सामग्री पर जाएँ

भ्रमरगीत-सार/१८१-ऊधो अब जो कान्ह न ऐहैं

विकिस्रोत से

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५३

 

ऊधो! अब जो कान्ह न ऐहैं।

जिय जानौ अरु हृदय बिचारौ हम न इतो दुख सैहैं॥
बूझौ जाय कौन के ढोटा, का उत्तर तब दैहैं?
खायो खेल्यो संग हमारे, ताको कहां बनैहैं॥
गोकुलमनि मथुरा के बासी कौ लों झूठो कैहैं।
अब हम लिखि पठवन चाहति हैं वहाँ पाति नहिं पै हैं।
इन गैयन चरिवा छाँड्यो है जो नहिं लाल चरै हैं।
एते पै नहिं मिलत सूर प्रभु फिरि पाछे पछितैहैं॥१८१॥