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बिन गोपाल, ऊधो, मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥ तन, मन, जौबन वृथा जात है ज्यों भुवंग की फूँक। हृदय अग्नि को दवा बरत है, कठिन बिरह की हूक[१]॥
जाकी मनि हरि लई सीस तें कहा करै अहि मूक? सूरदास ब्रजबास बसीं हम मनहूँ दाहिने सूक[२]॥