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भ्रमरगीत-सार/२००-ऊधो हम हैं तुम्हरी दासी

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५७

 

उधो! हम हैं तुम्हरी दासी।

काहे को कटु बचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी॥
हमरे गुनहि गाँठि किन बाँध्यो, हमपै कहा बिचार?
जैसी तुम कीनी सो सब ही जानतु है संसार॥
जो कछु भली बुरी तुम कहिहौ सो सब हम सहि लैहैं।
अपनो कियो आप भुगतैंगी दोष न काहू दैहैं॥
तुम तौ बड़े, बड़े के पठए, अरु सबके सरदार।
यह दुख भयो सूर के प्रभु सुनि कहस लगाबन छार॥२००॥