भ्रमरगीत-सार/९९-दूर करहु बीना कर धरिबो

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राग सारंग
दूर करहु बीना कर धरिबो।

मोहे मृग नाही रथ हाँक्यो, नाहिंन होत चंद को ढरिबो[१]

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बीती जाहि पै सोई जानै कठिन है प्रेम-पास को परिबो।
जब तें बिछुरे कमलनयन, सखि, रहत न नयन नीर को गरिबो॥
सीतल चंद अगिनि सम लागत कहिए धीर कौन बिधि धरिबो।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु सब झूठो जतननि को करिबो॥९९॥

  1. मोहे...ढरिबो=बीना की तान से मोहित होकर चंद्रमा के रथ के मृग चलते नहीं इससे न चन्द्रास्त होता है न रात बीतती है। जायसी भी पद्मावत में यह उक्ति इस प्रकार लाए हैं––गहै बीन मकु रैन बिहाई। इत्यादि।