भ्रमरगीत-सार/२५८-मधुकर महाप्रबीन सयाने

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राग सारंग

मधुकर! महाप्रबीन सयाने।
जानत तीन लोक की बातैं अबलन काज अयाने॥
जे कच कनक-कचोरा भरि भरि मेलत तेल फुलेल।
तिन केसन को भस्म बतावत, टेसू[१] कैसो खेल॥
जिन केसन कबरी[२] गहि सुन्दर अपने हाथ बनाई॥
तिनको जटा धरन को, ऊधो कैसे कै कहि आई?
जिन स्रबनन ताटंक, खुभी अरु करनफूल खुटिलाऊ।
तिन स्रबनन कसमीरी[३] मुद्रा लटकन, चीर झलाऊ[४]
भाल तिलक, काजर चख, नाला नकबेसरि, नथ फूली।
ते सब तजि हमरे मेलन को उज्वल भस्मी खूली[५]
कंठ सुमाल हार मनि, मुक्ता, हीरा, रतन अपार।
ताही कंठ बाँधिबे के हित सिंगी जोगसिंगार॥
जिहि मुख मीत सुभाखत गावत करत परस्पर हास।
ता मुख मौन गहे क्यों जीवैं, घूटैं ऊरध स्वास?
कंचुकि छीन, उबटि घसि चन्दन, सारी सारस चन्द।
अब कँथा एकै अति गूदर क्यों पहिरैं, मतिमन्द?

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ऊधो, उठो सबै पा लागैं, देख्यो ज्ञान तुम्हारो।
सूरदास मुख बहुरि देखिहैं जीजौ कान्ह हमारो॥२५८॥

  1. टेसू=लड़कों का एक उत्सव जो दसहरे के दिन होता है और जिसमें वे एक घास का पुतला लेकर गाते हुए निकलते हैं।
  2. कबरी=वेणी, चोटी।
  3. कसमीरी=स्फटिक की।
  4. झलाऊ=झोलझाल!
  5. खूली=खोली, थैली।