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पहिले ही चढ़ि रह्यो स्याम-रँग छुटत न देख्यो धोय॥
कैतव[१]-बचन छाँड़ि हरि हमको सोइ करैं जो मूल। जोग हमैं ऐसो लागत है ज्यों तोहि चंपक फूल॥ अब क्यों मिटत हाथ की रेखा? कहौ कौन बिधि कीजै? सूर, स्याममुख आनि दिखाओ जाहि निरखि करि जीजै॥१०२॥