भ्रमरगीत-सार/२३८-ऊधो! कहत कही नहिं जाय

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ऊधो! कहत कही नहिं जाय।

मदनगोपाल लाल के बिछुरत प्रान रहे मुरझाय॥
अब स्यंदन चढ़ि गवन कियो इत फिरि चितयो गोपाल।
तबहीं परम कृतज्ञ सबै उठि सँग लगीं ब्रजबाल॥
अब यह औरै सृष्टि बिरह की बकति बाय-बौरानो।
तिनसों कहा देत फिरि उत्तर? तुम हौ पूरन ज्ञानी॥
अब सो मान घटै, का कीजै? ज्यों उपजै परतीति।
सूरदास कछु बरनि न आवै कठिन बिरह की रीति॥२३८॥