भ्रमरगीत-सार/१८८-ऊधो भली करी गोपाल
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आपुन तौ आवत नाहीं ह्याँ, वहाँ, रहे यहि काल॥
चन्दन चन्द हुतो तब सीतल, कोकिलसब्द रसाल।
अब समीर पावक सम लागत, सब ब्रज उलटी चाल॥
हार, चीर, कंचुकि कंटक भए, तरनि तिलक भए भाल।
सेज सिंह, गृह तिमिर-कंदरा, सर्प सुमन-मनिमाल।
हम तौ न्याय सहैं एतो दुख बनवासी जो ग्वाल।
सूरदास स्वामी सुखसागर भोगी भ्रमर भुवाल॥१८८॥