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भ्रमरगीत-सार/१००-अति मलीन बृषभानुकुमारी

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२५

 

राग जैतश्री
अति मलीन बृषभानुकुमारी।

हरि-स्रमजल अंतर-तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ[] हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर[], बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥
हरि-सँदेस सुनि सहज मृतक भईं, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवति हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी॥१००॥

  1. गथ=पूँजी।
  2. चिहुर=चिकुर, बाल।