भ्रमरगीत-सार/१४-है कोई वैसीई अनुहारि

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार  (1926) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

[ ९१ ]

उद्धव का ब्रज में दिखाई पड़ना

राग मलार

है कोई वैसीई अनुहारि।

मधुबन ते इत आवत, सखि री! चितौ तु नयन निहारि॥
माथे मुकुट, मनोहर कुंडल, पीत बसन रुचिकारि।
रथ पर बैठि कहत सारथि सों ब्रज-तन[१] बाँह पसारि॥
जानति नाहिंन पहिचानति हौं मनु बीते जुग चारि।
सूरदास स्वामी के बिछुरे जैसे मीन बिनु वारि॥१४॥

  1. तन=ओर, तरफ।