भ्रमरगीत-सार/११७-ऊधो! कमलनयन बिनु रहिए
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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३२
इक हरि हमैं अनाथ करि छाँड़ी दुजे बिरह किमि सहिए?
ज्यों ऊजर खेरे[१] की मूरति को पूजै, को मानै?
ऐसी हम गोपाल बिनु उधो! कठिन बिथा को जानै?
तन मलीन, मन कमलनयन सों मिलिबे की धरि आस।
सूरदास स्वामी बिन देखे लोचन मरत पियास॥११७॥