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भ्रमरगीत-सार/२४१-ऊधो हमैं जोग नहिं भावै

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भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७१

 

ऊधो! हमैं जोग नहिं भावै।

चित में बसत स्यामघन सुन्दर, सो कैसे बिसरावै?
तुम जो कही सत्य सब बातें, हमरे लेखे धूरि।
या घट-भीतर सगुन निरँतर रहे स्याम भरि पूरि॥
पा लागौं कहियो मोहन सों जोग कूबरी दीजै।
सूरदास प्रभु-रूप निहारैं हमरे संमुख कीजै॥२४१॥