भाव-विलास/द्वितीय विलास/सात्विक भाव

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भाव-विलास  (1934) 
द्वारा देव

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सात्विक भाव
दोहा

थिति बिभाव अनुभाव तें, न्यारे अति अभिराम।
सकल रसनि मै संचरें, संचारी का नाम॥
ते सारीर रु आंतर, द्विविध कहत भरतादि।
स्तंभादिक सारीर अरु, आंतर निरबेदादि॥
आठ भेद स्तंभादि के, तिनको सात्विक नाम।
तेई पहले बरनिये, सरस रीति अभिराम॥

शब्दार्थ—न्यारे—निराले, अलग। अभिराम—सुन्दर। द्विविध—दो तरह के। भरतादि—भरत आदि आचार्य।

भावार्थ—स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव से पृथक जो भाव रसों में सञ्चार करते हैं उन्हें सञ्चारी भाव कहते हैं। ये सञ्चारी भाव भी भरतादि आचार्यों ने दो तरह के माने हैं। एक शारीरिक और दूसरे मानसिक। इनमें स्तम्भ आदि शारीरिक कहलाते हैं और निर्वेद आदि मानसिक। स्तम्भादि के जो आठ भेद हैं; वे सात्विक कहलाते हैं पहले उन्हीं का वर्णन किया जाता है। [ २२ ] 

दोहा

स्तंभ, स्वेद, रोमांच, अरु, वेपथु अरु स्वर भङ्ग।
बिवरनता, आँसू, प्रलय, ये सात्विक रस अङ्ग॥

शब्दार्थ—अरु—और।

भावार्थ—स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, वेपथु, स्वरभङ्ग, वैवर्ण्य, आँसू, और प्रलय ये आठ सात्विक भाव हैं।

१—स्तम्भ
दोहा

रिस बिस्मय भय राग सुख, दुख बिषाद तें होय।
गति निरोध जो गात मैं, तम्भु कहत कवि लोय॥

शब्दार्थ—रिस—क्रोध। बिस्मय—आश्चर्य। गति निरोध—गति का रुकना। गात—शरीर। तम्भु—स्तम्भ। लोय—लोग।

भावार्थ—क्रोध, आश्चर्य, भय, सुख, दुख आदि कारणों से, शरीर के अवयवों की गति का जो निरोध होता है उसे कवि लोग स्तम्भ कहते हैं।

उदाहरण
दोहा

गोरी सी ग्वालिन थोरी सी बैस, जगी तन जोबन जोति नई है।
आवत ही अबही उततें, कविदेव सुनैंकु इतें चितई है॥
योहि कटाछनु मोहि चितौतु, चितौतहि मोहन मोहि लई है।
व्याध हनी हरिनी लौं बधू, वह वा घर लौं भिहराति गई है॥

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शब्दार्थ—थोरी—थोढ़ी, कम। वैस—उम्र। जोबन—यौवन। वितौतहि—देखते ही। मोहि लई—मोह लिया। हिरणी हरी लौं—ब्याध द्वारा घायल की गयी हरिणी के समान। वा घर—उस घर। लौं—तक। भिहराति—धबड़ाई हुई।

२—स्वेद
दोहा

क्रोध, हर्ष, संताप, श्रम, घातादिक भय लाज।
इनते सजल सरीर सो, स्वेद कहत कबिराज॥

शब्दार्थ—इनते—इनसे। संताप—कष्ट।

भावार्थ—क्रोध, हर्ष, संताप, परिश्रम, भय, लाज आदि के कारण अंग प्रत्यंग में जो जलकण दिखायी देने लगते हैं उन्हें कवि लोग स्वेद कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

हेलिन खेलिन के मिस सुन्दरि, केलि के मन्दिर पेलि पठाई।
बाल बधू बिधु सौ मुख चूमि, लला छल सों छतियाँ सों लगाई॥
लाल के लोल कपोलनि मैं, झलक्यो जल-दीपति दीप की झाँई।
आरसी मैं प्रतिबिम्बत ह्वै, मनो देव दिवाकर देत दिखाई॥

शब्दार्थ—हेलिन—सखियों ने। मिस—बहाने। केलि के मन्दिर—क्रीड़़ा—गृह में। पेलि पठाई—जबर्दस्ती घुसादी। बिधु सौ मुख—चन्द्रमा के समान मुख। चूमि—चूमकर। लोल—सुन्दर। कपोलनि—गाल। मैं—में झलक्यो जल दीपति दीप की झाई—पसीने में दीपक की लौ झलकने लगी। आरसी......दिखाई—मानो दर्पण में सूर्य का प्रतिबिम्ब झलक रहा हो। [ २४ ] 

३—रोमाञ्च
दोहा

आलिंगन, भय, हर्ष, अरु, सीत कोप तें जानु।
उठत अंग में रोम जे, ते रोमांच बखानु॥

शब्दार्थ—कोप—क्रोध।

भावार्थ—आलिंगन, भय, हर्ष, और शीतादि के कारण शरीर के रोएं जब खड़े हो जाते हैं तब उन्हें रोमाञ्च कहते हैं।

उदाहरण

कूल चली जल केलि के, कामिनि, भावते के सँग भाति भली सी।
भींजे दुकूल में देह लसै, कविदेव जू चम्पक चारु दली सी॥
बारि के बूद चुवैं चिलकैं, अलकै छबि की छलकै उछली सी।
अञ्चल झीन झकैं झलकैं, पुलकैं कुच कन्द कदम्ब कली सी॥

शब्दार्थ—कूल—किनारे। जल केलिके—जल-क्रीड़ा करके। कामिनि—स्त्री। भवते—पति, प्रेमी। भात—शोभायमान। भींजे—भीगे हुए। दुकूल—कपड़े लसै—शोभायमान। चम्पक—चम्पा पुष्प। चारु—सुन्दर। दली सी—कली के समान। झलकैं—दिखायी देते हैं। पुलकैं—पुलकायमान हो।

४—वेपथु
दोहा

प्रिय-आलिंगन हर्ष भय, सीत कोप तें जानु।
अंग कम्प प्रस्फुरन बिनु, वेपथु ताहि बखानु॥

[ २५ ]

शब्दार्थ—प्रस्फुरन—रोमाञ्च।

भावार्थ—प्रिय के आलिंगन, हर्ष, भय, तथा शीत कोपादि के कारण जब शरीर कांपने लगता है और रोमाञ्च नहीं होता तब उसे वेपथु कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

देव दुहून के देखत ही, उपज्यो उरमैं अनुराग अनूनों।
डोलत है अभिलाष भरे, सुलग्यौं विरह ज्वर अंग अझूनों॥
तौ लौं अचानक ह्वै गई भेट, इतै उत ठौर निहारत सूनों।
प्रीति भरे उर भीति भरे वन, कुंज में कम्पति दम्पति दूनो॥

शब्दार्थ—दूहून—दोनों। उर में—हृदय में। अनुराग—प्रेम। अनूनों—अन्यून, बहुत। सूनों—एकान्त। भीति—भय, डर। दम्पति—पति-पत्नी।

५—स्वरभङ्ग
दोहा

जो रिस भय मुदमद भये, निकसै गदगद बानि।
ताही को स्वरभङ्ग कहि, कबिबर कहत बखानि॥

शब्दार्थ—रिस—क्रोध।

भावार्थ—क्रोध, भय, हर्ष आदि के कारण जो गद्गद् वाणी मुँह से निकलती है उसे कवि लोग स्वरभङ्ग कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

परदेस तें प्रीतम आये हिए, इक आइ के आली सुनाई यही।

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कविदेव अचानक चौंक परी, सुनि तें, बलि वा छतियाँ उमही॥
तब लौं पिय आँगन आइ गये, धन धाय हिये लपटाय रही।
अँसुवा ठहरात गरौ घहरात, मरू करि आधिक बात कही॥

शब्दार्थ—आली—सखी। अचानक—यकायक, अकस्मात। छतियाँ उमही—हृदय भर आया। धाय—दौड़ कर। घहरात—घरघराता है। मरू करि—मुश्किल से, कठिनता से। आधिक—आयी।

६—बिवरनता
दोहा

भय, बिमोह अरु कोप तें, लाज सीत अरु घाम।
मुख दुति औरैं देखिये, सो बिबरनता नाम॥

शब्दार्थ—कोप—क्रोध। सीत—शीत। धाम—धूप।

भावार्थ—भय, मोह, क्रोध, लज्जा, शीत तथा घामादि के कारण मुख अथवा शरीर की कान्ति के बदल जाने को बिवरनता कहते हैं

उदाहरण
सवैया

सुन्दरि सोवति मन्दिर मैं, कहूं सापने मैं निरख्यो नँदु नन्द सौ।
त्यों पुलक्यौ जल सों झलक्यौ उर, औचक ही उचकौ कुचकंद सौ॥
तौ लगि चौंक परी कहि देव, सुजानि परौ अभिलाष अमन्द सौ।
आलिन को मुख देखत हीं, मुख भावती को भयो भोर कौ चन्दसौ॥

शब्दार्थ—मन्दिर—गृह, घर। सापने—सपने में। निरख्यो—देखा। पुलक्यौ—पुलकित हुआ। उर—हृदय। औचक—यकायक। भोर के चन्द सौ—सबेरे के चन्द्रमा के समान अर्थात् फीका, निस्तेज। [ २७ ] 

७—अश्रु
दोहा

विपल विलोकत धूम भय, हर्ष, अमर्ष, विषाद।
नैनन नीर निहारिये, अश्रु कहे निरबाद॥

शब्दार्थ—निरबाद—निश्चय, अवश्य।

भावार्थ—धुँवा, भय, हर्ष विषादादि के कारण आँखो में जो पानी निकलने लगता है उसे अश्रु कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

बोलि उठो पपिहा कहूं पीव, सु देखिबे को सुनि के धुनि धाई।
मोर पुकारि उठे चहुँ ओर, सुदेव घटा घिरकी चहुँघाँई॥
भूलि गई तिय को तन की सुधि, देखि उतै बन भूमि सुहाई।
साँसनि सों भरि आयौ गरौ अरु, आँसुन से अँखिया भरि आई॥

शब्दार्थ—धाई—दौड़ी। चहुँघाँई—चारों ओर। साँसनि सो—श्वास भरने से। भरि पायौ गरौ—गलाभर आया। आँसुन सों—आँसुओं से।

८—प्रलय
दोहा

प्रिय दर्शन, सुमिरन, श्रवन, होत अचलगति गात।
सकल चेष्टा रुकि रहैं, प्रलय कहैं कवि तात॥

शब्दार्थ—सुमिरन-स्मरण [ २८ ]  भावार्थ—अपने प्रिय के दर्शन, स्मरण, अथवा श्रवण से तन्मय होकर शरीर की चेष्टा के रुक जाने को प्रलय कहते है।

उदाहरण
सवैया

गोरी गुमान भरी गज गामिनि, कालि धौं को वह कामिनि तेरे।
आई जु ती सुचितें मुसक्याइ के, मोहि लई मनमोहन मेरे॥
हाथन पाँय हलें न चलें अँग, नीरज नैन फिरैं नहिं फेरे।
देव सुठौर ही ठाड़ी चितौति, लिखी मनु चित्र विचित्र चितेरे॥

शब्दार्थ—गुमान भरी—गर्वीली। गज-गामिन—हाथी की तरह चाल चलनेवाली। चितौति—देखती है। लिखी......चितेरे—मानो किसी कुशल चित्रकार ने चित्र में लिख दिया हो।