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भ्रमरगीत-सार/१७०-सुनियत ज्ञानकथा अलि गात

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४९

 

सुनियत ज्ञानकथा अलि गात।

जिहि मुख सुधा बेनुरवपूरित हरि प्रति छनहिं सुनात॥
जहँ लीलारस सखी-समाजहिं कहत कहत दिन जात।
बिधिना फेरि दियो सब देखत, तहँ षटपद समुझात[]
बिद्यमान रसरास लड़ैते कत मन इत अरुझात?
रूपरहित कछु बकत बदन ते मति कोउ ठग भुरवात[]
साधुबाद स्रुतिसार जानिकै उचित न मन बिसरात।
नँदनंदन कर-कमलन को छबि मुख उर पर परसात॥
एक एक ते सबै सयानी ब्रजसुँदरि न सकात[]
सूर स्याम-रससिंधुगामिनी नहिं वह दसा हिरात॥१७०॥

  1. समुझात=समझाता है।
  2. भुरवात=भुलाता है।
  3. सकात=डरती हैं।