भ्रमरगीत-सार/१६८-सुनु गोपी हरि को सँदेस
[ १४८ ]
राग नट
करि समाधि अंतर-गति चितवौ प्रभु को यह उपदेस॥
वै अबिगत, अबिनासी, पूरन, घटघट रहे समाय।
तिहि निश्चय कै ध्यावहु ऐसे सुचित कमलमन लाइ॥
यह उपाय करि बिरह तजौगी मिलै ब्रह्म तब आय।
तत्त्वज्ञान बिनु मुक्ति न होई निगम सुनाबत गाय॥
सुनत सँदेस दुसह माधव के गोपीजन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, नयन ढरत अति पानी॥१६८॥