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दिन दस रहे सो भली कीनी अब जनि गहरु लगावैं॥ तुम बिनु कछु न सुहाय प्रानपति कानन भवन न भावैं।
बाल बिलख, मुख गौ न चरत तृन, बछरनि छीर न प्यावैं॥ देखत अपनी आँखिन, ऊधो, हम कहि कहा जनावैं। सूर स्याम बिनु तपति रैन-दिनु हरिहि मिले सचु पावैं॥१८०॥