भ्रमरगीत-सार/२३१-ऊधो! अब नहिं स्याम हमारे
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मधुबन बसत बदलि से गे वे, माधव मधुप तिहारे॥
इतनिहि दूरि भए कछु औरै, जोय जोय मगु हारे।
कपटी कुटिल काक कोकिल ज्यों अन्त भए उड़ि न्यारे॥
रस लै भँवर जाय स्वारथ-हित प्रीतम चितहिं बिसारे।
सूरदास तिनसों कह कहिए जे तन हूँ मन कारे॥२३१॥