतु सोइ॥

शब्दार्थ—इष्ट वस्तु—इच्छित वस्तु।

भावार्थ—अपनी इच्छित वस्तु को न पाने पर उसी की आशा में व्याकुल रहने को चिन्ता कहते है। इस चिन्ता मे श्वांस, ताप, विवरनता आदि लक्षण होते हैं।

उदाहरण
सवैया


जानति नाहि हरै हरि कौन के, ऐसी धौ कौन बधूमन भावै।
मोही सों रूठि के बैठि रहे, किधौं कोई कहूँ कछू सोध न पावै॥
वैसिय भाति भटू कबहूँ अब, क्योहूँ मिलै, कहूँ कोई मिलावै।
आँसुनि मोचति सोचति यों, सिगरौ दिन कामिनि काग उड़ावै॥

शब्दार्थ—सोध न पावै—खोज नहीं मिलती। आँसुनि मोचति—आँसू गिराती है। सिगरौ दिन—दिन भर। कामिनि काग उड़ावै—कौए उड़ाती रहती है (कोई आने वाला होता है तब स्त्रियाँ कौए को उसके आगमन का सूचक समझ उड़ाती हैं)

१०—मोह
दोहा


अद्भुत दरसन बेग भय, अति चिन्ता अति कोह।
जहाँ मूर्छा विस्मरन, लंभतादि कहु मोह॥

[ ३७ ]

शब्दार्थ—कोह—क्रोध। विस्मरन—विस्मरण, भूलना।

भावार्थ—अद्भुत दरसन, भय, अत्यन्त चिन्ता आदि के कारण मूर्छा होकर शरीर का जब ज्ञान जाता रहता है तब उसे मोह कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

औरौ कहा कोऊ बालबधू है, नयो तन जोबन तोहि जनायो।
तेरेई नैन बड़े बृज मैं, जिनसो बस कीनों जसोमति जायो॥
डोलतु है मनों मोल लियो, कविदेव न बोलत बोल बुलायो।
मोहन कौ मन मानिक सौगुन, सो गुहिते उर सो उरझायो॥

शब्दार्थ—औरौ—दूसरी भी। जसोमति—यशोदा। मनो...लियो—मानो मोल लिया हुआ है।

११—स्मृति
दोहा

संसकार सम्पति विपति, अधिक प्रीति अति त्रास।
प्रिय, अप्रिय, सुमिरन, सुमृति, इकचित मौन उसांस॥

शब्दार्थ—अतित्रास—अधिक भय। उसांस—श्वांस मरना।

भावार्थ—सम्पत्ति, विपत्ति, प्रीति, त्रास, प्रिय, अप्रिय बातों के एकवित्त होकर स्मरण करने को स्मृति कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

नीर भरे मृग कैसे बड़े दृग, देखति नीचे निचाइ निचोलनि।

[ ३८ ] 

लै-लै उसांसे लिखे धरनी धरि, ध्यान रहै करि दीठि अडोलनि॥
बैठि रहै कबहूँ चुप ह्वै, कविदेव कहे कर चापि कपोलनि।
बालम के बिछुरे यह बाल, सुने नहिं बोल न बोलति बोलनि॥

शब्दार्थ—नीर भरे मृग कैसे बड़े दृग—हिरन के समान आँसुओं से भरी बड़ी-बड़ी आँखे। लै लै उसांसे—बार बार श्वांस भरकर। दीठि अडोलनि—एकटक दृष्टि। कर चापि कपोलनि—हाथ पर गाल रखकर। सुने........बोलनि—न किसी की सुनती है और न स्वयं कुछ कहती है।

१२—धृति
दोहा

ज्ञान शक्ति उपजै जहाँ, मिटै अधीरज दोष।
ताही सों धृति कहत जहँ, जथा लाभ सन्तोष॥

शब्दार्थ—अधीरज—अधैर्य।

भावार्थ—जब सत्संगादि किसी कारण से अधैर्य मिटकर ज्ञान शक्ति उत्पन्न होती है और मन सन्तोष लाभ करता है तब उसे धृति कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

रावरौ रूप रह्यो भरि नैननि, बैननि के रस सों श्रुति सानो।
गात में देखत गात तुम्हारे, ये बात तुम्हारीये बात बखानों॥
ऊधौ हहा हरि सों कहियो, तुम हौ न यहाँ यह हौं नहिं मानों।
यातन तें बिछुरे तु कहा, मनते अनतै जु बसौ तब जानों॥

शब्दार्थ—रावरौ—आपका। नैननि—आँखों में। श्रुति—कान। [ ३९ ]तुम......मानो—तुम यहाँ नहीं हो यह मैं नहीं मानती। बिठुरे—अलगहुए। अमतैं—अलग।

१३—लाज
दोहा

दुराचार अरु प्रथम रत, उपजै जिय संकोचु।
लाज कहै तासों जहाँ, मुख गोपन गुरु सोचु॥

शब्दार्थ—दुराचार—व्यभिचार। मुख गोपन—मुँह छिपाने का भाव।

भावार्थ—व्यभिचार अथवा प्रथम समागम के समय जो संकोच उत्पन्न होता है और जिसके कारण गुरुजनों के भयवश मुख छिपाने का भाव उत्पन्न होता है उसे लाज कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

आजु सखी सुख सोई सुतो, सखी सांचेहू सोच सकोच के हाते।
हातौ भयो कहु कैसे संकोच, बढ़ै निस नाह सों नेह के नाते॥
कैसी कही रति मानि रही, रति मन्दिर मैं मदिरा मद माते।
मारि हथेरी हरे हिय देव, सुदाबि रही अँगुरी इक दाँते॥

शब्दार्थ—नेह के नाते—प्रेम का रिश्ता। दाविरही—दबा रही। अँगुरी—उँगली। दाँते—दाँतों तले।

१४—चपलता
दोहा

रागरु क्रोध बिरोध तें, चपल चेष्टा होय।
कारज की उत्तालता, कहत चपलता सोय॥

[ ४० ]

शब्दार्थ—उत्तालता—उतावली, अस्थिरता।

भवार्थ—अस्तुत्य, क्रोधादि के कारण, स्थिरता का न रहना चपलता कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

खेलत मैं वृषभानु सुता, कहुँ जाइ धँसी बन कुंजन मैं ह्वै।
डार सों हार तहाँ उरभयौ, सुरझाय रही कविदेव सखी द्वै॥
तौ लगि आप गयो उतते, सु नगीच मनो चित बीच परे छूवै।
छोहरवा हरवा हरवाइ दै, छोरि दियो छल सों छतिया छूवै॥

शब्दार्थ—वृष-भानु—सुता-राधा। जाइ धँसी—जा घुसी। डार...उरभयौ—वहाँ डाल में हार उलझ गया। सुरझाय रही—सुलझाने लगी। तौलगि—तब तक। उततें—उधर से। नगीच—पास, निकट। छोहरवा—छोहरा।

१५—हर्ष
दोहा

प्रिय दर्शन श्रवनादि ते, होय जु हिये प्रसाद।
बेग, स्वेद, आँसू, प्रलय, हर्ष लखौ निरबाद॥

शब्दार्थ—प्रसाद—आनन्द।

भावार्थ—अपने प्रिय के दर्शन अथवा उसके बारे में सुनने से हृदय में जो आनन्द उठता है, उसे हर्ष कहते हैं। इस हर्ष के कारण पसीना, आँसू आदि चिन्ह दिखलायी पड़ते हैं। [ ४१ ] 

उदाहरण
सवैया

बैठी ही सुंदरि मंदिर मैं, पति को पथ पेखि पतिब्रत पोखे।
तौ लगि आयेरी आइ कह्यो दुरि, द्वारते देवर दौरि अनोखे॥
आनन्द में गुरु की गुरताउ, गनी गुनगौरि न काहू के ओखे।
नूपुर पाइ उठे झनकाइ, सुजाइ, लगी धन धाइ झरोखे॥

शब्दार्थ—बैठी ही—बैठी थी पत्ति......... पेखि—पति के आने की बाट देखती हुई। तौलगि.......अनोखे—तब तक देवर ने द्वार पर से आकर कहा कि, 'लो। वे आगये। आनन्द में गुरु.......ओखे—मारे आनन्द के बड़े लोगों का भी कुछ ध्यान न रहा। नूपुर—बिछिया। धाइ—दौड़ कर। झरोखे—खिड़की पर।

१६—जड़ता
दोहा

हित अहितहि देखै जहाँ, अचल चेष्टा होइ।
जानि बूझि कारज थके, जड़ता बरनै सोइ॥

शब्दार्थ—अचल—अस्थिर।

भावार्थ—हित अथवा अहित को देख कर, कुछ देर के लिए कार्य को भूल जड़वत हो जाने को जड़ता कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

कालिंदी के तट काल्हि भटू, कहूं ह्वै गईं दोउन भेंट भली सी।
ठौर ही ठाड़े चितौत इतौतन, नैकऊ एक टकी टहली सी॥

[ ४२ ] 

देव को देखती देवता सी, वृषभान लली न हली न चली सी।
नन्द के छोहरा की छवि सों, छिनु एक रही छवि छैल छली सी॥

शब्दार्थ—कालिन्दी—यमुना। तट—किनारा। ठौर ही ठाड़े—उस स्थान पर खड़े खड़े। चितौत—देखते हैं। नैकऊ—थोड़ा भी। वृषभान लली—राधा। न हली न चलीसी—बिल्कुल हिली नहीं। नन्द के छोहरा—श्रीकृष्ण। छवि—सुन्दरता। छिनुएक—एक क्षण तक। छलीसी—ठगीसी।

१७—दुःख
दोहा

उत्तम, मध्यम, नीचक्रम, लघु चिन्ता अप्रसाद।
महासोक ये धन गये, हित संसो सुविषाद॥

शब्दार्थ—अप्रसाद—दुःख, विषाद।

भावार्थ—अपने हित की सिद्धि न होने के कारण जो चिन्ता और विषाद होता है उसे दुःख कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

केलि करैं जल में मिलि बाल, गुपाल तहीं तट गैयन घेरे।
चोरि सबै हरवा हरवाइ दै, दूरि तें दौरि बछानु कों फेरे॥
हार हरें हिय मैं हहरें, तिय धीर धरे न करै इक टेरे।
राधिका ठाड़ी हरेई हरें हरिके मुख, और हँसै अरु हेरे॥

शब्दार्थ—गैयन—गाओं को। बछानु—बछड़ों। हेरे—देखे। [ ४३ ] 

१८—आवेग
दोहा

प्रिय अप्रिय देखें सुनें, गात पात से बेग।
होय अचानक भूरिभ्रम, सो बरनै आवेग॥

शब्दार्थ—अचानक—अकस्मात; यकायक।

भावार्थ—किसी प्रिय अथवा अप्रिय बात को देखने या सुनने से जो हृदय में घबराहट उत्पन्न होती है उसे आवेग कहते हैं। इसमें शरीर काँपने लगता है और भ्रमादि लक्षण प्रकट होते हैं।

उदाहरण
सवैया

देखन दौरीं सबैं बृजबाल, सु आये गुपाल सुने बृज भूपर।
टूटत हार हिये न सम्हारती, छूटत बारन किंकिन नूपुर॥
भार उरोज नितम्बन कौन सै, है कटिकौ लटिवौ द्दग दूपर।
देव सुदै पथ आई मनों, चढ़ि धाई मनोरथ के रथ ऊपर॥

शब्दार्थ—बृजभूपर—बृजमंडल में। न सम्हारतीं—नहीं संभालतीं। किंकिन—करधनी। नूपुर—बिछिया। दूपर—दोनों पर।

१९—गर्व
दोहा

बहु बल धन कुल रूपतें, सिरु उन्नतु अभिमान।
गिने न काहू आप सम, ताही गर्व बखान॥

[ ४४ ]

शब्दार्थ—काहू—किसीं को भी।

भावार्थ—अधिक बल, धन, कुल, अथवा अधिक रूप के होने के कारण अहंकार वश अपने बराबर किसी की न गिनने के भाव को गर्व कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

देव सुरासर सिद्ध बधून को, एतौ न गर्व जितौ इह ती को।
आपने जोबन के गुन के, अभिमान, सबै जग जानत फीको॥
काम की ओर सकोरति नाक, न लागत नाक को नायक नीको।
गोरी गुमानिन ग्वारि गमारि, गिने नहिं, रूप रती को रती को॥

शब्दार्थ—एतौ न गर्व—इतना गर्व नहीं। जिनौ इह ती को—जितवा इस स्त्री को। सबै जग जानत फीको—सारे संसार को नगण्य समझती है। काम—कामदेव। सकोरतिनाक—नाकसिकोड़ती है अर्थात् तुच्छ समझती है। नाक को नायक—इन्द्र। नीको—भला, अच्छा। गुमानिन—अभिमानिनी। गमारि—गंवारिन। गिने नहि—नही गिनती। रती—कामदेव की स्त्री। रती को—रती भर भी।

२०—उतकण्ठा
दोहा

प्रिय सुमिरन ते गात मैं, गौरव आरसु होय।
देस न काल सह्यो परै, उत्कण्ठा कहु सोय॥

शब्दार्थ—आरसु—आलस्य। [ ४५ ]

भावार्थ—अपने प्यारे की याद कर उससे मिलने के लिए आतुर होकर कुछ भी अच्छा न लगने के भाव को उत्कण्ठा कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

कैधों हमारिये बार बड़ो भयौ, कै रवि को रथ ठौर ठयो है।
भोरते भानु की ओर चितौति, घरी पल तें गनते ही गयो है॥
आवतु छोर नहीं छिन कौ, दिन कौ न अभै लगि जाय गयो है।
पाइये कैसिक सांझ तुरन्तहि, देखुरी द्योस दुरन्त भयो है॥

शब्दार्थ—कैधौं—अथवा, या। कै—या। रवि कोरथ—सूर्य का रथ। ठौर ठयो है एकही जगह खड़ा रह गया है। भोरतें—प्रातःकाल से। चितौति—देखती हूं। घरी....गयो है—एक एक पल गिनते बीता है। आवतु छोर नहीं—अन्त नही आता। जाम—याम, समय। कैसिक—कैसे। द्योस—दिन। दुरन्त—बड़ा भारी।

२१—नींद
दोहा

चिन्ता आरस खेद ते, बसे तुचां चितु जाय।
सुपन, दरस, अवयव चलन, एकउ नींद सुभाय॥

शब्दार्थ—आरस—आलस्य। सुपन—सपना।

भावार्थ—चिन्ता, आलस्य, खेद आदि के कारण एकाग्रचित हो सो जाने तथा सपने में दर्शनादि होने को नींद कहते हैं। [ ४६ ] 

उदाहरण

सोवत तें सखी जान्यो नहीं, वह सोवत ते घर आयौ हमारे।
पीत पटी कटि सों लपिटी, अरु सांवरो सुन्दर रूप सँवारे॥
'देव' अबै लगि आंखिन तें, वह बांकी चितौनि टरै नहिं टारे।
सापने में चित चोरि लियो, वह मोर-री मोर-पखौवन वारे॥

शब्दार्थ—पीतपटी—पीताम्बर। कटि—कमर। अभै लगि—अब-तक। चितौनि—चितवनि। टरै नहीं टारे—टाले नहीं टलती। सापने—स्वाप्न में। मोरपखौवन वारे—मोरपक्ष वाले श्रीकृष्ण।

२२—अपस्मार
दोहा

अधिक दुःख अतिभय असुचि, सूने ठौर निवास।
अपस्मार जहँ भूपतन, कम्प, फैन मुख स्वांस॥

शब्दार्थ—सूने—एकान्त।

भावार्थ—अधिक दुःख भय आदि के कारण शरीर में कंप होने तथा मुँह से फेन गिरने और लम्बी लम्बी सांसे भरने की अवस्था को अपस्मार कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

मोहन भाई चले मथुरा, तब तें निस बासर बीतत ठाढ़े।
बौरी भईं बृज की बनिता, बहुभांतिन 'देव' वियोग के बाढ़े॥

[ ४७ ] 

भूलि गई गुरु लोग की लाज, गए ग्रह काज गली ग्रह गाढ़े।
भीतिन सों अभिरे भहराइ, गिरैं फिर धाइ फिरैं मुख काढ़े॥

शब्दार्थ—निसि बासर—राति-दिन। बीतत ठाढ़े—खड़े बीतता है। बौरी—उन्मत्त। भूलि......लाज—गुरु जनों की लज्जा करना भी भूल गयीं। भीतिन सो..... भहराइ—दीवालो पर भहरा कर गिरती हैं। फिरैं मुख काढ़े—मुँह बाए दौड़ रहीं हैं।

२३—अवबोध
दोहा

नींद गये भीजै नयन, अंग भंग जमुहाइ।
एक बार इन्द्रिय जगै, तेकउ नीद सुभाय॥

शब्दार्थ—भीजै नयन—आंखे भींजती है। जमुहाइ—जमुहाई लेती है।

भावार्थ—निद्रा के पश्चात् आँखों को मलकर, जमुँहाई लेने के बाद जो चेतनता आती है; उसे अवबोध कहते है।

उदाहरण
सवैया

सापने में गई देखन हौं सुनि, नाचत नन्द जसोमति कौ नट।
वा मुसक्याइ के भाव बताइ के, मेरोइ खैचिखरो पकरो पट॥
तौ लगि गाय रम्हाइ उठी, कविदेव, वधूनि मथ्यो दधि को घट।
चौंकि परी तब कान्ह कहूँ न, कदंब न कुंज न कालिंदी कौ तट॥

[ ४८ ]

शब्दार्थ—सापने में—स्वप्न में। मेरोइ—मेरा ही। पकरो पट—कपड़ा पकड़ लिया। तौ लगि तब तक। रम्हाइ उठी—रँभाने लगी। दथि को घट—दही की हाँड़ी। चौंकि....तट चौक पड़ने पर देखा कि न कहीं कृष्ण है न कदम्ब है, न, कुंज है और न यमुना का किनारा ही है।

२४—क्रोध
दोहा

अधिक्षेप अपमान ते, स्वेद कंप दृगराग।
अहंकार जिय में बढ़ै, क्रोध सुनहु बड़ भाग॥

शब्दार्थ—स्वेद—पसीना। दृग—आँखें।

भावार्थ—अपमानदि के कारण हृदय में गर्व का भाव उदय होकर काँपने आदि की क्रियाएँ क्रोध कहलाती है।

उदाहरण
सवैया

देव मनावत मोहन जू, कब के मनुहारि करैं ललचौहैं।
बातें बनाय सुनावैं सखी, सब तातें औसीरी रसौहैं रिसौहैं॥
नाह सो नेह तऊ तरुनी, तजि राति बितौति चितौतिन सौ हैं।
मानत नाहिं तिरीछेहि तानति, बान सी आँखें कमान सी भौहैं॥

शब्दार्थ—मनुहारि—विनता। नाह—पति। तऊ—तौ भी। राति—रात्रि। बितौति—बिताती है। मानति नाहिं—नहीं मानती। तिरछेहि—तानति-टेढ़ी भौंहे करती है। बानसी आँखें—वाण के समान नेत्र। कमान सी भौहैं—कमान के समान भौहैं। [ ४९ ] 

२५—अवहित्थ
दोहा

लज्जा गोरव धृष्टता, गोपै आकृति कर्म्म।
और कहै औरे करै सु, अवहित्थ कौ धर्म॥

शब्दार्थ—और कहे औरै करे—कहे कुछ और तथा करे कुछ और

भावार्थ—अपनी लज्जा तथा मानादि को छिपाने के लिए अपने किए हुए कार्य को चतुरतापूर्वक; कुछ का कुछ कहकर छिपाना अवहित्थ कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

देखन को बन को निकसीं, बनिता बहु बानि बनाइ कै बागे।
देव कहैं दुरि दौरि के मोहन, आय गये उत तें अनुरागे॥
बाल की छाती छुई छल सो, घन कुंजन मैं बस पुंजन पागे।
पीछे निहारि निहारत नारिन, हार हियेके सुधारन लागे॥

शब्दार्थ—बनिता—स्त्रियां। बहु...बनाइकै—बहुत तरह के शृंगार करके। बागे—बागमें। दुरि—छिपकर। उततें—उधरसे। अनुरागे—प्रेम में सनेहुए। घनकुजंन में—घनी-कुंजों में। पीछे...लागे—पीछे जब देखा कि सखियां देख रही है तब गले का हार संभालने लगे।

२६—मति
दोहा

शास्त्र चिंतना ते जहां, होइ यथारथ ज्ञान।
करैं शिष्य उपदेश जहँ, मति कहि ताहि बखान॥

[ ५० ]

शब्दार्थ—यथारथ—यथार्थ, ठीक—ठीक।

भावार्थ—शास्त्रादि के विचार से यथार्थ ज्ञान होने को मति कहते हैं। इसमें उपदेशादि अनुभव होते हैं।

उदाहरण
सवैया

स्याम के संग सदा बिलसी, सिसुता मैं सु तामैं कछू नहीं जान्यो।
भूले गुपाल सों गर्व्व कियो, गुन जोबन रूप वृथा अरि मानो॥
ज्यो न निगोड़ो तबै समुझौ, 'कविदेव' कहा अब जो पछितानो।
धन्य जियै जग में जनते, जिनको मनमोहन तें मन मानो॥

शब्दार्थ—बिलसी—विलास किया। सिसुता मैं—बचपन में। सुता मैं......जान्यों—उस समय कुछ भी ज्ञान न रहा। भूलें गर्व्व कियो—व्यर्थ ही उनसे गरूर किया। गुन—गुण। जोबन—यौवन। बृथा—व्यर्थ। ज्यो......समुझौं—यदि यह दुष्ट उस समय न समझा। कहा......पछितानो—तो अब पछताने से क्या होता है। जिनको—जिनका। मन-मानों-—मन लगा।

२७—उपालम्भ
दोहा

उपालम्भ अनुनय विनय, अरु उपदेश बखान।
इनकौ अंतर भानु कहि, देव मध्य मति जान॥
उपालम्भ द्वै भाँति कौ, बरनि कहै कविराइ।
एक कहावै कोप ते, दूजौ प्रनय सुभाइ॥

शब्दार्थ—अनुनय विनय—प्रार्थना। द्वै भांति को—दोतरह का। [ ५१ ]

भावार्थ—विनय प्रार्थना उपदेशादि द्वारा अपने अभिप्राय को कहना उपालम्भ कहलाता है। यह दो तरह का होता है। एक कोप; दूसरा प्रणय।

उदाहरण पहला—(कोप)
सवैया

बोलत हौ कत बैन बड़े, अरु नैन बड़े बड़रान अड़े हौ।
जानति हौं छल छैल बड़े जू, बड़े खन के इह गैल गड़े हौ॥
देव कहै हरि रूप बड़े, ब्रजभूप बड़े हम पै उमड़े हौ।
जाउ जू जैये अनीठ बड़े, अरु ईठ बड़े ढीठ बड़े हौ॥

शब्दार्थ—बड़े खन के—बड़ी देर के। इह गैल अड़े हौ—इस मार्ग में खड़े हो। ढीठ—धृष्ठ।

उदाहरण दूसरा—(प्रणय)
सवैया

लाल भले हौ कहा कहिये, कहिये तौ कहा कहूँ कोऊ कहैयै।
काहू कहू न कही न सुनी, सु हमैं कहिबे कहि काहि सुनैयै॥
नैन परै न परै कर मैन, न चैन परै जुपै बैन बरैयै।
'देव' कहे नित को मिलि खेलि, इतै हित कौ चित कौ न चुरैयै॥

शब्दार्थ—मैन—कामदेव।

उदाहरण तीसरा—(अनुनय-विनय)
सवैया

वे बड़भाग बड़े अनुराग, इतै अति भाग सुहाग भरी हौ।
देखौ बिचारि समौ सुख कौ तन, जोबन जोतिन सों उजरी हौ॥

[ ५२ ] 

बालम सों उठि बोलौ बलाइल्यों, यो कहि देव सयानी खरी हौ।
हेरत बाट कपाट लगै हरि, बाट खरे तुम खाट परी हौ॥

शब्दार्थ—अनुराग—प्रेम। देखो.....कौ—विचार कर देखो यह सुख का समय है। जोवन.....उजरी हौ—तुम यौवन के कारण प्रकाशित हो रही हो। बालम से—पतिसे। बलाइल्यो—बलैया लूं। सयानी खरी हौ—चतुर हो, होशियार हो। हेरत बाट—इन्तज़ार करते हैं। कपाट लगै—किवाड़ो के पास खड़े हुए। हरि बाठ.....खाट परी हो—हरि बाहर खड़े हैं और तुम खाट पर पड़ी हो।

उदाहरण चौथा—(उपदेश)
सवैया

कोप से बीच परै पिय सों, उपजावत रङ्ग मैं भङ्ग सु भारी।
क्रोध बिधान बिरोध निधान, सुमान महा सुख मैं दुखकारी॥
तातें न मान समान अकारज, जाकौ अपानु बड़ौ अधिकारी।
देव कहै कहिहौं हित की, हरि जू सौ हितू न कहूँ हितकारी॥

शब्दार्थ—कोप से—क्रोध से। सुमान..... दुखकारी—मान सुख में दुख उत्पन्न करनेवाला है। तातें न मान......अकारज—इसलिए मान के समान अहितकर और कुछ नहीं। हितू—भलाई करनेवाला।

२८—उग्रता
दोहा

दोष कीरतन चौरता, दुर्जनता अपराध।
निरजनता सो उग्रता, जहँ तरजन बध बाध॥

शब्दार्थ—दुर्जनता—दुष्टता। [ ५३ ]

भावार्थ—दुर्जनता अपराधादि से उत्पन्न निर्दयता को उग्रता कहते हैं। इसमें ताडना, वध आदि अनुभव होते है।

उदाहरण
सवैया

मोहन माई भए मथुरापति, देव महामद सों मदमातौ।
गोकुल गाँव के गोप गरीब हैं, बासु बराबरि ही कौ इहाँतौ॥
बैठि रहौ सपने हूँ सुन्यो कहूँ, राजनि सो परजानि सों नातौ।
कोरे परै अब कूबरी के, अब याते कियो हमसो हित हातौ॥

शब्दार्थ—बासु बराबरि...तौ—यहाँ तो बराबर का ही व्यवहार है। सपने हूँ ... नातौ—सपने में भी कहीं राजा और प्रजा का रिश्ता सुना है। हातौ—दूर किया-अलग किया।

२९—व्याधि
दोहा

धातु कोप प्रीतम बिरह, अन्तर उपजै आधि।
जुर बिकार बहु अङ्ग मैं, ताही बरनैं व्याधि॥

शब्दार्थ—जुर—ज्वर।

भावार्थ—शरीर की धातुओं के कोप अथवा अपने प्यारे के वियोग के कारण शरीर में किसी विकार के उत्पन्न हो जाने को व्याधि कहते हैं। इसमें ज्वरादि लक्षण प्रकट होते हैं। [ ५४ ] 

उदाहरण
सवैया

तादिन ते अति व्याकुल है तिय, जा दिन ते पिय पन्थ सिधारे।
भूख न प्यास बिना ब्रजभूषन, भामिनि भूषन भेष बिसारे॥
पावत पीर नहीं कविदेव, रोरिक मूरि सबै फरि हारे।
नारी निहारि निहारि चले, तजि बैद बिचारि बिचारि बिचारे॥

शब्दार्थ—तादिन ते—उस दिन से। जादिन ते जिस दिन से। भूख......ब्रजभूषन—बिना श्रीकृष्ण के भूख प्यास सब भूल गयी। भामिनि.....बिसारे—गहने आदि पहनना भी छोड़ दिया। मूरि—औषधि। पावत.....हारे—करोड़ों दवाइयाँ कर छोड़ी परन्तु व्याधि नहीं जाती। नारी—नाड़ी। नारी....बिचारे—बेचारे वैद्य नाड़ी देख देख कर उसे छोड़ कर चलदेते हैं।

३०—उन्माद
दोहा

प्रिय वियोग तें जहँ वृथा, वचनन लाय विखाद।
बिन बिचार आचार जहँ, सो कहिये उन्माद॥

शब्दार्थ—विखाद—विषाद दुःख।

भावार्थ—अपने प्यारे के विरह के कारण बिना विचारे चाहे जो कुछ कहने को उन्माद कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

अरिकै वह आज अकेली गई, सरि के हरि के गुन रूप लुही।
उनहू अपनों पहिराय हरा, मुसकाइ के गाइ के गाय दुही॥

[ ५५ ] 

'कविदेव' कह्यौ किनि काऊ कछू, तबतें उनके अनुराग छुही।
सबही सो यही कहै बाल-बधू, यह देखौरी माल गुपाल गुही॥

शब्दार्थ—अरिकै—अड़कर, हठ करके। लुही—लेभायमान हुई। उनहूं—उन्होंने भी।

३१—मरण
दोहा

प्रगटहिं लक्षन मरन के, अरू विभाव अनुमाव।
जो निदान करि बरनिये, तौ सिंगार अभाव॥
निर्वेदादिक भाव सब, बरने सरस सुभाइ।
ता बिधि मरनो बरनिये, जामै रस नहिं जाइ।

शब्दार्थ—लक्षन—लक्षण।

भावार्थ—जहाँ मरने के लक्षण प्रकट हों उसे मरण कहते है। परन्तु इसके यथार्थ वर्णन से शृंगार रस में फीकापन आ जाता है। अतः इसका वर्णन इस प्रकार सरसता पूर्वक करना चाहिए जिस प्रकार निर्वेदादि भावों का किया गया है। ऐसा करने से सरसता नष्ट नहीं होती।

उदाहरण
सवैया

राधिके बाढ़ी वियोग की बाधा, सुदेव अबोल अडोल डरी रही।
लोगन की वृषभान के भौन मैं, भोर तें भारियें भोर भरी रही॥
वाके निदान कै प्रान रहे कढ़ि, औषधि मूरि करोरि करी रही।
चेति मरू करिके चितई जब, चारि घरी लौं मरी सी धरी रही॥

शब्दार्थ—वियोग की बाधा—विरह की व्यथा। अबोल—बिना [ ५६ ]पोले। अडोल—बिना हिले। डरी रही—पड़ी रही। भौन—घर। भोरते.....भरी रही—सबेरे से बड़ी भारी भीड़ लगी रही। करोरि—करोड़ों अर्थात् अनेक। मरू—मुश्किल से कठिनता से। चितई—देखा। मरी......रही—मरे के समान पड़ी रही।

३२—त्रास
दोहा

घोर श्रवन दरसन सुमृति, तंभ पुलक भयगात।
छोभ होइ जो चित्त मैं, त्रास कहत कवि तात॥
चित्त छोभ द्वै भाँति कौ, एक त्रास अरु भीति।
अकसमात तै त्रास, अरु विचार ते भयरीति॥

शब्दार्थ—सुमृति—स्मृति स्मरण। भीति—भय, डर।

भावार्थ—कोई अप्रिय बात के सुनने, स्मरण करने आदि से चित्त में जो क्षोभ पैदा होता है उसे त्रास कहते हैं। यह चित्त क्षोभ भी दो तरह का होता है। एक त्रास जो अकस्मात् पैदा होता है और दूसरा भय जो (पूर्वापर के) विचार से उत्पन्न होता है।

उदाहरण पहला (त्रास)
सवैया

श्री वृषभानलली मिलिकै, जमुनाजल केलि कों हेलिनु आनी।
रोमवली नवली कहिदेव, सु सोने से गात अन्हात सुहानी॥
कान्ह अचानक बोलि उठे, उर बाल के व्याल-बधू लपिटानी।
धाइ को धाइ गही ससवाइ, दुहूं कर भारत अंग अपानी॥

शब्दार्थ—वृषभान लली—राधा। जमुना जल......आनी—सखियों के साथ यमुना नहाने आयी। रोमबली—रुँए, ए, रोम, बाल। सोने सेगात[ ५७ ]सोने के समान सुन्दर शरीर। कान्ह......लपिटानी—कृष्ण अचानक कह उठे कि देखो शरीर में सापिन लपट गयी। धाइकों.....अपानी (यहसुन) वह घबड़ायी हुई दौड़ी और दोनों हाथों से शरीर को झाड़ने लगी।

उदाहरण दूसरा (भय)
सवैया

आजु गुपाल जू बाल-बधू सँग, नूतन नूतने कुञ्ज बसे निसि।
जागर होत उजागर नैननि, पाग पै पीरी पराग रही पिसि॥
चीज के चन्दन खोज खुले जहँ, ओछे उरोज रहे उरमें धिसि।
बोलत बात लजात से जात, सुआये इतौत चितौत चहूँ दिसि॥

शब्दार्थ—नूतन—नये, नवीन। पागपै—पगड़ी पर। पीरी—पीली। चितौत चहूं दिसि—चारो ओर देखते हुए।

३३—तर्क
दोहा

विप्रतिपत्ति बिचारु अरु, संसय अध्यवसाइ।
बितरक चौविधि जानिए, भूचलनाधिक भाइ॥

शब्दार्थ—चौविधि—चार तरह के।

भावार्थ—विप्रतिगत्ति, विचार, संशय और अध्यवसाइ ये चार तरह के तर्क कहे गये हैं। (किसी प्रकार के संशय पैदा होने के भाव को ही तर्क कहते हैं) [ ५८ ] 

उदाहरण पहला (विप्रतिपत्ति)
सवैया

यह तौ कछूभामिती कोसौ लसै, मुख देखत ही दुख जात है ह्वै।
सफरी-मद-मोवन लोचन ये, परिहै कहुँ मानों चित्तौत ही च्वै॥
कवि देव कहै कहिए जुग जो, जल जात रहे जलजाल में ध्वै।
न सुने तयौ काहू कहूँ कबहूँ, कि मयङ्क के अङ्क में पङ्कज द्वै॥

शब्दार्थ—सफरी—मछली। मद मोचन—गर्व तोठने वाले। मयङ्क—चन्द्रमा। पङ्कज—कमल।

उदाहरण दूसरा (विचार)
सवैया

काम कमान ते बान उतारि है, 'देव' नहीं मधु माधव रेहै।
कोकिलऊ कल कोमल बोल, बिसारि के आपु अलोप कहै है॥
मोहि महादुख दै सजनी, रजनीकर और रजनी घटि जैहै।
प्रान पियारे तु ऐहै घरै, पर प्रान पयान कै फेरि न एहै॥

शब्दार्थ—काम.........उतारि है—कामदेव अपने धनुष से वाण उतार लेंगे। मधु—चैतमास। कोकिलऊ.....कोमल बोल—कोयल भी अपने मीठे वचन बोलना छोड़ देगी। अलोप कहे है—गायब हो जायगी। रजनीकर—चन्द्रमा। रजनी—रात्रि। घरै—घर। पर......एहै—परन्तु प्राण जाकर फिर नहीं लौटेंगे।

उदाहरण तीसरा (संशय)
सवैया

यह कैधों कलाधर ही की कला, अबला किधौं काम की कैधों सची।
किधौं कौन के भौन की दीप सिखा, सखी कौन के भाग ह्वै भालखची।

[ ५९ ]

तिहुँलोक की सुन्दरताई की एक, अनूपम रूप की रासि मची।
नर, किन्नर, सिद्ध, सुरासुरहून की, बञ्चि, बधूनि बिरश्चि रची॥

शब्दार्थ—कैधौ—या, अथवा। कलाधर—चन्द्रमा। अबलाकिधौ कामकी—अथवा रति है। कैधौसची—या इन्द्राणी है। भौन—घर। दीपसिखा—दीपक की ज्योति। बश्चि—छोड़कर। विरञ्चि—ब्रह्मा।

उदाहरण चौथा (अध्यवसाय)
सवैया

कहु कौन की चम्पक चारु लता, यह देखि सबै जनभूलि रहै।
'कविदेव' ए ती मैं कहा बिलसे, बिवसी फल से धरि धूलि रहै॥
तिहि ऊपर को यह सोम नवोतम, तौम चहूँदिस झूलि रहै।
चित में चितु चोरत कोए तहाँ, नवनील सरोज से फूलि रहै॥

शब्दार्थ—सबै........भूलिरहै—सभी मोहित हो रहे हैं। चहूंदिस—चारों ओर। नवलीलसरोज—नए नीले कमल।

दोहा

भरतादिक सत कवि कहै, विभचारी तैंतीस।
वरनत छल चौतीस यों, एक कविन केईस॥

शब्दार्थ—विभचारी—व्यभिचारी।

भावार्थ—भरत आदि आचार्यों ने कुल तैंतीस व्यभिचारी भाव कहे हैं, परन्तु कुछ कविवर 'छल' नामक एक चौंतीसवाँ व्यभिचारी भाव और मानते हैं। [ ६० ] 

३४—छल
दोहा

अपमानादिक करन कों, कीजै क्रिया छिपाव।
वक्र उक्ति अन्तर कपट, सो बरनै छल भाव॥

शब्दार्थ—छिपाव—छिपने की क्रिया।

भावार्थ—अपने अपमानादि को चतुरतापूर्वक छिपाकर, हृदय में कपट रखते हुए, वक्रोक्तियां कहना छल कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

स्याम सयाने कहावत हैं कहौ, आजु को काहि सयानु है दीनो।
देव कहै दुरि टेर कुटीर मै, आपनो बैर बधू उहि लीनो।
चूमि गई मुँह औचक ही, पटु लै गई पै इन वाहि न चीन्हो॥
छैल भले छिन ही मैं छले, दिन ही मैं छबीली भलोछलकीन्हो॥

शब्दार्थ—सयाने—चतुर। दुरि—छिपकर। औचक–अचानक, यकायक। पटु–वस्त्र। चीन्हो–पहचाना। छबीली–सुन्दर।

छप्पय

सङ्का सूया भय गलानि, धृति सुमृति नीद मति।
चिन्ता, विसमय, व्याधि, हर्ष, उत्सुकता जड़ गति॥

[ ६१ ]

मद, विषाद, उन्माद, लाज, अवहित्था जानौ।
सहित चपलता ए विशेष सिङ्गार बखानौ॥
अरु समान मत सम्भोग मैं, सकल भाव बरनन करौ।
आलस उग्रता भाव द्वै, सहित जुगुप्सा परिहरौ॥
आरस ग्लानि निर्वेद श्रम, उत्कण्ठा जड़ जोग।
सङ्कापसुमृति सुमृति अब, बोधोनाद वियोग॥

शब्दार्थ और भावार्थ—दोनों सरल है।