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आवत, जात, उलटि फिरि बैठत जीवन-अवधि गहे॥ जब हे दाम उखल सों बाँधे बदन नवाय रहे। चुभि जु रही नवनीत-चोर-छवि, क्यों भूलति सो ज्ञान गहे? तिनसों ऐसी क्यों कहि आवै जे कुल-पति की त्रास महे[१]? सूर स्याम गुन-रसनिधि तजिकै को घटनीर बहे?॥१९८॥