भ्रमरगीत-सार/२४७-मधुकर कहत सँदेसो सूलहु
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मधुकर! कहत सँदेसो सूलहु[१]।
हरिपद छाँड़ि चले तातें तुम प्रीतिप्रेम भ्रमि भूलहु॥
नहिं या उक्ति मृदुल श्रीमुख की जे तुम उर में हूलहु[२]।
बिलज न बदन होत या उचरत जो संधान न मूलहु[३]॥
उत बड़ ठौर नगर मथुरा, इत तरनितनूजा[४] कूलहु।
उत महराज चतुर्भुज सुमिरौ, इत किसोरनँद दूलहु॥
जे तुम कही बड़ेन की बतियाँ ब्रज जन नहिं समतूलहु।
सूर स्याम गोपी-सँग बिलसे कंठ धरे भुजमूलहु॥२४७॥