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मधुकर! जानत है सब कोऊ। जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दौऊ॥ पाके चोर, हृदय के कपटी, तुम कारे औ वोऊ। सरबसु हरत, करत अपनो सुख, कैसेहू किन होऊ॥ परम कृपन थोरे धन जीवन उबरत नाहिंन सोऊ। सूर सनेह करै जो तुमसों सो करै आप-बिगोऊ[१]॥२४५॥