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भ्रमरगीत-सार/१०३-ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२६

 

राग गौड़
ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।

कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास॥
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास-भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहिं रहत पियास॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत-उपहास॥१०३॥