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भ्रमरगीत-सार/२३९-ऊधो यह मन अधिक कठोर

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भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७१

 

राग बिहागरो
ऊधो! यह मन अधिक कठोर।

निकसि न गयो कुँभ काँचे ज्यों बिछुरत नँदकिसोर॥
हम कछु प्रीति-रीति नहिं जानी तब ब्रजनाथ तजी।
हमरे प्रेम न उनको, ऊधो! सब रस-रीति लजी॥
हमतें भली जलचरी बपुरी अपनो नेम निबाहैं।
जल तें बिछुरत ही तन त्यागैं जल ही जल को चाहैं।
अचरज एक भयो सुनो, ऊधो! जल बिनु मीन जियो।
सूरदास प्रभु आवन कहि गए मन बिस्वास कियो॥२३९॥