मधुकर! बादि[१] बचन कत बोलत?
तनक न तोहिं पत्याऊँ, कपटी अंतर-कपट न खोलत॥
तू अति चपल अलप[२] को सगी बिकल चहूँ दिसि डोलत।
मानिक काँच, कपूर कटु खली, एक संग क्यों तोलत?
सूरदास यह रटत बियोगिनि दुसह दाह क्यों झोलत[३]।
अमृतरूप आनन्द अँगनिधि अनमिल अगम अमोलत॥२५२॥