भ्रमरगीत-सार/२१८-ऊधो कह मत दीन्हो हमहिं गोपाल
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ऊधो! कह मत दीन्हो हमहिं गोपाल?
आवहु री सखि! सब मिलि सोचैं ज्यों पावैं नँदलाल॥
घर बाहर तें बोलि लेहु सब जावदेक ब्रजबाल।
कमलासन बैठहु री माई! मूँदहु नयन बिसाल॥
षट्पद कही सोऊ करि देखी, हाथ कछू नहिं आई।
सुन्दरस्याम कमलदललोचन नेकु न देत दिखाई॥
फिरि भईं मगन बिरहसागर में काहुहि सुधि न रही।
पूरन प्रेम देखि गोपिन को मधुकर मौन गही॥
कहुं धुनि सुनि स्रवननि चातक की प्रान पलटि तब आए।
सूर सु अबकै टेरि पपीहै बिरहिन मृतक जिवाए॥२१८॥