भ्रमरगीत-सार/१४-है कोई वैसीई अनुहारि
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राग मलार
मधुबन ते इत आवत, सखि री! चितौ तु नयन निहारि॥
माथे मुकुट, मनोहर कुंडल, पीत बसन रुचिकारि।
रथ पर बैठि कहत सारथि सों ब्रज-तन[१] बाँह पसारि॥
जानति नाहिंन पहिचानति हौं मनु बीते जुग चारि।
सूरदास स्वामी के बिछुरे जैसे मीन बिनु वारि॥१४॥
- ↑ तन=ओर, तरफ।