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भ्रमरगीत-सार/२४७-मधुकर कहत सँदेसो सूलहु

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७४

 

मधुकर! कहत सँदेसो सूलहु[]
हरिपद छाँड़ि चले तातें तुम प्रीतिप्रेम भ्रमि भूलहु॥
नहिं या उक्ति मृदुल श्रीमुख की जे तुम उर में हूलहु[]
बिलज न बदन होत या उचरत जो संधान न मूलहु[]
उत बड़ ठौर नगर मथुरा, इत तरनितनूजा[] कूलहु।
उत महराज चतुर्भुज सुमिरौ, इत किसोरनँद दूलहु॥
जे तुम कही बड़ेन की बतियाँ ब्रज जन नहिं समतूलहु।
सूर स्याम गोपी-सँग बिलसे कंठ धरे भुजमूलहु॥२४७॥

  1. सूलहु=शूल उत्पन्न करते हो।
  2. हूलहु=चुभाते हो।
  3. जो संधान न मूलहु=यदि कृष्ण के कहे मूल वचन में मिलावट न होती।
  4. तरनितनूजा=सूर्य की कन्या, यमुना।