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भ्रमरगीत-सार/२४५-मधुकर जानत है सब कोऊ

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७३

 

मधुकर! जानत है सब कोऊ।
जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दौऊ॥
पाके चोर, हृदय के कपटी, तुम कारे औ वोऊ।
सरबसु हरत, करत अपनो सुख, कैसेहू किन होऊ॥
परम कृपन थोरे धन जीवन उबरत नाहिंन सोऊ।
सूर सनेह करै जो तुमसों सो करै आप-बिगोऊ[]॥२४५॥

  1. बिगोऊ=नाश, खराबी।