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भ्रमरगीत-सार/११०-ऊधो! यह हित लागै काहे

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२९

 

राग सारंग
ऊधो! यह हित लागै काहे?

निसिदिन नयन तपत दरसन को तुम जो कहत हिय-माहे॥
नींद न परति चहूं दिसि चितवति बिरह-अनल के दाहै।
उर तेँ निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है॥
पा लागों ऐसेहि रहन दे अवधि-आस-जल-थाहै[]
जनि बोरहि निर्गुन-समुद्र में, फिरि न पायहौ चाहे[]
जाको मन जाही तेँ राच्यो तासों बनै निबाहे।
सूर कहा लै करै पपीहा एते सर सरिता हैं?॥११०॥

  1. थाहै=थाह में।
  2. चाहे=चाहने पर हमें फिर न पाओगे॥