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भ्रमरगीत-सार/२४३-ऊधो कहियो यह संदेस

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७२

 

राग सारंग
ऊधो! कहियो यह संदेस।

लोग कहत कुबजा-रस-माते, तातें तुम सकुचौ जनि लेस॥
कबहुँक इत पग धारि सिधारौ धरि हरिखँड सुबेस।
हमरो मनरंजन कीन्हें तें ह्वैहौ भुवननरेस॥
जब तुम इत ठहराय रहौगे देखौगे सब देस।
नहिं बैकुण्ठ अखिल ब्रह्माँडहि ब्रज बिनु[], हे हृषिकेस[]!
यह किन मंत्र दियो नंदनँदन तजि ब्रज भ्रमन-बिदेस?
जसुमति जननी प्रिया राधिका देखे औरहि देस?
इतनी कहत कहत स्यामा पै कछु न रह्यो अवसेस।
मोहनलाल प्रबाल मृदुलमन ततछन करी सुहेस॥
को ऊधो, को दुसह बिरह-जुर[], को नृपनगर-सुरेस?
कैसो ज्ञान, कह्मो किन कासों, किन पठयो उपदेस?
मुख मृदुछबि मुरली रव पूरित गोरज-कर्बुर केस[]
नट-नाटकगति बिकट लटक जब बन तें कियो प्रबेस॥
अति आतुर अकुलाय धाय पिय पोंछत नैन कुसेस[]
कुम्हिलानो मुखपद्म परस करि देखत छविहि बिसेस॥
सूर सोम, सनकादि, इंद्र, अज, सारद, निगम, महेस।
नित्यबिहार सकल रस भ्रमगति कहि गावहिं मुख सेस॥२४३॥

  1. बिनु=अतिरिक्त, सिवाय, छोड़ कर।
  2. हृषिकेस=विष्णु।
  3. जुर=ज्वर, ताप,।
  4. गोरज कर्बुर केस=गायों के खुर पड़ने से उठी
    हुई धूल लगने के कारण धूमले बाल।
  5. कुसेस=कुशेशय, कमल।