भ्रमरगीत-सार/१०३-ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास
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ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।
कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास॥
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास-भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहिं रहत पियास॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत-उपहास॥१०३॥